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तन्मय भट्ट कौन हैं? ये भावनाएं अपनी सुविधा के अनुसार आहत होती हैं

कपिल शर्मा की महिला-विरोधी कॉमेडी पर गुस्सा नहीं आता.

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आखिर कब और किन मुद्दों पर नाराज होते हैं हम?

  • महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की फोटोशॉप तस्वीरों पर गुस्सा नहीं फूटता
  • पीएम मोदी, राहुल गांधी और अभिषेक बच्चन पर बनने वाले जोक्स पर पुतले नहीं जलते
  • कपिल शर्मा की महिला-विरोधी कॉमेडी पर गुस्सा नहीं आता
  • लता मंगेशकर और सचिन तेंदुलकर पर कॉमेडी से गुस्सा आता है

तन्मय भट्ट के खिलाफ सोशल मीडिया पर जारी क्रूसेड ये बताता है कि हम हिंदुस्तानी सोच-समझकर अपनी सुविधा के हिसाब से चीजों का विरोध करते हैं. मसलन, तन्मय भट्ट का सचिन तेंदुलकर और लता मंगेशकर के खिलाफ वीडियो हमें खफा कर देता है.

लेकिन पंडित नेहरू और महात्मा गांधी की फोटोशॉप्ड तस्वीरें हमें परेशान नहीं करतीं. कपिल शर्मा और कॉमेडी सर्कस की महिला-विरोधी कॉमेडी हमें परेशान नहीं करती. राहुल गांधी, केजरीवाल और पीएम नरेंद्र मोदी पर बनाए गए जोक्स भी हमें उद्धेलित नहीं करते. इन जोक्स पर हम बड़ी सुविधा के साथ हंसते हैं और अपने दोस्तों के साथ शेयर करते हैं.



कपिल शर्मा की महिला-विरोधी कॉमेडी पर गुस्सा नहीं आता.

लेकिन जब कोई सचिन तेंदुलकर, लता मंगेशकर या किसी देवता पर कोई मजाकिया टिप्पणी कर देता है, तो हम लाठी-डंडे संभालकर उस नामुराद को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ते हैं.

ये बात करते हुए मुझे एमएफ हुसैन और तन्मय भट्ट का नाम लेने की जरूरत नहीं है. लेकिन फिर भी आपकी सुविधा के लिए मैं इन नामों का यहां जिक्र कर रहा हूं, ताकि आपको हर वो मौका याद आ जाए, जब किसी चीज ने आपको खफा किया हो.

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वो महान हैं, इसलिए मजाक न उड़े!

सोशल मीडिया से लेकर प्राइम टाइम डिबेट पर ये तर्क दिया जा रहा है कि सचिन और लता मंगेशकर महान शख्सियतें हैं, इसलिए उनका मजाक न उड़ाया जा रहा है. इस तर्क पर मेरा सवाल है कि नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, उदय चोपड़ा और अभिषेक बच्चन को क्या मजाक उड़ाने के लिए ठेके पर लाया गया है? और वो कौन-सी चीज है, जो इन शख्सियतों को महान बनाती है?

सचिन ने क्रिकेट खेलते हुए सिर्फ अपने रिकॉर्ड्स में बढ़ोतरी की. साल 2012 में राज्यसभा में बतौर सांसद नामित होने के बाद 30 नवंबर, 2015 तक सचिन की कुल अटेंडेंस 5.5% रही. लेकिन सांसद के तौर पर सचिन पर 36.18 लाख खर्च किए गए.

लता मंगेशकर के लंबे सिंगिंग करियर में अर्जित सफलताएं भी उनके लिए ही हैं. लता मंगेशकर भी अपने राज्यसभा कार्यकाल में गिनती के दिनों के लिए राज्यसभा पहुंचीं.

ऐसे में ये शख्सियतें इतनी महान होने के दर्जे पर कैसे पहुंच गईं कि उनका मजाक नहीं उड़ाया जा सकता? इनमें अगर कुछ है, तो वो है पीआर कंपनियों और अखबारों द्वारा इनके नामों के साथ जोड़े गए ‘गॉड ऑफ क्रिकेट’ और ‘स्वर साम्राज्ञी’ जैसे विशेषण. इन्हें उन ब्रांड्स में तब्दील किया गया, जो इस देश के मिडिल क्लास को महंगे प्रॉडक्ट्स बेच सकें.

अब, अगर मैं कहूं कि किसी सूखाग्रस्त इलाके का डीएम महान है, क्योंकि उसने किसानों के लिए आसानी से पानी का बंदोबस्त कर दिया है. या, फर्ज कीजिए मैं कहूं कि एक किसान बहुत महान है, क्योंकि उसने अपने गांव में कर्ज के बोझ तले दबे आत्महत्या करने को मजबूर 5 किसानों की जिंदगी बचा ली. ऐसे में आप इन्हें महान नहीं मानेंगे, जैसे आप सचिन और लता मंगेशकर को मानते हैं, क्योंकि आपको इन लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानने के कठिन काम से गुजरना होगा. सचिन और लता मंगेशकर के मामले में ये काम अखबार कर देते हैं.

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पर, हमें गुस्सा कब और क्यों आता है?

किसी बात या घटना पर खफा होने की बात करें, तो हमें लोक प्रशासकों की नृशंस हत्याओं पर ऐसा गुस्सा नहीं आता. किसानों की आत्महत्याओं पर गुस्सा आने से सरकारें नहीं बदलतीं. शिक्षकों को देय सैलरी नहीं मिलने से भी गुस्सा नहीं आता, क्योंकि ये थोड़ा मुश्किल है. इन मामलों पर गुस्सा होने पर आपको गाली देने वाली भीड़ के साथ खड़े होने का मौका नहीं मिलेगा. इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों की आलोचना करते ही आपको अकेले खड़े होने को जोखिम उठाना होगा.

आदर्श स्थिति में तो मैं हमें किसी भी मजाक या टिप्पणी पर किसी की टांग तोड़ देने जैसी प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए. पंडित नेहरू तक ने अपने कार्टूनिस्ट मित्र के कॉलम का उद्घाटन इसी शर्त पर किया था कि वो उन्हें भी नहीं बख्शेगा.

लेकिन फिर भी अगर आपको गुस्सा आता है, तो आपको पहले गांधी और नेहरू की फोटोशॉप की गईं तस्वीरों पर आना चाहिए.

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