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शाहजहां ने ताजमहल बनाने से पहले उसके पीछे यमुना नदी को आज के हालात में देखा होता तो ताज शायद वहां बना ही नहीं होता. बड़े शहरों में बढ़ते पारे को देख लोग पहाड़ों की ओर भाग रहे हैं लेकिन वहां जो उन्हें झेलना पड़ रहा है उससे उनका पारा और चढ़ जा रहा है. पिछले कुछ सालों में विकास के नाम पर उत्तराखंड (Uttarakhand) के पहाड़ों तो जिस तरह उधेड़ा गया है, उसके बाद लोग यहां आकर भी परेशान हो रहे हैं और यहां के लोग भी परेशान हो रहे हैं. ट्रैफिक जाम, पर्यावरण को नुकसान ये सब हो रहा है विकास की गलत प्लानिंग के कारण. पर्यटन को बढ़ावा उत्तराखंड के लोगों के लिए जरूरी है लेकिन इस तरह से पर्यटन को बढ़ावा पहाड़ों को ही बर्बाद कर रहा है. फिर न तो स्थानीय लोगों की आमदनी रहेगी और न पर्यटकों के जाने लायक जगह बचेगी.
अप्रैल के आखिरी हफ्ते में हरिद्वार-ऋषिकेश में 3 लाख पर्यटक आए, साल के इस समय के औसत से ये 40% ज्यादा है.
इसी तरह नैनीताल,टिहरी, अलमोड़ा, रानीखेत और मसूरी को मिलाकर 5 लाख टूरिस्ट आए..
29 अप्रैल तक चार धाम के लिए 1.60 लाख सरकारी पोर्टल और ऐप पर रजिस्टर कर चुके थे, जो कि पिछले साल से 20% ज्यादा है
हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत में हरिद्वार टूर एंड ट्रेवेल्स के अध्यक्ष उमेश पालिवाल ने बताया कि 90% ऑपरेटरों के पास कोई वाहन नहीं बचा है.
टूरिस्टों की भीड़ के कारण NH-58 और NH-72 पर लंबे-लंबे जाम लग रहे हैं.
मसूरी में कई किलोमीटर लंबे जाम लग रहे हैं, क्योंकि जितने पर्यटकों आ रहे हैं उतनी पार्किंग नहीं है. लोग सड़क किनारे गाड़ी खड़ी कर दे रहे हैं जिससे जाम की समस्या और बड़ी हो जा रही है.
उत्तराखंड टूरिज्म द्वारा उनकी साइट पर जारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में भारतीयों के पसंदीदा टूरिस्ट स्पॉट देहरादून, मसूरी, टिहरी और बद्रीनाथ हैं. साल 2018 और 2019 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इन दोनों ही सालों में लगातार दस लाख से ऊपर पर्यटकों की आमद इन पर्यटक स्थलों में हो रही थी, मैदानी धार्मिक स्थल हरिद्वार की बात करें तो वहां जाने वाले पर्यटकों की संख्या करोड़ों में थी. खासकर कुंभ के कारण वहां ज्यादा लोग आए.
मसूरी में एक दिन में 1000 गाड़ियों को पार्क करने की जगह है लेकिन गाड़ियां आ रही हैं दो हजार से ज्यादा. मसूरी में नई मल्टी लेवल पार्किंग बनी है लेकिन ये काफी नहीं है.
नैनीताल में रोज 5000 गाड़ियों को पार्क करने की जगह है लेकिन गाड़ियां आ रही हैं 10000 से ज्यादा. नैनीताल में 6 पार्किंग स्थल हैं और अब गाड़ियों की संख्या को देखते हुए नई पार्किंग के लिए जमीन तलाशी जा रही है.
हरिद्वार में अब 8 मल्टीलेवल पार्किंग बनाने की योजना है जबकि वहां अभी सिर्फ एक मल्टीलेवल पार्किंग है.
दिक्कत ये है कि ये सारी प्लानिंग लेट है. जब तक नई पार्किंग बनेंगी पर्यटकों की संख्या और बढ़ेगी और नतीजा ये होगो कि पहाड़ों पर दबाव बना रहेगा.
कई पर्यटक जब अपना महत्वपूर्ण समय और पैसा खर्च कर कुछ सुकून पाने की तलाश लिए मंजिल के करीब पहुंचते हैं तो उन्हें ट्रैफिक की वजह से वहां से वापस लौटा दिया जाता है.
इंटरनेट, मोबाइल के इस युग में उत्तराखंड पर्यटन से जुड़े लोगों को चाहिए कि वह इन डिजिटल साधनों का सही प्रयोग करते उत्तराखंड आने वाले पर्यटकों तक सड़कों, पार्किंग की ताजा जानकारी पहुंचाते रहें. एक उदाहरण-
बीजेपी के सड़कों के जाल अभियान के तहत वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए सारे नियम कायदों को ताक पर रख ऑल वेदर रोड कार्य शुरू हुआ. इस सड़क को तीर्थाटन और पर्यटन के साथ ही सामरिक महत्व के लिहाज से महत्वपूर्ण बताया गया.
पहाड़ न दरकें इसके लिए पत्थर लगा पहाड़ों पर बाउंड्री की गई, जाल बांधने के बाद सरिया लगाकर पहाड़ों को गिरने से रोकने के लिए ‘रॉक ट्रीटमेंट’ स्कीम चली. सड़क की चौड़ाई दस मीटर से अधिक ही रखी गई थी.
इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुकसान को देखते सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पॉवर कमेटी गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी पर महत्वाकांक्षी सत्ता के आगे सब फीके थे. प्रोजेक्ट आगे बढ़ा और अब हालत ये है कि सड़क बारिश या उसके बिना भी कई बार किसी न किसी बाधा से बंद रहने लगी.
इस 1 मई को एक्टिविस्ट अतुल सती द्वारा ऑल वेदर रोड की सच्चाई दिखाता यह ट्वीट खासा वायरल हुआ था. जिसमें उत्तराखंड घूमने आने वालों को ऑल वेदर रोड का कितना फायदा मिला यह साफ हो गया.
पिछले साल टनकपुर से पिथौरागढ़ जाने वाली सड़क रिकॉर्ड सात दिनों से अधिक समय तक बंद रही थी. टनकपुर से चंपावत की दूरी मात्र 70 किलोमीटर है पर सड़क बंद होने की वजह से रीठासाहिब के वैकल्पिक मार्ग से होता यह सफर 140 किलोमीटर का बन गया था.
विकास के नाम पर बनाई जा रही इस सड़क के निर्माण के दौरान अब तक कई घरों के चिराग भी बुझ चुके हैं.
साल 2018 में रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मार्ग पर बांसवाड़ा के पास कार्य करने वाले मजदूरों पर गिरी चट्टान से एक बड़ा हादसा हुआ था, जिसमें सात लोगों ने अपनी जान गंवाई.
मार्च 2020 में बद्रीनाथ हाईवे पर ऑल वेदर रोड कटिंग के दौरान एक और हादसा हुआ और चट्टान में दबने से तीन लोगों की मौत हो गई.
अक्टूबर 2020 में घाट-पिथौरागढ़ हाइवे पर एक कैंटर के ऊपर मलबा गिर जाने से उसमें सवार दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गई.
हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी. दक्षिण में भारत, नेपाल, भूटान हैं. उत्तराखण्ड को सामने रख हम दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं. उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं के तीन स्तर हैं- शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमालय और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय. इन तीन स्तरों में सबसे अधिक संवेदनशील ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी हैं.
इस संवेदनशीलता की वजह इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें हैं.
बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी – ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं.
दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है. जल निकासी मार्गों की सही व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए. हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना को समझकर निर्माण स्थल का चयन करें, जल निकासी के मार्ग में निर्माण न करें. नदियों को रोकें नहीं और बहने दें.
जापान और ऑस्ट्रेलिया के पहाड़ों में भी ऐसी दरारें हैं लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़कों के भीतर पानी रिसने की गुंजाइश कम है इसलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं.
उत्तराखंड के पहाड़ों में सड़क बनाते समय उसके मलबे को नदियों में फेंका जा रहा है.
पहाड़ों में सड़क बनाने के सही तरीके को लेकर पर्यावरण के मुद्दों में सालों से गहरी नजर रखते आ रहे वरिष्ठ पत्रकार विनोद पांडे से बात की गयी. उन्होंने बताया कि पहले पहाड़ों में सड़क ‘कट एंड फिल’ तकनीक से बनती थी. सड़क बनाने के लिए पहाड़ काट सड़क के लिए आधा हिस्सा छोड़ा जाता था और आधे में उसी के मलबे की दीवार दी जाती थी. हल्द्वानी- नैनीताल रोड इसका उदाहरण है.
टाइम्स ऑफ इंडिया' ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि चार धाम सड़क को चौड़ा करने के लिए काटे जाने वाले 6000 देवदार के पेड़ों को चिह्नित करने पर ग्रामीण और कार्यकर्ता, राज्य वन विभाग के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि पारिस्थितिक रूप से कमजोर भागीरथी इको-सेंसिटिव जोन में इन पेड़ों की कटाई से क्षेत्र में 'केदारनाथ जैसी आपदा' आ सकती है.
देहरादून के आशारोड़ी में भी सड़क के चौड़ीकरण के नाम पर हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं, जिससे पर्यावरण को सीधा नुकसान पहुंच रहा है.
भूगर्भशास्त्री प्रोफेसर खड्ग सिंह वल्दिया ने कहा था-
इस बीच चारधाम परियोजना की निगरानी करने वाली सुप्रीम कोर्ट की हाई पॉवर कमेटी के चेयरमैन पद से रवि चोपड़ा ने भी इस साल की शुरुआत में इस्तीफा दे दिया है.
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने अपने इस्तीफा पत्र में कहा था
साल 2019 में उत्तराखंड के औली में कचरा फैलाने के लिए दक्षिण अफ्रीका के व्यवसायी बंधुओं अजय और अतुल गुप्ता पर 2.5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था, यह वह कचरा था जो कुछ लोगों की वजह से एक सीमित क्षेत्र में हुआ और मीडिया में भी खूब उछला था पर उत्तराखंड में आने वाले करोडों पर्यटकों की वजह से जो कचरा हो रहा है उसकी वजह से पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर कभी कोई बात नहीं हुई.
इस कचरे की वजह से उत्तराखंड की वादियों की खूबसूरती तो खराब हो ही रही है, साथ में भूमि को जो नुकसान होता है उसकी भरपाई कर पाना भी असम्भव हो जाता है.
पर्यटन को बढ़ावा देने से पहले उत्तराखंड सरकार के लिए इस कचरे का समाधान खोजना आवश्यक है, जैसे नैनीताल और मसूरी जैसी सुंदर जगहों में शराब की फेंकी हुई बोतलें बड़ी समस्या है.
पर्यटकों को उत्तराखंड में प्रवेश देने से पहले उनके द्वारा लाए जा रहे सामान से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए. पहाड़ों को मिटा कर सड़क तो बन रही है पर उसकी कीमत कौन चुकाएगा.
पर्यटक सीजन में पर्यटकों की भीड़ जगह-जगह बंद रहने वाली इस ऑल वेदर रोड वजह से परेशानी तो झेलती ही है, साथ में उत्तराखंड के क्षेत्रीय लोग भी इस वजह से परेशानी उठाते हैं. सड़क पर लगे लंबे जाम की वजह से उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले मरीजों के लिए और मुसीबत खड़ी हो जाती है.
ये सभी पर्यटक नहीं, अब उत्तराखंड की जमीनों के मालिक भी हैं.
उत्तराखंड में आने वाली पर्यटकों की इस भीड़ में अपनी जेब में नोटों की गड्डी भरे वह लोग भी हैं जो उत्तराखंड को एक बाजार के तौर पर देख रहे हैं या जिन्होंने पहाड़ को अपना दूसरा घर बनाने की ठानी है. ऐसे लोग अपना तो हित देख रहे हैं पर वह यह नहीं समझते कि अपने सुख के लिए उन्होंने पहाड़ को भी नगरों की तरह बनाना शुरू कर दिया है, जहां कंक्रीट का जाल है. 'हिमान्तर' पत्रिका में तरुण जोशी की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड की अब तक लगभग एक लाख हैक्टेयर जमीन उत्तराखंड के स्थानीय लोगों के हाथ से निकल बाहरी लोगों के हाथों में चली गई है.
पहाड़ की वादियां महानगरों की गलियों सा महसूस कराना शुरू करें उससे पहले उत्तराखंड में भूमि की खरीद फरोख्त को लेकर भूकानून लागू करने की आवश्यकता भी है.
उत्तराखंड से पलायन को रोकने के लिए बातें तो हमेशा की जाती है पर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर उत्तराखंड में पलायन महत्वपूर्ण समस्या रहा है. उत्तराखंड के कई युवा नोएडा, दिल्ली के होटलों में काम करते गुमनामी के अंधेरों में खोए रहते हैं.
लाखों में एक प्रदीप मेहरा भी निकलता है, जिसकी कहानी चर्चा पा जाती है.
ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग, उत्तराखंड पौड़ी द्वारा जून 2021 में दिए गए आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में पहली लहर के दौरान सितंबर 2020 तक 3,57,536 प्रवासी वापस लौटे थे, जिसमें से सितंबर अंत तक 1,04,849 प्रवासी एक बार फिर से वापस मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर गए. शॉर्ट टर्म में देखें तो लगता है कि पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा तो पहाड़ में ही रोजगार के अवसर होंगे और पलायन रुकेगा लेकिन अगर ये पर्यटन को बढ़ावा इस बेतरतीब तरीके से दिया जाएगा तो न पहाड़ बचेगा और न पर्यटन. जाहिर है तब पलायन भी नहीं रुकेगा.
आध्यात्मिक पर्यटन से ईको टूरिज्म को जोड़ना पलायन भी रोकेगा और किसी एक पर्यटक स्थल पर दबाव भी कम करेगा.इको टूरिज़्म का अर्थ है पर्यटन और प्रकृति संरक्षण का प्रबंधन इस ढंग से करना कि एक तरफ पर्यटन और पारिस्थितिकी की आवश्यकताएं पूरी हों साथ ही दूसरी तरफ स्थानीय समुदायों के लिए बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जा सके. आध्यात्मिक पर्यटन में पर्यटक, आध्यात्म से जुड़ी जगह जाना पसंद करते हैं.
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यटक या तो चारधाम से जुड़ी आध्यात्मिक पर्यटन में रुचि लेता है या वो नैनीताल, मसूरी में जाता है. इससे उत्तराखंड के बाकी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पर्यटन से जुड़े रोजगार का खास फायदा नहीं मिलता. उत्तराखंड के हर जिले में धार्मिक महत्व के तीन- चार दर्शनीय स्थल जरूर हैं और अगर उनका प्रचार-प्रसार वहां की प्राकृतिक सुंदरता से जोड़कर किया जाएगा तो स्थानीय लोगों को तो इसका फायदा मिलेगा ही साथ ही मुख्य रूप से पर्यटकों के दबाव वाली तीन-चार जगहों से हट कर अन्य जगहों में भी पर्यटक घूमना शुरू कर देंगे. इससे उत्तराखंड को ट्रैफिक जाम, प्रदूषण जैसी समस्याओं से भी निजात मिल सकता है.
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