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अमर्त्य सेन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि नरेंद्र मोदी किस तरह प्रभावशाली बहुमत हासिल करने में कामयाब रहे. उन्होंने बताया है कि क्यों कांग्रेस महज 52 सीटों पर सिमट कर रह गई. उनकी नजर में भारत अब बदल चुका है. अब यह धर्मनिरपेक्ष विचारों वाला विविधताओं से भरा देश नहीं रह गया है. इस देश में अब गांधी, टैगोर, नेहरू और मौलाना आजाद अब प्रभावशाली नहीं रह गए हैं.
अमर्त्य सेन लिखते हैं कि भारत में 14 प्रतिशत मुसलमान हैं. इनकी तादाद करीब 20 करोड़ हैं. वो दावा करते हैं कि बीजेपी को अधिकतर वोट हिंदुओं के मिले हैं. वो बीजेपी की बढ़ती ताकत के पीछे केंद्रीय भूमिका नरेंद्र मोदी की मानते हैं. उन्हें वो अच्छा वक्ता बताते हैं, लेकिन यह आरोप भी लगाते हैं कि उन्होंने नफरत का राजनीतिक इस्तेमाल किया है.
अमर्त्य सेन ने सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग का भी आरोप नरेंद्र मोदी की सरकार पर लगाया है. चुनाव के महत्वपूर्ण समय में दूरदर्शन पर कांग्रेस से दोगुना समय लेने, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान पर हवाई हमले कर चुनावी फायदा लेने की बात भी उन्होंने लिखी है.
45 साल में उच्चतम स्तर पर रही बेरोजगारी तक पर बात नहीं हुई. अमर्त्य सेन ने लिखा है कि यह साफ हो चुका है कि मोदी के शासनकाल में भारत धार्मिक आधार पर बंट चुका है.
द वाशिंगटन पोस्ट में एडम टेलर लिखते हैं कि मोदी 2014 से भारत के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन वो सकारात्मक मॉडल नहीं बन पाए हैं. उन्होंने लिखा है कि मोदी के नेतृत्व में जो दो समस्याएं हैं उन्हें भविष्य में बदलना होगा- देश में कारोबारी माहौल को बनाने में उनकी विफलता और दूसरा हिंदू राष्ट्रवाद की विभाजनकारी नीति जो धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को खारिज करता है, जिस पर यह देश खड़ा रहा है. एडम लिखते हैं कि भारती अर्थव्यवस्था को दोबारा खड़ा करने के लिए मोदी के प्रयास विफल रहे. बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर चली गई. दसियों हजार किसानों ने विगत दशक में आत्महत्या की है. नरेंद्र मोदी के आलोचक रहे यशवंत सिन्हा के हवाले से लेखक लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी आर्थिक सुधारक नहीं हैं. उन्होंने नोटबंदी से देश की आर्थिक गतिविधियां तबाह कर दीं.
कश्मीर के पुलवामा में फरवरी में हुआ आतंकी हमला और उसके जवाब में भारतीय कार्रवाई के बाद नरेंद्र मोदी को जवाब देने वाला नेता के तौर पर देखा गया. एक रिटायर्ड सैन्य अफसर के हवाले से लेखक ने लिखा है कि दुनिया में सिर उठाकर जीने के लिए ताकतवर नेता की जरूरत है. रूस और अमेरिका की तरफ कोई नहीं देखता.
ब्लूमबर्ग में पंकज मिश्रा ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी के दोबारा बहुमत पाने के बाद भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से हिंदू अधिनायकवादी राज्य में बदलता दिख रहा है. रोजगार देने के अपने मूल वादे में नाकाम रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी को ये जबरदस्त जीत मिली है. पहले पांच साल में सुप्रीम कोर्ट, सांख्यिकी संगठन और मीडिया की आजादी की अनदेखी के बीच पाकिस्तान को सजा देने के नाम पर नरेंद्र मोदी को यह जीत हासिल हुई लगती है. सबने देखा है कि किस तरह आर्थिक क्षेत्र में अक्षमता, सामाजिक बिखराव और बीमार राष्ट्रवाद के जिम्मेदार रहे मोदी को भारतीयों ने पसंद किया है.
पंकज लिखते हैं कि फेक न्यूज, हेट स्पीच और कॉरपोरेट मनी के जरिए आसानी से जनता की पसंद को बदल दिया गया है.
लेखक ने मोदी की जीत पर भीम राव अंबेडकर के उस बयान को चेतावनी के तौर पर याद किया है, जिसमें कहा गया था कि असमानता के कारण एक दिन देश का राजनीतिक तानाबाना ध्वस्त हो जाएगा.
गांधी-नेहरू परिवार का तिलिस्म टूटने और कांग्रेस की बुरी स्थिति का भी जिक्र लेखक ने किया है और उनके लिए राह कठिन होने की बात कही है. मुख्य धारा से मुसलमानों के भी कट जाने की आशंका जताई गई है. लेखक का मानना है कि भारत का धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पतन की ओर है और मोदी ने इस पर जबरदस्त आघात कर दिया है.
द एटलांटिक के सीनियर एडिटर रहे रॉस डाउडैट ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में भारत में नरेंद्र मोदी की जीत को दुनिया भर में दक्षिणपंथ की जीत की एक और कड़ी के तौर पर देखा है. उन्होंने दुनिया से उदारवाद और वामपंथ के घटते प्रभाव से भी इसे जोड़ा है. रॉस डाउडैट ने ध्यान दिलाया है कि प्रभावशाली शासन दे पाने में विफल रहने के बावजूद दक्षिणपंथी सोच की लोकप्रियता बढ़ रही है.
ऑस्ट्रेलिया में हुए चुनाव नतीजों की चर्चा करते हुए रॉस डाउडैट ने लिखा है कि उदार पर्यावरण नीतियों का विरोध करके कंजर्वेटिव पार्टी ने श्रमिक वर्ग का वोट भी हासिल कर दिखाया. अमेरिका में भी विफलताओं के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप सबकी पसंद बने हुए हैं. रॉस लिखते हैं कि इसी तरह से हिन्दू राष्ट्रवाद के सहारे नरेंद्र मोदी भी अपने विरोध की आवाज पर भारी पड़े हैं.
गैरी यंग ने द गार्जियन में लिखा है कि दुनिया दक्षिणपंथ के उभार से सकते में है. विश्व की तीन प्रमुख घटनाओं को याद करते हुए लेखक ने लिखा है कि ट्रंप की जीत, ब्रेक्जिट और मोदी की सफलता विश्व में नस्लवाद और भेदभाव के फैलते संक्रमण के सबूत हैं. यह चिन्ताजनक स्थिति है.
लेखक की राय है कि इन चुनावों में प्रगतिशील ताकतों की हार ने हर किसी को हैरान कर दिया है.
गैरी ने लिखा है कि ब्रिटेन में ब्रेक्जिट से पहले 2016 में 64 फीसदी नस्ली अल्पसंख्यक लोगों को अज्ञात हमले का डर था. ऐसे लोगों की संख्या इस साल 76 फीसदी हो चुकी है. मतलब ये कि स्थिति और खराब हो रही है. इसी संदर्भ में वो ऑस्ट्रेलिया का भी जिक्र करते हैं. वो लिखते हैं कि साम्राज्यवाद, जाति, उपनिवेशवाद, श्वेत सर्वोच्चता जैसी चीजें गहरी होती चली जा रही हैं. दक्षिणपंथ हावी हो रहा है और उदारवाद कमजोर पड़ता जा रहा है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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Published: 26 May 2019,08:08 PM IST