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लोकसभा चुनाव के बाद रेवेन्‍यू किस तरह जुटाएगी अगली सरकार?

क्या इस कमी को पूरा करने के लिए उन्हें लूटपाट करनी चाहिए, टैक्स बढ़ाना चाहिए या कर्ज लेना चाहिए?

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अब लग रहा है कि नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन सकते हैं. उनके लिए सबसे बड़ी समस्या पैसा होगी. सरकारों के पास कभी पर्याप्त पैसा नहीं होता और भारत भी इसका अपवाद नहीं है.

अगर हम पिछले 35 साल में दुनिया के अलग-अलग देशों के सरकारी खजाने की हालत देखें, तो यह बात साफ हो जाती है कि उनमें से किसी के पास पर्याप्त पैसा नहीं था.

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इसीलिए यह सवाल कभी खत्म नहीं होताः क्या इस कमी को पूरा करने के लिए उन्हें ‘लूटपाट’ करनी चाहिए, टैक्स बढ़ाना चाहिए या कर्ज लेना चाहिए या फिर इन तीनों रास्तों का इस्तेमाल करना चाहिए?

काफी पहले राजकाज चलाने वाले खजाना भरने के लिए लूटपाट करते थे. इसके लिए किसी कबीले के मुखिया को कुछ उपद्रवियों की जरूरत होती थी, जिसे सेना का नाम दिया जाता था. उसके बाद सभ्यताओं का दौर शुरू हुआ. तब राजा और प्रजा के बीच एक सहमति बनी, जिसमें प्रजा को कुछ पैसा स्वेच्छा से शाही खजाने के लिए देना होता था.

इसे टैक्स का नाम दिया गया. इसकी एवज में राजा वादा करता था कि वह प्रजा को नहीं लूटेगा. खैर, इससे भी बात नहीं बनी और तब राजाओं ने कर्ज लेना शुरू कर दिया. आर्थिक समृद्धि बढ़ने के कारण इस समझौते से दोनों पक्षों को फायदा हुआ.

शासकों के कर्ज लेने से केंद्रीय बैंकिंग व्यवस्था का जन्म हुआ. 1694 में लंदन के महाजनों ने करीब 10 लाख पौंड के कर्ज के बदले राजा की तरफ से जारी किए जाने वाले करेंसी नोटों की सप्लाई पर नियंत्रण हासिल कर लिया था.

फिर भी पैसे की कमी की समस्या दूर नहीं हुईः प्रजा पर अत्यधिक टैक्स थोपने पर राज करने वाले के कुर्सी से हटाए जाने का जोखिम पैदा होता था. वहीं, शासक के अधिक उधार लेने पर न सिर्फ जनता के लिए सिस्टम में कम पैसा बचता, बल्कि महंगाई दर में बढ़ोतरी हो सकती थी. कई बार शासक को सत्ता से शांतिपूर्ण तरीके से हटाया जाता था, तो कई बार हिंसक तरीके से. शासक को चाहे जिस भी तरह से हटाया जाए, उसकी कीमत हर किसी को चुकानी पड़ती थी.

मोदी युग में भारत

भारत आज वैसी स्थिति में पहुंच गया है, जब न सिर्फ सरकार ने टैक्स बढ़ाया है, बल्कि बैंकों पर मालिकाना हक का फायदा उठाकर वह उनसे कर्ज ले रही है और लूट भी रही है. इससे भारी डिफ्लेशन का खतरा पैदा हो गया है.

इससे व्यापक बेरोजगारी के कारण सभी एसेट के दाम में तेज गिरावट आएगी. देश का इस वित्तीय संकट से बचना मुश्किल लग रहा है. हालांकि यह संकट कब आएगा और इसका ट्रिगर क्या होगा, इस बारे में पक्का अनुमान लगाना मुश्किल है. इतना कहना काफी होगा कि इसके हालात बन चुके हैं.

जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब भी ऐसा संकट खड़ा हुआ था. 1985 में उनके पांच साल के कार्यकाल की शुरुआत से इसके अंत तक बजट घाटा चार गुना बढ़ चुका था. इसे भरने के लिए उन्होंने जमकर नोट छापे, सरकारी बैंकों को लूटा और हां, टैक्स की दरों में भी बढ़ोतरी की. इसके बावजूद जब वह सत्ता से हटे, तो सरकार दिवालिया हो चुकी थी.

इसका नतीजा 1991 के संकट के रूप में सामने आया. 1994 में आईएमएफ (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) के भारी दबाव में सरकार को यह मानना पड़ा कि वह अपने खर्च की भरपाई के लिए अधिक नोट नहीं छापेगी. यह बात और है कि उससे सिर्फ आईएमएफ और कुछ अर्थशास्त्री ही खुश थे.

इसके 25 साल बाद लग रहा है कि हम राजीव के दौर के सबक को भुला चुके हैं. आज सरकार खुद को इतनी असहाय पा रही है कि उसने राजीव के टैक्स, उधार और लूट के फॉर्मूले को गले लगा लिया है.

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सरकार को जमीन बेचना चाहिए

अगली सरकार भी आमदनी बढ़ाने की आक्रामक कोशिश करेगी. सिर्फ रक्षा खर्च को देखें, तो उसे दोगुना करने की जरूरत है. स्वास्थ्य और शिक्षा सहित अन्य मदों में भी खर्च में भारी बढ़ोतरी की दरकार है. इसके लिए पैसे जुटाने का एक ही रास्ता है- सरकार अपने हिस्से की जमीन बेचे.

अगर वह अपनी 1 पर्सेंट जमीन भी बेचती है, तो टैक्स और कर्ज में कमी लाई जा सकती है और उसकी लूट भी बंद हो जाएगी. मैंने एक बार दिखाया था कि अगर सरकार दक्षिण दिल्ली में सिर्फ आरके पुरम (15 वर्ग किलोमीटर) की जमीन बेचे, तो वह सरप्लस बजट की स्थिति में पहुंच जाएगी.

आज सिर्फ आरके पुरम की जमीन बेचने से बात नहीं बनेगी, लेकिन उसके पास मध्य दिल्ली में भी काफी जमीन है. इस क्षेत्र में सिर्फ 15 पर्सेंट जमीन निजी हाथों में है. इसलिए इसमें कोई समस्या नहीं आनी चाहिए.

इससे पहले कि लेफ्ट और लिबरल मेरे इस सुझाव पर हाय-तौबा मचाना शुरू करें, मैं उन्हें बताना चाहूंगा कि 1990 के दशक में चीन ने अपना खर्च पूरा करने के लिए यही रास्ता अपनाया था. तब चीन निर्यात से बहुत पैसे नहीं कमाता था.

उसने निजी क्षेत्र के बिल्डरों पर जमीन का भाव तय करने का जिम्मा छोड़ दिया था और उसमें से 25 पर्सेंट आमदनी सरकारी खजाने में डाली गई थी. भारत को भी ऐसा ही करना होगा, क्योंकि आमदनी बढ़ाने के सारे जरियों को निचोड़ा जा चुका है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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