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विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने रविवार, 22 मई को भारत की लाखों महिला आशा (AASHA Workers) कार्यकर्ताओं को देश में ग्रामीण क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए और कोरोना महामारी के दौरान अच्छा प्रदर्शन करने के लिए सम्मानित किया. आशा कार्यकर्ताओं ने महामारी के दौरान घर-घर जा कर कोरोना मरीजों का पता लगाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इन्हें ट्वीट कर बधाई दी है.
लेकिन असल में आशा कार्यकर्ता किन हालातों में हैं और महामारी के दौरान स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराते समय वे किन स्थितिओं और समस्याओं से गुजरी इस पर पढ़िए क्विंट हिंदी की ग्राउंड रिपोर्ट.
“जिनका पेट भरा है वो हमारी भूख नहीं समझेंगे”, हमसे बातचीत के दौरान ये कहना था जिला रायबरेली की एक आशा वर्कर (Aasha Worker) का, ग्रामीण उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के दूरदराज के इलाकों में जहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है, आशा वर्कर कोरोना वायरस (COVID-19) के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे रहीं हैं.
उषा देवी कहती हैं-
आशा ग्रामीण भारत में रक्षा की फ्रंट लाइन वर्कर है. कोरोना महामारी के दौरान ग्रामीणों का सर्वे करने और उनके स्वास्थ्य की निगरानी करने का काम करने वाली, उत्तर प्रदेश के आशा वर्कर प्रति माह 2,200 रुपये की मामूली राशि के बदले में हर दिन अपनी जान जोखिम में डालती हैं.
आशा माधुरी देवी कोरोना की दूसरी लहर को याद करती हैं तो आज भी डर सी जाती हैं,
औसतन एक आशा वर्कर की मासिक आय 2,000 रुपये प्रति माह से लेकर 5,000 रुपये प्रति माह तक होती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस राज्य मे कार्य कर रही हैं. उनकी अधिकांश आय प्रोत्साहन राशि के रूप में है. उन्हें पूर्ण टीकाकरण के लिए 75 रुपये, बच्चे की मृत्यु की सूचना देने के लिए 40 रुपये और गर्भवती महिला के साथ अस्पताल जाने के लिए 600 रुपये मिलते हैं.
आशा वर्कर रश्मि कहती हैं
कुछ आशा वर्कर ऐसी हैं जिनका घर उनके ही पैसों से चल रहा है, छोटे बच्चों को घर छोड़कर बारिश सर्दी गर्मी में वो दौड़ती हैं, आज के समय मे 2000 रुपये में किसका घर चल सकता है, इतना काम कराया जाता है आशा से, पर हमारी ही सुनवाई करने वाला कोई नहीं है.”
'' महामारी के दौरान हम घर-घर जाकर अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं, लेकिन बदले में हमें केवल 1,000 रुपये प्रति माह का COVID भत्ता मिलता है, और कभी-कभी इसमें देरी भी होती है” ये कहना है माधुरी का जो वेतन की बात से भावुक होकर आगे कहती हैं,
मूलभूत सुविधाओं के बारे मे बताते हुए उषा देवी कहती हैं के, “अस्पताल में आशा कभी इस कोने मे बैठी है कभी उस कोने मे बैठी है, वहां डॉक्टर का अपना कमरा है, नर्स का अपना कमरा है यहां तक सफाई कर्मी का भी अपना अलग बैठने की व्यवस्था है परंतु आशा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है, ये हमारा शोषण नहीं तो और क्या है, करोड़ रुपये हैं हर जगह खर्च करने के लिए पर आशा के लिए स्वास्थ्य केंद्र मे एक कमरा बनवाने के पैसे किसी सरकार के पास नहीं होते, हमारे बारे मे कोई नहीं सोचता.”
महामारी के दौरान, उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ गईं क्योंकि उन्हें सर्दी, खांसी और बुखार के लक्षणों वाले मरीजों की जांच-पड़ताल करनी पड़ी और कोविड रोगियों को नजदीकी स्वास्थ्य केंद्रों में भेजने का कार्य भी उन पर डाला गया। इन सारे कार्यों के लिए कोविड जैसी महामारी मे भी उन्हें बचाव सामाग्री मुहैया नहीं कराई गयी.
कोई आशा अगर गंभीर रूप से कोविड की चपेट मे आ जाती तो उसके इलाज के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं थी, मुझे खुद को फील्ड में काम करने से कोविड हो गया था तो हमने अपना सारा इलाज निजी जगह कराया जिसमें हमारे पचासों हजार रुपये लग गए.”
इसी को देखते हुए वर्ष 2021 मे ऑक्सफैम इंडिया ने अपने कार्यक्रम मिशन संजीवनी की शुरूवात की जिसमे वे 9 राज्यों में आशा वर्कर्स को कोविड प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान कर रहे हैं ताकि वे खुद को सुरक्षित रखते हुए अपनी सेवा करना जारी रख सकें. उत्तर प्रदेश में अब तक इनके द्वारा तीन जिलों रायबरेली, फतेहपुर, प्रतापगढ़ में 7192 आशाओं को प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान की जा चुकी है.
“इस ट्रेनिंग से आशाओं को बहुत सुरक्षा मिली है, इस से ये लाभ हुआ है कि इसमें आशा को सुरक्षित रखने का कार्य किया गया है.” इन शब्दों में रश्मि देवी ने इस प्रशिक्षण के बारे मे अपने विचार साझा किए. अनुमानित कोविड महामारी की तीसरी लहर के प्रश्न पर माधुरी देवी कहती हैं, “अब हम लोग बिलकुल डर नहीं रहें हैं, फिर से लहर आएगी तो मिलकर संघर्ष करेंगे. पहले तो बचाव का सामान नहीं मिला था इस ट्रेनिंग से तो वो भी मिल गया है.”
उषा देवी अपनी बात के आखिर मे कहती हैं के“ हमें गांव के लोग जो भी कहते हैं उससे गिला शिकवा नहीं है हमे सबके साथ मिल के काम करना है, सबको साथ लेकर चलना है और सबको सुरक्षित रखना है.”
ऑक्सफैम इंडिया अब तक 48000 आशा कार्यकर्ताओं को कोविड प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान कर चूका है. इनका लक्ष्य 60000 आशा कार्यकर्ताओं तक पहुंचना है.
(प्रियांश त्रिपाठी पेशे से एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लखनऊ, उत्तर प्रदेश में स्थित एक वृत्तचित्र फोटोग्राफर और फिल्म निर्माता हैं। लिंग,आजीविका, यौन अधिकार और प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकारों से संबंधित मुद्दों में उनकी गहरी रुचि है)
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