सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' आधुनिक हिंदी साहित्य के आसमान छूते पर्वतों में से एक हैं. उनका जन्म 7 मार्च 1911 को देवरिया जिला के कसया में पुरातत्त्व खुदाई शिविर में हुआ. बचपन लखनऊ में बीता और घर पर ही संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी की शिक्षा हुई. पिता ने हिंदी सिखाई. पिता पुरातत्व विभाग में थे. वो गांव-जंगल-खंडहर में भटकते थे. इसलिए अज्ञेय की बचपन की यादों में पढ़ाई की उतनी यादें नहीं जितनी पशु-पक्षियों की हैं.
अज्ञेय खुद को जीवनभर यात्री मानते रहे. वे स्वभाव से अनेकता में एकता के हिमायती थे. उन्होंने साहित्य को अपने संपादन में तारसप्तक, दूसरा सप्तक, जैसे ग्रंथ दिए, जिसने आने वाले वर्षों के सबसे महत्वपूर्ण कवियों का परिचय साहित्य की दुनिया से करवाया.
वे ताराप्तक की भूमिका में लिखते हैं-
अज्ञेय को हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद लाने का श्रेय जाता है . इसकी शुरुआत 1943 से हुई, पर ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय कहते हैं-
अज्ञेय से हमेशा कई लोग सहमत-असहमत रहे हैं. आज की पीढ़ी की कवियित्री आरती कहती हैं-
अज्ञेय की कविताओं ने मुझे कभी उस तरह आकर्षित नहीं किया जैसा कि उनके गद्य ने किया. आज भी कई बार उनकी कविताओं से गुजरने की कोशिश करती हूं पर उनके भीतर की बौद्धिकता और मुक्ति जैसे प्रयास वहां ठहरने नहीं देते. वे कविता के बारे में कहते हैं- कविता शब्दों में उतनी नहीं होती जितनी शब्दों के बीच के विरामों में होती है.
पर इसी का जवाब आज ही की पीढ़ी के रविन्द्र स्वप्निल देते हैं-
अज्ञेय, आंतरिक जीवन के सबसे बड़े कवि हैं और वो प्रगतिशीलता के आगे चले जाते हैं. वे भौतिक जगत के पार जाकर विविधताओं को समेटते हुए अपने काव्य को संवारते हैं, चाहे उनकी असाध्य्वीणा कविता ले लो या कोई और. अज्ञेय को कम कर के आंकना अपनी ही अज्ञानता के अंधेरे में खड़े होना है.
अज्ञेय को अनेक पूर्वाग्रहों से देखा जाता रहा है पर अज्ञेय तमाम उम्र विद्रोही रहे. अपने उपन्यास शेखर एक जीवनी पहले भाग में पेज नंबर 27 पर वे लिखते हैं-
अज्ञेय कभी परंपरागत नियमों के पालन करते नहीं दिखे. शेखर के पेज नंबर 52 पर देखिए-
अज्ञेय समाज से खिन्न थे. इसे खारिज भी करते हैं. मैं उन्हें उपन्यास के माध्यम से समझने की कोशिश कर रहा हूं. आज हिंदी में सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासों में गिने जाने वाले ‘शेखर: एक जीवनी’ की देशभर में जगह-जगह अश्लील कह के प्रतियां जलाई गई थी, लेकिन अज्ञेय ने न माफी मांगी, न किसी के आगे झुके.
अज्ञेय परंपरावादियों से सदैव अलग रहे. उनका जीवन विरोधाभाषों से घिरा रहा.
खुशवंत सिंह ने अपनी जीवनी में लिखा है-
हिंदी के कवि अज्ञेय ने ये ख़बर उड़ा दी थी कि उन्हें नोबल मिल रहा है.
साहित्य अकादमी से पुरस्कृत और पुरस्कार लौटा चुके कवि राजेश जोशी कहते हैं-
असल में क्या है, अज्ञेय के कई फेज हैं. एक फेज ये भी है कि धर्मवीर भारती ओर अज्ञेय ने एंटी-फासिस्ट सम्मेलन किया अंग्रेजों के खिलाफ. उसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि वे सेना में गए. अंग्रेजों की तरफ से भी लड़े. हालांकिं उसके पीछे तर्क ये भी है किकम्युनिस्ट पार्टी जो थी भारत की, वो ये मानती थी कि इस समय हिटलर को हराने के लिए मित्र राष्ट्रों के साथ होना चाहिए. बाद में उन्होंने ठाठ नाम की पत्रिका का संपादन किया. CIA से पैसा मिलने का आरोप भी लगा.
अज्ञेय बम बनाने के आरोप में जेल गए थे. वे भगत सिंह को छुड़ाना चाहते थे. दिल्ली जेल में वे काल कोठरी में रहे थे. जेल का उनपर प्रभाव ये पड़ा. वे जीवनभर बेहद कम बोलते थे. उन्होंने जेल में ही चर्चित उपन्यास ‘शेखर: एक जीवनी’ लगभग पूरा लिखा था.
‘शेखर: एक जीवनी’ की भूमिका में अज्ञेय लिखते हैं-
इतना बता सकता हूं, जब आधी रात को डाकुओं की तरह पुलिस मुझे बंदी बना ले गई, थोड़ी सी मारपीट भी हो गई, तब मुझे दिखने लगा मेरे जीवन का इति अब शीघ्र होने वाला है. एक मास बाद जब लाहौर से अमृतसर जेल ले जाया गया, तब लेखन सामग्री पाकर मैंने चार-पांच दिनों में उस रात में समझे हुए जीवन के अर्थ और उसकी तर्क संगति को लिख डाला.
जेल में रहने के कारण प्रेमचंद ने उनका नाम अज्ञेय दिया था. प्रेमचंद उनकी कहानी छापना चाहते थे पर अज्ञेय षड्यंत्र केस में बंदी थे और कहानी अवैध तरीके से बाहर भेजी गई थी. ऐसे में वो उनका सही नाम नहीं छाप सकते थे. अतः लेखक का नाम अज्ञेय लिख दिया. इस तरह सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' हो गए.
(भोपाल के मानस भारद्वाज कवि और थियेटर आर्टिस्ट हैं. फिलहाल मुंबई में रहकर कला-संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रहे हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)