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JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित एक नई स्टडी के अनुसार, भारत में 6.7 मिलियन 'जीरो-फूड बच्चे' हैं, इसका मतलब ये होता है कि 6-23 महीने की उम्र के बीच के बच्चे 'जिन्होंने 24 घंटे की अवधि में जानवर का दूध, फार्मूला, ठोस या अर्ध-ठोस भोजन का सेवन नहीं किया हो'.
स्टडी के अनुसार, भारत 'जीरो-फूड बच्चों' के प्रतिशत में, विश्व में तीसरे रैंक पर है (19.3%). केवल गिनी (21.8%) और माली (20.5%) भारत से आगे हैं.
हालांकि, भारत में 'जीरो-फूड बच्चों' की संख्या सबसे अधिक है.
स्टडी को समझने और यह पता लगाने में मदद करने के लिए कि भारत के हेल्थकेयर सिस्टम के लिए इसका वास्तव में क्या मतलब है, फिट ने पब्लिक हेल्थ और पॉलिसी एक्सपर्ट, डॉ. अनंत भान और चाइल्ड हेल्थ और पोषण विशेषज्ञ, डॉ. राजीव टंडन से बात की.
स्टडी में 92 देशों के डेटा को ध्यान में रखा गया. सर्वे में शामिल सभी बच्चों में से 6-24 महीने की उम्र के बीच के 10.4% बच्चे 'जीरो-फूड बच्चों' थे. यह संख्या 13.9 मिलियन थी.
इन 13.9 मिलियन बच्चों में से, दक्षिण एशिया 8 मिलियन बच्चों के लिए जिम्मेदार था.
इनमें से 2.9 मिलियन या 10.5% बच्चे पश्चिमी और मध्य अफ्रीका से थे.
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के अनुसार 2016-2021 के बीच भारत में जीरो-फूड बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है. 2016 में यह संख्या 17.2% थी.
अगले पांच वर्षों में यह बढ़कर 17.8% हो गई.
भारत में मैलन्यूट्रिशन, विशेषकर बच्चों में, एक ऐसा मुद्दा है, जिसे बार-बार हाइलाइट किया गया है.
मई 2023 में राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था कि सरकार के पोषण ट्रैकर के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 14 लाख से ज्यादा 'गंभीर रूप से कुपोषित बच्चे' हैं.
फिट से बात करते हुए डॉ. अनंत भान ने कहा, "यह एक ऐसी उम्र है, जिसके दौरान बच्चे का बहुत अधिक विकास होता है, जिसका असर पूरे जीवन उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है. इस समय, उन्हें विकास के लिए अच्छी क्वालिटी वाले पोषण की आवश्यकता होती है."
डॉ. भान की इस बात से डॉ. राजीव टंडन सहमत हैं. उनका कहना है कि भारत की कई वल्नरेबल आबादियों के बीच, सबसे पिछड़े क्षेत्रों में बच्चों की मदद के लिए एक अधिक फोकस्ड स्ट्रैटेजी शुरू करने की जरूरत है, जहां सरकारी कार्यक्रमों की पहुंच हो सकता है पर्याप्त न हो.
डॉ. भान आगे कहते हैं कि इस डेटा से अप्रत्यक्ष रूप से कई दूसरे कंक्ल्यूशन निकाले जा सकते हैं. वे कहते हैं:
डेटा यह दिखाने में सक्षम हो सकता है कि इन बच्चों के माता-पिता और प्राथमिक देखभालकर्ता भी भोजन की पहुंच और भोजन की कमी से जूझ रहे होंगे. क्योंकि अधिकांश परिवार बच्चों के पोषण को प्राथमिकता देते हैं.
डेटा यह भी दिखा सकता है कि परिवार स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से भी जूझ रहे होंगे.
इतनी कम उम्र में पोषण की कमी से बच्चों में विकास संबंधी डिसऑर्डर हो सकते हैं.
हालांकि, डॉ. टंडन इस बात से पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं कि 'जीरो-फूड बच्चों' के डेटा का उपयोग मटर्नल हेल्थ के बारे में अनुमान लगाने के लिए भी किया जा सकता है.
वह बताते हैं कि छह महीने के बाद, बच्चा कुछ मोबिलिटी शुरू कर देता है और उसका हेल्थ अब मां से स्वतंत्र हो सकता है.
दिलचस्प बात यह है कि स्टडी में यह उल्लेख किया गया है कि 99% से अधिक 'जीरो-फूड बच्चों' को 24 घंटों की अवधि के दौरान स्तनपान कराया गया था, जब उन्होंने किसी दूसरी तरह का पोषण नहीं लिया था.
हालांकि, इसमें आगे कहा गया है, "छह महीने की उम्र के बाद, अकेले मां का दूध शिशुओं और छोटे बच्चों की बढ़ती पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान लगातार स्तनपान के अलावा पर्याप्त खाद्य पदार्थों की शुरुआत ऑप्टिमल न्यूट्रिशन, ओवरऑल हेल्थ और विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण है.
तो, इस वल्नरेबल उम्र में बच्चों में मालन्यूट्रिशन (कुपोषण) को रोकने के लिए क्या करने की जरूरत है?
डॉ. टंडन के अनुसार, "आवश्यकता यह सुनिश्चित करने की है कि कार्यक्रम हर किसी तक पहुंचे खास कर सबसे वल्नरेबल लोगों तक".
स्टडी के लेखकों का सुझाव है कि देश:
फूड इनसिक्योरिटी में योगदान देने वाले सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कारकों पर ध्यान दें.
पौष्टिक खाद्य पदार्थों तक पहुंच बढ़ाएं.
उचित आहार प्रथाओं के बारे में माताओं और केयरगिवरों की नॉलेज में सुधार करें.
जरुरी रिसर्चों और सहायता की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए हेल्थ सिस्टम को मजबूत करें.
डॉ. भान इस बात से सहमत हैं, वे कहते हैं:
"यह पता लगाने के लिए और अधिक रिसर्च किए जाने की आवश्यकता है. ये बच्चे कौन हैं, वे कहां से हैं, वे किस समुदाय से हैं, मालन्यूट्रिशन का संभावित कारण क्या है और अभी भी 'जीरो-फूड बच्चों' की इतनी बड़ी संख्या क्यों है.''
वे आगे कहते हैं, "यह भी देखना चाहिए कि क्या बच्चों के पोषण पर ध्यान केंद्रित करने वाली योजनाएं इन परिवारों तक पहुंच रही हैं. यह हेल्थकेयर में एक बड़ा बर्डेन गैप है, जिसे तुरंत हस्तक्षेप के साथ प्राथमिकता देने की आवश्यकता है."
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