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हिमाचल प्रदेश के चुनाव में सड़क, बिजली, पानी, महंगाई, बेरोजगारी के साथ-साथ एक मुद्दा काफी अहम रहता है, वह है सेब पैदा करने वालों की मांगों का मुद्दा. सेब हिमाचल की पहचान हैं, देश-दुनिया में यहां की फसलों की मांग रहती है. लेकिन यही सेब सत्ताधरियों के मुंह का स्वाद बिगाड़ने का काम भी कर सकते हैं. 1993 में हम देख चुके हैं कि कैसे सेब आंदोलन की वजह से भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेतृत्व वाली सरकार के सीएम को अपनी सीट गंवानी पड़ी थी. आइए जानते हैं हिमाचल प्रदेश के चुनाव में आखिर सेब क्यों मायने रखता है?
हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था में सेब उत्पादन का बड़ा योगदान है. हिमाचल की एपल इकोनॉमी लगभग 5500 करोड़ रुपये की है. प्रदेश की GDP में सेब का योगदान 6 प्रतिशत से भी ज्यादा है. इस राज्य में लगभग 6.25 लाख टन सेब सालाना उत्पादित होता है. हिमाचल में करीब 10 लाख परिवार खेती से जुड़े हुए हैं. इनमें से 2 लाख परिवार ऐसे हैं जो सेब की खेती करते हैं. सेब उद्योग राज्य के लोगों के लिए रोजी-रोटी और रोजगार का बड़ा साधन है. सेब बागवानी हर साल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से हजारों लोगों को रोजगार देती है. इसमें उत्पादकों के परिवार के अलावा, ट्रांसपोर्टर, कार्टन उद्योग, दवा, खाद कंपनियों से लेकर ढाबा संचालक और दुकानदार तक शामिल हैं. यहां के लगभग 50 फीसदी इलाके पर सेब की खेती होती है.
प्रदेश में सेब उत्पादन के लिए लगभग 900 करोड़ रुपये पैकेजिंग सामग्री में खर्च होते हैं. इनमें ट्रे, कार्टन से लेकर ग्रेडिंग तक के खर्चे शामिल हैं. वहीं ट्रांपोर्टेशन में 200 करोड़ रुपये से अधिक का खर्चा आता है.
सेब बागवानों के संगठनों के अनुसार प्रति किलो सेब की उत्पादन लागत हिमाचल प्रदेश में अधिक है, क्योंकि यहां ज्यादातर खेत, घासनियां ढलानदार हैं. मशीन के बजाय श्रम आधारित उत्पादन अधिक होता है.
द वायर की रिपोर्ट में बताया गया है कि हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादन करने वाले किसानों की खराब स्थिति के पीछे की बड़ी वजह अडानी समूह द्वारा घोषित मूल्य हैं. अडानी समूह राज्य के कुल सेब उत्पादन का करीब 3-4 फीसदी ही खरीद करता है, लेकिन चूंकि यह बहुत बड़ी कंपनी है, इसलिए अन्य खरीददार भी अडानी ग्रुप द्वारा घोषित मूल्य के आस-पास ही खरीद करते हैं. इस साल की सीजन में अडानी एग्रो फ्रेश ने जहां ए-ग्रेड सेब के लिए 76 रुपये का अपना मूल्य ओपन किया था वहीं सी-ग्रेड के लिए 15 रुपये था. बाद में जब आवक बढ़ गई तक कीमतों में कमी कर दी थी.
सेब किसानों का कहना है कि उत्पादन की लागत लगातार बढ़ रही है लेकिन सेब के दाम बढ़ने के बजाए घट रहे हैं. इससे बागवानों में निराशा का महौल है.
सेब उत्पादकों का कहना है कि सरकार को पता है सेब उद्योग प्रदेश और यहां के लोगों के लिए कितना मायने रखता है लेकिन वे ऐसी नीतियों को लाने का प्रयास बिल्कुल भी नहीं करते जिनकी वजह से सेब उत्पादकों का जीवन बेहतर हो सके.
यहां सेब पैकेजिंग पर 18 फीसदी GST लगती है, इससे भी एपल इंडस्ट्री में गुस्सा है. हालांकि बीजेपी ने वादा किया है कि अगर वे सत्ता में आएंगे तो जीएसटी दर में कमी करेंगे.
द वायर की रिपोर्ट में यहां के सेब किसानों ने अपना दुख बताते हुए कहा था कि हम बागवानों को एक नहीं कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है. पिछले 10 सालों में लागत और मार्केटिंग, पैकेजिंग, ट्रांसपोर्ट आदि का खर्चा काफी बढ़ गया है लेकिन हमें हमारी उपज का समान मूल्य मिल रहा है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2017 में अडानी एग्री फ्रेश द्वारा सेब की ओपनिंग मूल्य 85 रुपये प्रतिकिलो तय किया गया था, उसके बाद पांच साल बीत जाने के बाद और इनपुट लागत में 50 से ज्याद फीसदी की बढ़ोत्तरी होने के बावजूद इस बार ओपनिंग प्राइज 76 रुपये प्रति किलो था.
एक एनजीओ की ओर से दावा करते हुए रिपोर्ट में बताया गया है कि अडानी समूह भूमि पट्टा नियमों का उल्लंघन कर रहा है, जिसे शिमला जिले के रामपुर, रोहरु और सैंज में तीन कोल्ड स्टोरेज सेंटर स्थापित करने के लिए कम दाम पर जमीनें दी गई थीं. नियमों के तहत उन्हें हिमाचल के उत्पादकों के लिए अपने कोल्ड स्टोरज में 25 फीसदी स्थान छोड़ना होता है, जिसका पालन नहीं किया जा रहा है.
हिमाचल प्रदेश कांग्रेस की ओर आरोप लगाते हुए कहा गया है कि साल 1984 से लगातार राज्य सरकारें कृषि उपकरणों के साथ-साथ कीटनाशकों, कवकनाशी और अन्य दवाओं पर सब्सिडी देती रही हैं, लेकिन बीजेपी सरकार ने इन सभी लाभों को बंद कर दिया है.
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सेब काफी मायने रखता है. सेब में इतनी ताकत है कि यह सरकार को भी गिरा सकता है. अब हम आपको थोड़ा पीछे लेकर चलते हैं. इस पहाड़ी राज्य ने 1990 में किसान आंदोलन को देखा था, उस समय सेब उत्पादक किसान तत्कालीन बीजेपी सरकार से इस फसल की एमएसपी तय करने की मांग कर रहे थे. तब प्रदेश के सीएम शांता कुमार थे. उस समय दौरान प्रदेश के सेब उत्पादक क्षेत्रों में इतना विरोध बढ़ गया था कि शिमला में उत्तेजित भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सेना को फ्लैग मार्च करना पड़ा था.
22 जुलाई 1990 को जब कोटगढ़ में सैकड़ों किसान प्रदर्शन कर रहे थे तब पुलिस ने इन पर ओपन फायरिंग की थी, जिसमें तीन किसानों की मौत हो गई थी. इसके बाद से सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा और ज्यादा भड़क गया. जिसका परिणाम चुनाव में देखने को मिला.
सेब उत्पादकों के 28 संगठनों ने इसी साल 5 अगस्त को शिमला में एक विरोध रैली की थी, जिसमें उनकी कटुता झलकी थी. रैली में उन्होंने सरकार पर अपनी मांगों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था.
सेब उत्पादकों के असंतोष का सीधा असर शिमला, ठियोग, जुब्बल और कोटखाई, किन्नौर, आनी, रामपुर, बंजार और रोहड़ू विधानसभा क्षेत्रों में देखने को मिल सकता है. ओल्ड हिमाचल में सेब उत्पादक ज्यादा असर डालते हैं.
हिमाचल के सेब बेल्ट में जुब्बल और कोटखाई का भी नाम आता है, यह भी कांग्रेस का मजबूत गढ़ है. बीजेपी के दिवंगत नेता नरेन्द्र बरागटा ने यहां से दो बार (2007 और 2017 में) चुनाव जीता है. 2021 के उपचुनाव में यह सीट बीजेपी ने गंवा दी थी.
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में एक बागवानी आयोग स्थापित करने का वादा किया है जिसमें सेब उत्पादकों को आयोग के सदस्य के रूप में शामिल किया जाएगा. पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया है कि बाजार के बड़े प्लेयर्स को एमएसपी से नीचे उत्पादकों से सेब खरीदने की अनुमति नहीं दी जाएगी, चाहे वह अडानी की कंपनी ही क्यों न हो.
वहीं कांग्रेस के जवाब में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में कहा कि वह यह सुनिश्चित करेगी कि सेब किसानों को सेब की पैकेजिंग सामग्री पर 12% से अधिक जीएसटी रेट का भुगतान न करना पड़े.
कुल मिलाकर अब यह देखना बाकी है कि सेब उत्पादक किसान किस पार्टी की ओर रुख करते हैं.
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Published: 11 Nov 2022,07:03 PM IST