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अख्तरी: पुराने दौर के संगीत और उसकी रवायत से पर्दा उठाती किताब

बेगम अख्तर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर मिस अख्तरीबाई फैजाबादी फिल्म स्टार के रूप में नजर आती हैं

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पुराने दौर के संगीत और उसकी रवायत पर पर्दा उठाने की तरह है यतीन्द्र मिश्र की किताब 'अख्तरी'. अख्तरीबाई फैजाबादी की जिंदगी और संगीत पर आधारित इस किताब में ठुमरी-दादरा से लेकर उनके गजल के सफर को बड़ी खूबसूरती से बताया गया है.

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पढ़िए यतीन्द्र मिश्र की किताब 'अख्तरी' का एक अंश...

इतिहासकार सलीम किदवई का भी यह कथन काबिलेगौर है, “लखनऊ और उसके आस-पास के शहरों में 1938 से 1945 के मध्य, अख्तरीबाई ने खड़ी महफिलें की हैं.” इसका आशय यह हुआ कि मुबारकबादियों और ठुमरी की अदायगी में नृत्य और अभिनय का समावेश भी उन्होंने इन राजदरबारों की महफिलों में अवश्य ही किया होगा.

इस तथ्य के साथ यह सूचना भी स्वतः ही जुड़ी हुई है कि फैजाबाद छोड़कर, जब वे लखनऊ और मुम्बई की ओर प्रस्थान करती हैं, तो यह वही जमाना है, जब हमें बेगम अख्तर सिनेमा के रुपहले पर्दे पर मिस अख्तरीबाई फैजाबादी फिल्म स्टार के रूप में नजर आती हैं.

आप 1933 से लेकर 1943 के मध्य मिलने वाले एच.एम.वी., डावरकीन, ट्विन एवं मेगाफोन जैसे तवे वाले रिकाॅर्ड कम्पनियों के इश्तिहार देखें, तो पाएंगे कि एक उभरती हुई खूबसूरत सी अदाकारा अख्तरीबाई के रूप में उन पन्नों और रिकाॅर्ड कवरों पर मौजूद हैं.

अख्तरीबाई फैजाबादी के साथ उन दिनों जिन समकालीन गायिकाओं, फिल्म अभिनेत्रियों की सूची सिनेमा इन्ड्रस्ट्री में रिकाॅर्ड कम्पनियों के प्रचारों पर एक साथ दिखाई पड़ती है, उनमें प्रमुख रहीं- अंगूरबाला तथा अनारबाला, जहांआरा कज्जन, खुर्शीद, कमला झरिया एवं सितारा कानपुरी.

यह मेरे जैसे लेखक और संगीतप्रेमी के लिए बहुत उपयोगी बात है कि बेगम अख्तर की मौसीकी के इतिहास के कुछ पन्ने, हमारे घराने के राजदरबार में होने वाले महफिल संगीत के माध्यम से भी बनते हैं. पुराने लोग याद करते हैं कि बेगम को पूरे अदब से लेने जाने का जिम्मा जिन कारबरदारों पर था, वे समारोह के बीसों दिन पहले ही इस बात को लेकर उत्साहित हो जाते थे कि उन्हें अपने दौर की सबसे मशहूर अदाकारा का इस्तकबाल करना है.

उन्हें लेने महाराजा जगदम्बिका प्रताप नारायण सिंह की प्रिय सफेद रंग की मर्सिडीज बेन्ज कार जाती थी, जिसका नम्बर 126 था. यह गाड़ी अपनी छत की ओर खुली, बग्घीनुमा शक्ल में होती थी, जिसे खास मौकों पर ही निकाला जाता था. गाड़ी के बखान से दरअसल मैं बेगम अख्तर की हैसियत का बखान करना चाहता हूं कि यह उन दिनों राजदरबारों की रवायत थी कि किसी गुणी कलावन्त का सम्मान करने के लिए उसकी आवाजाही के बन्दोबस्त से लेकर उसका राजपरिवार में आना, सभी कुछ हद दर्जे का स्तरीय हो.

मेरे पिता श्री बिमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्र को उन दिनों ड्राइवरों में प्रमुख रहे. स्व. अब्दुल मजीद ने यह बताया था कि बेगम को लेने जाने के लिए रियासत के सारे ड्राइवरों में होड़ लगती थी कि इस बार की दरबार महफिल के लिए किस ड्राइवर का चयन हुआ है. इसके पीछे कारण यह था कि अव्वल तो अख्तरीबाई जैसी बड़ी गायिका को लाने का श्रेय उस पर महाराजा की प्रिय मर्सडीज कार चलाने का दुर्लभ मौका हासिल होता था, साथ ही इस पूरे मामले का सबसे जबरदस्त आकर्षण उनमें यह रहता था कि जो भी ड्राइवर उस दिन अख्तरीबाई की सेवा में तैनात होता था, उसे वे कार्यक्रम के बाद घर लौटने पर भरपूर बख्शीश, कपड़े और मिठाइयां देकर लौटाती थीं.

अख्तरीबाई के सन्दर्भ में एक वाकया संगीत से थोड़ा हटकर, यहां यह भी सुनाना चाहूंगा कि जब वे महफिली संगीत को अंजाम दे रही होती थीं, तो उसके फौरन बाद एक तश्तरी में अपनी प्रणति निवेदन के सन्दर्भ में ग्यारह या इक्कीस या एक सौ आठ अशर्फियां महाराज को नजर करती थीं, जो तुरन्त आदरपूर्वक ग्रहण करते हुए दो गुना करके लौटाया जाता था.

इस पूरी रवायत में न कलाकार और न ही राजा की कोई अहं की तुष्टि का निवारण या ब्याज होता था, न ही किसी प्रकार के रस्मी चलन का व्यवहार- बल्कि वह एक सहृदय कलाकार का अपने राजा के प्रति आभार ज्ञापन था, तो दूसरी ओर वह एक सज्जन शासक का अपनी रियासत में से एक मूर्धन्य कलाकार का सम्मान करने का नफासती ढंग.

इस सन्दर्भ में एक ऐतिहासिक घटना यह हुई कि राजा जगदम्बिका प्रताप नारायण सिंह जी ने लगभग पचास-साठ एकड़ का एक भू-भाग अख्तरीबाई को दे दिया. बहुत दिनों बाद, जब वे पूरी तरह फैजाबाद और लखनऊ छोड़कर बाहर जाने लगीं, तो वह तत्कालीन नरेश को वही जमीन वापस लौटाने आयीं.

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राजा के तमाम प्रकार से इनकार करने के बावजूद वे इस इसरार के साथ उसे यह कहकर वापस लौटा गईं, “हुजूर! आपने मेरी वजादारी की, इसके लिए ताउम्र शुक्रगुजार रहूंगी, लेकिन अगर मैं इसे बेचकर जाती हूं, तो फैजाबाद की तारीख मुझे मुआफ नहीं करेगी कि एक गानेवाली बाई ने राजा के दिए हुए उपहार का सौदा कर लिया. इसलिए यह आपके पास ही रहेगा.”

यह छोटा सा रचनात्मक इतिहास इस बात की गवाही देने के लिए काफी है कि एक बाई और उसके तत्कालीन राजा के बीच सम्मान का कितना अहम रिश्ता सम्भव होता था. आज के सन्दर्भ में यह और भी अधिक प्रासंगिक है, जबकि हम छोटी-छोटी भौतिक चीजों से आक्रान्त होकर अपने व्यक्तिगत रिश्ते तक समाप्त कर डालते हैं.

बेगम अख्तर द्वारा लौटाया हुआ भूमि का उतना ही बड़ा रकबा, आज भी हमारे परिवार की विरासत का अंग है, जो वर्तमान फैजाबाद के मोहतरिम नगर (दर्शन नगर) इलाके में मौजूद है. रिश्तों की जिस आपसी गर्मजोशी, सम्मान देने की बेलौस परम्परा तथा अपनी कला और ईमान को सर्वोपरि मानकर बाकी चीज़ों को हेय देखने की दृष्टि इन कलाकारों ने भी जाने-अनजाने हमको सौंप दी है, दुर्भाग्य से वह अब बहुत कुछ पढ़े-लिखे तबके से भी बाहर की बात लगती है.

मैं आपको बेगम अख्तर का जो वाकया सुना रहा था, उसमें यह बताना भी शामिल है कि वे होली और दशहरा के दरबारों में पेशवाज पहनकर आती थीं और अपनी अर्द्धशास्त्रीय गायिकी के सम्मोहन से पूरे अयोध्या के समाज को बांध लेती थीं. पेशवाज- एक विशेष प्रकार का स्त्रियों का पहनावा है, जिसमें चूड़ीदार पायजामे से होकर एक लम्बा अंगरखेनुमा कुर्ता पहना जाता है और उस पर बड़ी सी चुनरी पड़ी होती है. प्रचलित अर्थों में एक वधू के श्रृंगार जैसा आवरण है, जिसमें इस एक बात का खास खयाल रखा जाता था कि कहीं से भी जिस्म की जरा सी भी नुमाइश न हो सके.

मेरी दादी स्वर्गीया राजकुमारी विमला देवी जी मुझे बताया करती थीं कि वे उस समय बहुत छोटी थीं और बेगम को कुछ गाते हुए देखने में उनका ध्यान इस एक बात की ओर हमेशा लगा रहता था कि चुपके से वे उनके सौन्दर्य का पूरा नजारा ले सकें. वे कहती थीं कि कई बार की महफिलों के गायन के बाद भी वे यह जान न पायीं कि बेगम किस तरह अपने कपड़े पहनती हैं और किस विशेष अन्दाज से अपना दुपट्टा लपेटती हैं कि उनकी उंगलियों की पोरें तक दिख नहीं पातीं.
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जब मैं यह सब सुनता था, तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता था कि प्रचलित अर्थों में एक बाई, जिसका कार्य गायन-वादन-नृत्य के साथ समाज का मनोरंजन करना है, वह भी इतनी नैसर्गिक गरिमा के साथ कहीं उपस्थित रह सकती है.

बेगम अख्तर जो खास चीजे ऐसे अवसरों पर सुनाती थीं, उसमें मुबारकबादी, ठुमरी, कजरी, चैती और होली प्रमुख होती थी. गायिकी का एक विशेष प्रकार भी ऐसे अवसरों पर गाया जाता था, जिसे सादरा कहते हैं. मुझे संगीत पर कई पुस्तकें लिखने के दौरान यह जानकारी हासिल हुई कि राजदरबारों के महफिल संगीत के लिए गुरुजन अपनी योग्य शिष्य-शिष्याओं, बाइयों और परन पढ़ने वालों को सादरा सिखाते थे. सादरा- दरअसल ख्याल का एक अभिनव प्रकार है, जिसे प्रचलित अर्थों में हम ऐसा दादरा मानते हैं, जो झपताल पर निबद्ध किया गया हो. गिरिजा देवी ने मुझे यह बताया था कि उस्ताद मौजुद्दीन खां जैसे बड़े गुरु ने भी अपनी शिष्याओं मसलन- रोशनआरा बेगम और बड़ी मोतीबाई को भी इन महफिलों में गाने के लिए सादरा सिखाया था.

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‘यतीन्द्र मिश्र हिन्दी कवि, सम्पादक और संगीत अध्येता हैं. उनकी किताब 'अख्तरी' को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. अख्तरीबाई फैजाबादी की जिंदगी और संगीत पर आधारित किताब ‘अख्तरी’ में ठुमरी-दादरा से लेकर उनके गजल के सफर को बड़ी खूबसूरती से बताया गया है.’

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