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पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ लोकसभा सीटों के लिए 11 अप्रैल को वोटिंग होनी है. इन आठ सीटों पर साल 2014 के चुनावों में बीजेपी ने कब्जा जमाया था. लेकिन कैराना लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी की हार और समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी- राष्ट्रीय लोक दल के मिलन से बने महागठबंधन ने इन सभी सीटों के समीकरण बदल दिए हैं.
इन सभी आठ सीटों पर कहीं तो सीधी लड़ाई बीजेपी और महागठबंधन के बीच हैं, तो कुछ सीटों पर बीजेपी, महागठबंधन और कांग्रेस की बीच त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति बन रही है. आइए एक नजर डालते हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इन आठ लोकसभा सीटों पर.
गौतम बुद्ध नगर लोकसभा सीट उत्तर प्रदेश की वीआईपी सीटों में से एक है. 2008 में हुए परिसीमन के बाद साल 2009 में यहां पहली बार लोकसभा चुनाव हुए. उस चुनाव में बीएसपी के सुरेंद्र सिंह नागर ने बीजेपी के महेश शर्मा को 2 लाख वोट के अंतर से हराया था. लेकिन 2014 के चुनाव में महेश शर्मा मोदी लहर पर सवार होकर संसद पहुंचे.
फिलहाल, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री महेश शर्मा पर लोकसभा चुनाव 2019 में अपनी जीत दोहराने की चुनौती है.
गुर्जर, दलित, मुस्लिम, ठाकुर और ब्राह्मण मतदाताओं की बहुतायत वाली इस सीट पर 65 फीसदी से ज्यादा मतदाता ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं. एसपी-बीएसपी-आरएलडी का साथ और बीएसपी के गुर्जर उम्मीदवार सतबीर नागर का जातीय समीकरण गठबंधन की दावेदारी को मजबूत बना रहा है. हालांकि, 2014 में महेश शर्मा को एसपी-बीएसपी के कुल वोटों से करीब 82 हजार वोट ज्यादा मिले थे.
लेकिन इस बार कांग्रेस ने अरविंद सिंह चौहान को उम्मीदवार बनाकर बीजेपी खेमे के माने जाने वाले ठाकुर वोटों में सेंध लगा दी है.
गाजियाबाद लोकसभा सीट भी साल 2009 में अस्तित्व में आई. इस सीट पर अब तक दो बार लोकसभा चुनाव हुआ है, जिसमें दोनों बार बीजेपी ने बाजी मारी है. साल 2009 के लोकसभा चुनाव में इस सीट पर राजनाथ सिंह ने जीत हासिल की थी, तो साल 2014 के चुनावों में पूर्व आर्मी चीफ वीके सिंह ने करीब पौने छह लाख वोटों से जीत हासिल कर इतिहास रचा था.
एसपी-बीएसपी और कांग्रेस के कुल वोटों से वीके सिंह को करीब तीन लाख वोट ज्यादा मिले थे. हालांकि, 2019 में वीके सिंह को अपेक्षाओं की कसौटी और क्षेत्र में सक्रियता के सवालों के बीच एसपी-बीएसपी गठबंधन के उम्मीदवार से लड़ना है.
कांग्रेस ने यहां ब्राह्मण उम्मीदवार उतारकर वोट बांटने की जमीन भी तैयार की है.
साल 2014 के चुनावों में इस सीट पर बीजेपी ने कब्जा जमाया था, यहां से राजेंद्र अग्रवाल मौजूदा सांसद हैं. लेकिव एसपी-बीएसपी-आरएलडी के गठबंधन के चलते इस बार बीजेपी का इस सीट पर मुकाबला कड़ा है.
अंदरूनी विरोध के साथ ही लगातार दो बार सांसद रहने की एंटीइनकंबैसी और कांग्रेस के वैश्य उम्मीदवार के चलते बीजेपी के राजेंद्र अग्रवाल की लड़ाई और मुश्किल हो गई है. मेयर के चुनाव में जीत ने शहर में कमजोर पड़ रही बीएसपी के याकूब कुरैशी को मजबूती दी है. हालांकि, याकूब का आक्रामक अंदाज सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की जमीन तैयार करता है, जिसे सींच कर जीत की फसल उगाने का भरोसा बीजेपी को इस बार भी है.
साल 2014 में ध्रुवीकरण की राजनीति की प्रयोगशाला बने सहारनपुर संसदीय क्षेत्र में इस बार त्रिकोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है. बीजेपी ने यहां मौजूदा सांसद पर ही भरोसा जताया है. तो वहीं, कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद पिछले चुनाव में 65 हजार वोटों से दूसरे नंबर पर रहे थे.
बीएसपी के उम्मीदवार हाजी फजलुर्रहमान ने यहां पिछला मेयर का चुनाव लड़ा था. लेकिन वह बीजेपी से महज दो हजार वोटों के मामूली अंतर से हार गए थे.
जातीय समीकरणों के लिहाज से देखें तो इस सीट पर करीब 50 फीसदी वोटर दलित-मुस्लिम हैं. ऐसे में इन वोटों पर स्वाभाविक दावा करने वाले एसपी-बीएसपी गठबंधन की राह यहां थोड़ी आसान दिखती है. लेकिन साल 2014 के चुनावों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विवादित बयान देकर उभरे इमरान मसूद ने लड़ाई की दिशा बदलकर रख दी है. ऐसे में बीजेपी के लिए इस सीट से उम्मीद गैर-अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण से ही है.
साल 2014 के चुनावों में मुजफ्फरनगर ने पश्चिमी यूपी के सभी समीकरण और चुनावी नतीजे बदलकर रख दिए थे. दंगों के बाद उठी ध्रुवीकरण की लपटों में पूरा विपक्ष झुलस उठा था. इस बार इस सीट पर विपक्ष की रणनीति ध्रुवीकरण को ही ठंडे बस्ते में डालने की कवायद है.
मुजफ्फरनगर में इस बार लड़ाई सीधी है. क्योंकि मुकाबला जाट बनाम जाट के बीच है. गठबंधन ने यहां से जाटों के रहनुमा होने का दावा करने वाले आरएलडी चीफ अजित सिंह को चुनाव मैदान में उतारा है, तो बीजेपी ने मौजूदा सांसद संजीव बाल्यान पर ही दांव लगाया है. हालांकि, इन दोनों जाट नेताओं के बीच अंतर ये है, कि साल 2014 के चुनावों में अजित सिंह अपने गढ़ में भी हार गए थे और संजीव बाल्यान ने मुजफ्फरनगर में सबसे बड़ी जीत दर्ज कराई थी.
मुस्लिम-जाट बहुल इस सीट पर अजित सिंह की उम्मीदवारी का समर्थन कांग्रेस ने भी किया है, यानि यहां कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है. साल 2014 के नतीजों की बात करें तो यहां बीजेपी को एसपी, बीएसपी, कांग्रेस और आरएलडी को मिले कुल वोटों से 2.27 लाख वोट ज्यादा मिले थे. हालांकि, इसमें धार्मिक ध्रुवीकरण बड़ा फैक्टर था.
बहरहाल, इस बार करीब 20 साल बाद इस सीट पर जाट बनाम जाट की लड़ाई है और किसी भी प्रमुख दल से मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में नहीं है. हालांकि, 2014 से पहले इस सीट पर लगातार तीन बार मुस्लिम सांसद चुने गए थे. अजित सिंह मुस्लिम, दलित के साथ-साथ जाट वोटर को भी अपनी ताकत मान कर चल रहे हैं. वहीं, बीजेपी के सामने अगड़े-पिछड़े वोटरों के साथ साथ जाट वोटरों को साधने की सबसे बड़ी चुनौती है.
हार्ट ऑफ जाटलैंड माने जाने वाले बागपत संसदीय क्षेत्र को एक वक्त में आरएलडी का गढ़ माना जाता था. पिछले 42 सालों में महज 6 साल ये सीट किसान नेता चौधरी चरण सिंह के परिवार से बाहर रही है. इसमें साल 2014 के चुनाव में आरएलडी के मुखिया अजित सिंह की करारी हार भी शामिल है. इस चुनाव में बीजेपी नेता और मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर डॉ. सत्यपाल सिंह को जीत हासिल हुई थी.
साल 2019 में भी बीजेपी ने अपने मौजूदा सांसद पर भरोसा जताया है. इस सीट पर गठबंधन ने अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी को उम्मीदवार बनाया है. इस सीट पर जाट, मुस्लिम और दलित वोटरों की कुल तादात 60 फीसदी से ज्यादा है. लिहाजा, गठबंधन को इस सीट पर अपनी जीत आसान दिख रही है. वहीं बीजेपी जाट वोटों में सेंध लगाकर, गैर जाटव दलितों और अगड़ों, अति पिछड़ों में पैठ बनाकर 2014 की जीत दोहराने का ख्वाब देख रही है.
बिजनौर लोकसभा सीट को यूपी की वीआईपी सीट माना जाता है. इस सीट पर बीएसपी चीफ मायावती और लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान जैसे दिग्गज अपनी किस्मत आजमा चुके हैं. साल 2014 के चुनाव में इस सीट पर बॉलीवुड एक्ट्रेस जया प्रदा ने आरएलडी के टिकट पर किस्मत आजमाई थी. हालांकि, इस सीट पर बीजेपी के कुंवर भारतेंद्र सिंह ने दो लाख वोटों से जीत हासिल की थी और जया प्रदा अपनी जमानत भी नहीं बचा पाईं थीं.
2011 की जनगणना के अनुसार, बिजनौर में कुल 55.18 % हिंदू और 44.04% मुस्लिम आबादी हैं हैं. इस सीट पर जाट, गुर्जर और मुस्लिम वोटों की बहुतायत है.
फिलहाल, इस सीट पर बीजेपी के कुंवर भारतेंद्र सिंह के सामने अपनी सीट बचाने की चुनौती है. पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रहे बीएसपी के मलूक नागर मुस्लिम, दलित वोटरों के साथ सजातीय गुर्जर वोटों से आस लगाए एक बार फिर गठबंधन उम्मीदवार के तौर पर मैदान में हैं. हालांकि, कांग्रेस ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मैदान में उतारकर इस चुनाव को और दिलचस्प बना दिया है. कभी मायावती के खास रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अगर मुस्लिम वोटों में सेंध लगाई तो बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता है.
पलायन और सांप्रदायिक तनाव की खबरों के चलते चर्चा में रहा कैराना 11 अप्रैल को एक कड़ी टक्कर देखने के लिए तैयार है. पहले चरण के मतदान में यहां बीजेपी के सामने गठबंधन का उम्मीदवार मैदान में है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के हुकुम सिंह ने बड़े अंतर से विपक्षी दलों को हराया था. बाद में हुकुम सिंह की मौत के बाद कैरान सीट खाली हो गई. पिछले साल इस सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी ने हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतारा था. लेकिन उपचुनाव में बीएसपी-एसपी-आरएलडी की उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने जीत हासिल कर बीजेपी की ये सीट छीन ली.
फिलहाल, एसपी-बीएसपी और आरएलडी के गठबंधन के चलते कैराना के जातीय समीकरण बीजेपी को पटखनी देने वाली तबस्सुम हसन के लिए और आसान हो गए हैं.
कैराना लोकसभा सीट पर करीब 5 लाख मुसलमान वोटर हैं. इस सीट पर अब तक कुल 14 बार चुनाव हुए हैं. इनमें 7 बार मुसलमान उम्मीदवार ने जीत दर्ज कराई है. इनके अलावा यहां पर 4 लाख पिछड़े (जाट, गुर्जर, सैनी, कश्यप, प्रजापति और अन्य) और 2.5 लाख दलित वोटर हैं.
लेकिन इन सबके बीच लगभग 1.5 लाख जाट वोटरों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. जाट वोट इस सीट पर निर्णायक भूमिका में माने जाते हैं.
हालांकि, कांग्रेस ने इस सीट पर जाट उम्मीदवार उतारकर बीजेपी और गठबंधन दोनों के लिए ही मुश्किल खड़ी कर दी है.
साल 2014 में जब हुकुम सिंह ने इस सीट पर जीत हासिल की थी, तो उन्हें एसपी, बीएसपी और आरएलडी को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा वोट मिले थे. लेकिन अब माहौल बदल चुका है. उपचुनाव में हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को भी हार का सामना करना पड़ा था, यही वजह रही कि बीजेपी ने इस बार मृगांका का टिकट काटकर बीजेपी ने गुर्जर बिरादरी के प्रदीप चौधरी पर दांव लगाया है.
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Published: 06 Apr 2019,08:59 PM IST