advertisement
राजनीति में कुछ भी मुमकिन है. नामांकन भरने की आखिरी तारीख तक गठबंधन बनेंगे और बदलेंगे, लेकिन अभी हम यह मान लेते हैं कि उत्तर प्रदेश में खेमेबंदी पूरी हो चुकी है. समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन ही अंतिम है और इसमें कांग्रेस को जगह नहीं मिलेगी.
कांग्रेस को अकेले दम पर ही चुनाव लड़ना है. उसे छोटे-छोटे स्थानीय दलों-नेताओं को जोड़कर ताकत बढ़ानी होगी. अगर यही अंतिम सच है तो फिर यह मूल्यांकन जरूरी है कि मायावती-अखिलेश के फैसले से फायदे में कौन है और घाटा किसे होगा?
ये मूल्यांकन करते वक्त हमें ध्यान रखना होगा कि फरवरी में दो बड़ी घटनाएं हुई हैं- पुलवामा में आतंकी हमला और पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय वायुसेना की जवाबी कार्रवाई. इनसे देश में, खासकर उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में सियासी परिदृश्य तेजी से बदला है. बीजेपी ताकतवर हो कर उभरी है.
यही नहीं. अभी वायुसेना के हमले का वीडियो नहीं आया है. अंदरखाने चर्चा है कि चुनाव के बीच ये वीडियो पब्लिक डोमेन में आ सकता है. ऐसा हुआ तो वह राष्ट्रवाद के ताकतवर डोज की तरह होगा. नरेंद्र मोदी की शक्ति और ज्यादा बढ़ेगी. किसी भी सियासी मूल्यांकन में इन बातों को ध्यान में रखना होगा.
अब हम उत्तर प्रदेश की मौजूदा स्थिति पर सरसरी नजर डालते हैं. नरेंद्र मोदी और विपक्ष, दोनों की किस्मत का फैसला यहीं से होना है. महाराष्ट्र और बिहार की खेमेबंदी पूरी हो चुकी है और दोनों ही जगह बीजेपी बढ़त में है. कर्नाटक में बीजेपी को घाटा होने जा रहा है, लेकिन फैसला उत्तर प्रदेश से ही होगा.
बहुत से धुरंधरों की यह राय है कि सूबे में कांग्रेस का कोई वजूद नहीं है. वहां मायावती और अखिलेश की आंधी में बीजेपी साफ हो जाएगी. उनके मुताबिक अलग चुनाव लड़ने पर कांग्रेस सवर्णों का ही वोट काटेगी. इससे एसपी-बीएसपी-आरएलडी को फायदा पहुंचेगा. यह सतही मूल्यांकन है. सच तो ये है कि कांग्रेस का अलग चुनाव लड़ना किसी भी लिहाज से एसपी-बीएसपी के लिए अच्छी खबर नहीं है. इसे समझने के लिए आपको कांग्रेस की मौजूदा रणनीति और एसपी-बीएसपी की जमीनी स्थिति पर गौर करना होगा.
ये भी पढ़ें - लोकसभा चुनाव के बाद रेवेन्यू किस तरह जुटाएगी अगली सरकार?
एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन के पक्ष में एक तर्क यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उनको मिले वोटों का कुल योग बीजेपी और सहयोगी दलों को मिले वोट से कहीं ज्यादा है, लेकिन मुकाबला तो लोकसभा का है. 2014 के आम चुनाव में बीजेपी और सहयोगियों को एसपी-बीएसपी और आरएलडी के कुल वोट से ज्यादा वोट मिले थे. वैसे भी अतीत में हमने कई बार देखा है कि लोकसभा और विधानसभा में मतदान का ट्रेंड अलग-अलग होता है.
इसलिए कागज पर जोड़ने से दिल बहलाने के आंकड़े तो मिल जाते हैं, लेकिन नतीजे नहीं मिलते. एसपी और बीएसपी दोनों 2014 और 2017 में प्रयोग करके देख चुके हैं और भोग चुके हैं.
इधर बीते कुछ वर्षों में मायावती और अखिलेश कमजोर हुए हैं. पहले बात मायावती की. वो अब भी दलितों की बड़ी नेता हैं, लेकिन सभी दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं. दलितों में कई स्थानीय चेहरे उभरे हैं. चंद्र शेखर आजाद, सावित्री बाई फुले जैसे नेता लोकप्रिय हो रहे हैं.
सावित्रीबाई फुले पहले बीजेपी में थीं और इस बार वो कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं. चंद्र शेखर आजाद से प्रियंका गांधी की मुलाकात भी काफी कुछ बयां करती है. गैर-जाटव दलित वोटों का एक बड़ा तबका बीजेपी के हिस्से है. रामशंकर कठेरिया, कौशल किशोर और कमलेश पासवान बीजेपी के कुछ उभरते हुए चेहरे हैं.
मायावती की ही तरह अखिलेश यादव का आधार भी घटा है. पार्टी पर कब्जे को लेकर चली परिवार की लड़ाई ने उन्हें तोड़ दिया है. वो पिछड़ों के बड़े नेता की जगह यादवों के बड़े नेता रह गए हैं. पिछड़ों में गैर-यादवों का बड़ा तबका बीजेपी के खाते में चला गया है और वहां पिछड़ों का प्रतिनिधित्व केशव प्रसाद मौर्य करते हैं. ओमप्रकाश राजभर, अनुप्रिया पटेल जैसे सहयोगियों की वजह से भी गैर यादव पिछड़ों में एनडीए की स्थिति मजबूत है.
ये भी पढ़ें - मायावती से हाथ मिलाकर अजित सिंह बनने की राह पर तो नहीं अखिलेश?
अब एक नजर 2014 के कुछ तथ्यों पर. 2014 में राय बरेली और अमेठी में जीत के साथ ही कांग्रेस छह सीटों पर दूसरे और पांच सीटों पर तीसरे स्थान पर थी. मतलब 13 सीटें ऐसी थीं, जहां कांग्रेस सीधी लड़ाई में थी. इनके अलावा कांग्रेस जिन 41 सीटों पर चौथे स्थान पर थी, उनमें पांच सीटों पर उसके प्रत्याशी को एक लाख से ज्यादा वोट, सात सीटों पर 75 हजार से एक लाख वोट और सात सीटों पर 50 हजार से 75 हजार वोट के बीच मिले थे.
प्रदेश की 13 सीटों पर 25 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. एसपी-बीएसपी समर्थक मान कर चल रहे हैं कि मुस्लिम वोट उन्हें ही मिलेंगे, जबकि सच यह है कि मुसलमानों के कई कद्दावर नेता कांग्रेस में हैं. कांग्रेस ने अभी तक 27 उम्मीदवार घोषित किए हैं और उनमें छह मुसलमान हैं. सहारनपुर से इमरान मसूद, बदायूं से सलीम इकबाल शेरवानी, फर्रुखाबाद से सलमान खुर्शीद, खीरी से जफर अली नकवी, सीतापुर से कैसर जहां और संत कबीर नगर से परवेज खान चुनाव लड़ने जा रहे हैं. 53 सीटों पर नाम तय होने बाकी हैं. कुछ और मुस्लिम नेता कांग्रेस से चुनाव लड़ेंगे.
कमोवेश यही हाल अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 सीटों पर भी है. उन सीटों पर बीजेपी का पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि उसके दलित उम्मीदवार को अगड़ों और गैर-यादव पिछड़ों का वोट एकसाथ पड़ेगा, जबकि दूसरी तरफ गैर बीजेपी वोट में बंटवारा होगा.
कुल मिला कर, एसपी और बीएसपी गठबंधन के नेता जो बढ़ा-चढ़ा कर दावे कर रहे हैं, असल में उनकी स्थिति उतनी मजबूत नहीं है. बीजेपी का सूपड़ा साफ करने का उनका दावा तो झूठा ही लगता है. खासकर तब, जब कांग्रेस ने अपना सबसे बड़ा दांव खेल दिया हो. प्रियंका गांधी को भी मैदान में उतार दिया हो. इससे कांग्रेस कैडर में नया जोश आ गया है.
इसका सीधा अर्थ यह है कि बाकी सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला होगा. ऐसा त्रिकोणीय मुकाबला जिसमें सत्ता पक्ष तो एकजुट है, लेकिन विपक्ष बंटा हुआ. ऐसे मुकाबले में किसको ज्यादा फायदा होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. वह भी तब, जब राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व का नैरेटिव बल पकड़ रहा हो.
ये भी पढ़ें - BJP ब्लूप्रिंट:पश्चिमी UP में राष्ट्रवाद,पूरब के लिए प्लान B तैयार
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 15 Mar 2019,06:20 PM IST