एसपी-बीएसपी गठबंधन के तहत कौन सी पार्टी कहां से लड़ेगी, इस बात का ऐलान हो चुका है. एसपी यूपी की 37 लोकसभा सीटों पर, जबकि बीएसपी 38 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इस गठबंधन ने अजित सिंह की पार्टी आरएलडी के लिए 3 सीटें और कांग्रेस के लिए 2 सीटें छोड़ी हैं.
सीटों की घोषणा के तुरंत बाद एसपी संरक्षक मुलायम सिंह यादव लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय पहुंचे. उन्होंने बयान दिया कि एसपी और बीएसपी के बीच सीट बंटवारे के फार्मूले को वह समझ नहीं पा रहे हैं. उन्होंने इस बात पर हैरानी जाहिर की कि आखिर अखिलेश यादव इतनी कम सीटों पर कैसे मान गए?
2014 में क्या थी एसपी-बीएसपी की हालत?
2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से 5 सीटें एसपी ने जीती थीं. बाद में 2 सीटों गोरखपुर और फूलपुर पर हुए उपचुनाव में भी एसपी ने जीत दर्ज कर लोकसभा में अपनी सीटों की संख्या 7 कर ली थी. इसके अलावा वह 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी.
दूसरी तरफ बीएसपी एक भी सीट जीतने में सफल नहीं रही थी, लेकिन वह 34 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी. ऐसे में एक भी सीट पर जीत ना दर्ज करने वाली बीएसपी को 7 सीटों वाली एसपी से गठबंधन के तहत ज्यादा सीटें मिलना मायावती के लिए चुनाव से पहले ही जीत की तरह है. बीएसपी का कई चुनावों में प्रदर्शन काफी खराब रहा है ऐसे में उसके लिए ये आंकड़े संजीवनी की तरह हैं. दूसरी तरफ अखिलेश के कम सीटों पर मान जाने से मुलायम सिंह को जो हैरानी हुई है वही हैरानी आम एसपी समर्थकों की भी है.
एसपी-बीएसपी की अब तक की स्थिति
2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी अपनी स्थापना के बाद से सबसे कम सीटों पर लड़ेगी. एक तरह से वह बिना लड़े करीब 60 फीसदी सीटें हार गई है. एसपी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने 4 अक्टूबर 1992 को की थी और 1996 में पार्टी ने अपने चुनाव चिह्न ' साइकिल' पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था. 1996 से 2014 तक के लोकसभा चुनावों में अगर एसपी और बीएसपी के प्रदर्शन की तुलना करें तो सभी चुनावों में एसपी का प्रदर्शन बीएसपी से बेहतर रहा है.
1996 के लोकसभा चुनाव में एसपी ने 17 सीटें जीती थीं तो बीएसपी के खाते में 11 सीटें आई थीं. 1998 में एसपी ने 20 तो बीएसपी ने 5, 1999 में एसपी ने 26 तो बीएसपी ने 14, 2004 में एसपी ने 35 वहीं बीएसपी ने 19, 2009 में एसपी ने 23 तो बीएसपी ने 20 और 2014 में एसपी ने 5 तो बीएसपी ने एक भी सीट नहीं जीती. इसके बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी को बीएसपी से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाना हैरान करता है. एसपी के लिए यह फैसला चुनाव से पहले ही हार मानने जैसा है.
अजित सिंह की हालत ऐसी क्यों हुई?
अब आरएलडी प्रमुख अजित सिंह की बात करते हैं. अजित सिंह पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र भी हैं और वारिस भी. चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के बीच सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में उनका नाम लिया जाता है. चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल नामक राजनीतिक पार्टी बनाई थी. इस पार्टी के बैनर तले ही चरण सिंह चुनाव लड़े और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे. बाद में चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल और डॉ. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और नई पार्टी भारतीय लोकदल बनी. मुलायम सिंह इस पार्टी से जुड़े हुए थे.
1977 में जब भारतीय लोकदल का जनता पार्टी में विलय हुआ तो चरण सिंह इस पार्टी के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में थे. चरण सिंह की राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जनता पार्टी ने भारतीय लोकदल के चुनाव चिह्न पर ही लोकसभा का चुनाव लड़ा था. चरण सिंह के निधन के बाद मुलायम सिंह ने अपनी अलग पार्टी बना ली और अजित सिंह ने उनकी पार्टी को संभाल लिया.
अपने पूरे राजनीतिक करियर में अजित सिंह ने उत्तर प्रदेश की लगभग सभी पार्टियों से गठबंधन किया लेकिन किसी भी पार्टी ने उन्हें 6 से ज्यादा सीटें नहीं दीं. अजित सिंह के नेतृत्व में चरण सिंह की पार्टी का जनाधार लगातार सिमटता गया. अब अजित सिंह बागपत और मथुरा के जाटों के नेता रह गए हैं. अखिलेश और मायावती ने भी महागठबंधन बनाते समय उन्हें ज्यादा तरजीह नहीं दी और केवल 3 सीटें ही उनके लिए छोड़ी हैं.
जिस तरह अजित सिंह ने चरण सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का आधार लगातार कम किया ठीक उसी तरह अखिलेश ने भी मुलायम सिंह की एसपी का आधार कम किया है.
2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एसपी ने 224 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी. उस चुनाव में अखिलेश ने प्रचार की कमान जरूर संभाली थी लेकिन पार्टी के सभी रणनीतिक फैसले मुलायम सिंह और उनके भाई शिवपाल सिंह ने लिए थे. इसलिए उस जीत का श्रेय मुलायम सिंह को ही देना होगा. एसपी ने 2014 का लोकसभा चुनाव और 2017 का विधानसभा चुनाव अखिलेश के नेतृत्व में लड़ा और अब तक के अपने इतिहास में सबसे बुरा प्रदर्शन किया. 2019 का चुनाव भी एसपी अखिलेश के ही नेतृत्व में लड़ने जा रही है और पहले ही आधी से अधिक सीटें हार गई है.
अखिलेश ने एक तरह से किया आत्मसमर्पण
सीटों के बंटवारे से साफ दिखाई देता है कि मायावती के सामने अखिलेश ने एक तरह से आत्मसमर्पण कर दिया है. गठबंधन की जरूरत मायावती को ज्यादा थी इसलिए ज्यादा दबाव में भी उन्हें ही होना चाहिए था. सीटों के चुनाव में भी मायावती अपेक्षाकृत आसान सीटें ले ली हैं.
वाराणसी, गोरखपुर, कानपुर, इलाहाबाद, फैजाबाद, पीलीभीत और लखनऊ जैसी बीजेपी की गढ़ मानी जाने वाली सीटें एसपी को दे दी हैं तो यूपी की कुल 17 आरक्षित सीटों में से 10 सीटें अपने पास रख ली हैं. ज्यादातर शहरी सीटें जिन पर बीजेपी का आधार मजबूत है एसपी के खाते में गई हैं तो बीएसपी ने अपने लिए अपेक्षाकृत आसान ग्रामीण सीटें चुनी हैं.
अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी हारती है या उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो अगले चुनाव में उसे और भी कम सीटों से संतोष करना पड़ सकता है. इस गठबंधन में एसपी को सबसे बड़ा नुकसान मुस्लिम वोटों को लेकर हो सकता है. अब तक मुस्लिम वोट एसपी के साथ मुस्तैदी से खड़े हैं लेकिन आमतौर पर मुस्लिम वोटर उसी पार्टी को वोट देते हैं जो बीजेपी को हराने की हालत में दिखती है.
अब तक एसपी बीजेपी को हराने की हालत में दिखती रही है लेकिन अगर मायावती मजबूत बनकर उभरीं तो मुस्लिम वोटर बहुत आसानी से बीएसपी की तरफ कूच कर जाएंगे. ऐसे में एसपी को महज यादव वोटों वाली पार्टी मान लिया जाएगा और अगले गठबंधन में मैनपुरी, फिरोजाबाद, बदायूं, कन्नौज और आजमगढ़ से ज्यादा एक भी सीट कोई नहीं देगा जैसा कि अजित सिंह के साथ हर गठबंधन में होता है.
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