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CAA विरोध:क्या अल्पसंख्यकों के खिलाफ है पुलिस,आंकड़े क्या कहते हैं
पुलिस की कार्रवाई में देशभर में 20 से अधिक लोग मारे गये, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं.
आदित्य मेनन
भारत
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पुलिस की कार्रवाई में देशभर में 20 से अधिक लोग मारे गये, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं.
(फोटोः क्विंट हिंदी/कामरान अख्तर)
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वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज
उत्तर प्रदेश के पुलिस अफसर अखिलेश नारायण सिंह कैमरे पर स्थानीय मुसलमानों को कहते पाए गये कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का जो विरोध कर रहे हैं वे “पाकिस्तान जाएं”. इस पर अंकुश लगाने के बजाए उत्तर प्रदेश पुलिस के शीर्ष अधिकारियों ने उन्हें बचाने का काम किया.
मंगलुरू चलते हैं जहां स्थानीय पुलिस ने कम से कम 6 ऐसी एफआईआर दर्ज की हैं जो “अज्ञात मुस्लिम युवक” के खिलाफ हैं. यह साफ करना जरूरी है पुलिस ने आरोप तय करने के लिए “संदिग्ध” की जगह “मुस्लिम” लिखना तय किया है जबकि अब तक उनकी पहचान नहीं की जा सकी है.
पुलिस की कार्रवाई में देशभर में 20 से अधिक लोग मारे गये हैं. ज्यादातर मुसलमान हैं.
इससे इन आरोपों को हवा मिली है कि पुलिस सांप्रदायिकता से प्रेरित है. दो सवालों का यहां जवाब देना जरूरी लगता है :
क्या लोग, खासकर अल्पसंख्यक, पुलिस को शत्रु या विरोधी मानते हैं?
इस संदर्भ में लोकनीति-सीएसडीएस ने दो महत्वपूर्ण सर्वे किए हैं : स्टेट ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट (एसपीआईआर) 2018 और 2019. एसपीआईआर 2019 जहां विभिन्न मुद्दों पर पुलिस के नजरिए पर केंद्रित है, वहीं एसपीआईआर 2018 पुलिस को लेकर आम लोगों के नजरिए पर केंद्रित है.
इन दो सर्वे के आधार पर प्रमुख तथ्यों पर गौर करते हैं कि पुलिस के बारे में अल्पसंख्यक क्या सोचते हैं :
ज्यादातर मुसलमान और सिख सोचते हैं कि वे पुलिस से डरे हुए हैं वहीं लगभग 25 फीसदी हिन्दू भी इसी तरह से प्रतिक्रिया देते हैं. पुलिस पर सबसे कम भरोसा सिखों और आदिवासियों को है.
गरीब और उन गांवों में रहने वाले मुसलमानों में, जहां उनकी संख्या कम है पुलिस को लेकर ज्यादातर लोगों की सोच नकारात्मक है.
तेलंगाना में 68 प्रतिशत मुसलमान, दिल्ली में 65, महाराष्ट्र में 62, कर्नाटक में 60 और उत्तर प्रदेश में 59 फीसदी मुसलमान मानते हैं कि पुलिस की सोच आतंक के मामलों में उन्हें गलत तरीके से फंसाने की रहती है.
असम, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में पुलिस बल में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के हिसाब से सबसे कम है. इस मामले में आन्ध्र प्रदेश को सबसे बेहतर आंका गया है.
करीब 26 फीसदी मुसलमानों का कहना है कि पुलिस धर्म के आधार पर भेदभाव करती है. यह संख्या किसी भी अन्य धार्मिक समुदाय की तुलना में सबसे ज्यादा है.
राज्यवार देखें तो इस संख्या में बड़ा बदलाव दिखता है. बिहार में करीब 56 फीसदी मुसलमान, राजस्थान में 55 फीसदी और महाराष्ट्र एवं तमिलनाडु में 50 फीसदी मुसलमानों का कहना है कि पुलिस धर्म के आधार पर भेदभाव करती है. केरल में केवल 4 फीसदी, उत्तराखण्ड में 7 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 13 फीसदी मुसलमानों की भी ऐसी ही धारणा है.
सर्वे में यह बात उजागर हुई है कि विभिन्न राज्यों में पुलिस का एक तबका ऐसा है जो मुसलमान को लेकर, भीड़ का न्याय और न्यायेतर तरीके अपनाने को लेकर ऐसी राय रखता है जो थोड़ी समस्या पैदा करने वाला है.
यहां दोनों सर्वे की कुछ अहम बिन्दु पर नज़र डालते हैं :
मुसलमानों के बारे में
यह पूछे जाने पर कि क्या मुसलमानों में “स्वाभाविक रूप से अपराध करने की प्रवृत्ति” होती हैं, देश भर में आधे पुलिसकर्मियों ने कहा, ‘बहुत ज्यादा’ या ‘कुछ ऐसा ही’. 42 प्रतिशत का कहना था “कभी-कभी” या “कभी नहीं”.
राज्यवार देखें तो इसमें बड़ा बदलाव नज़र आता है. उत्तराखण्ड में जवाब देने वाले 79 प्रतिशत पुलिसकर्मियों का कहना था कि मुसलमान बहुत ज्यादा अपराध करते हैं या उनमें अपराध करने की प्रवृत्ति होती है. इसके बाद झारखण्ड में 66 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 56 फीसदी और कर्नाटक में 49 फीसदी पुलिसकर्मियों का ऐसा ही मानना था.
मामले का दूसरा पहलू पंजाब में दिखता है जहां जवाब देने वाले केवल 23 फीसदी पुलिसकर्मियों ने कहा कि कि मुसलमानों में “बहुत ज्यादा” या “कुछ इसी तरह” अपराध करने की प्रवृत्ति होती है जबकि 65 प्रतिशत ने जवाब दिया, “कभी-कभी” या “कभी नहीं”. इसी तरह आन्ध्र प्रदेश में यह संख्या क्रमश: 33 फीसदी और 63 फीसदी रही.
पुलिस के एक बड़े तबके का मानना है कि बलात्कार, अपहरण, गो हत्या और ड्राइवर की लापरवाही के मामलों में भीड़ की हिंसा जायज है लेकिन ऐसे पुलिसकर्मियों की संख्या बहुत कम है जो यह मानते हैं कि यह उचित नहीं है. बहरहाल राज्यवार देखने पर एक बार फिर अलग-अलग आंकड़े देखने को मिलते हैं.
मध्यप्रदेश में जवाब देने वाले 63 प्रतिशत पुलिसकर्मी कहते हैं कि गो हत्या के मामले में भीड़ की हिंसा “बहुत ज्यादा” सही है या “कुछ ऐसा ही” है. बहरहाल, दूसरे मुद्दों पर दक्षिणी राज्यों की पुलिस कुछ इसी तरीके से भीड़ की हिंसा को सही ठहराती है.
उदाहरण के लिए कर्नाटक में जवाब देने वालों में 59 फीसदी और आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना में 42 फीसदी पुलिसकर्मी बलात्कार के आरोपी के साथ भीड़ की हिंसा को जायज मानते हैं. बच्चे के अपहरण के आरोपी के साथ इसे सही ठहराने वालों में कर्नाटक के 44 फीसदी और तेलंगाना के 41 फीसदी पुलिसकर्मी हैं.
इसी तरह कर्नाटक में 58 फीसदी, तेलंगाना में 55 फीसदी और केरल में 42 फीसदी पुलिसकर्मी मानते हैं कि ड्राइवर की लापरवाही के कारण हुई सड़क दुर्घटना के मामले में भीड़ की हिंसा जायज है.
अपराधी को दंड देने के लिए न्यायेतर तरीकों को उचित ठहराने वाले पुलिसकर्मियों का प्रतिशत नगालैंड में 78 है, तो छत्तीसगढ़ में यह 69 फीसदी, बिहार में 60 फीसदी, कर्नाटक में 57 फीसदी, झारखण्ड में 57 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 54 फीसी और हरियाणा में 54 फीसदी है.
दिलचस्प बात यह है कि कम पढ़े लिखे पुलिसकर्मियों से ज्यादा अधिक पढ़े लिखे पुलिसकर्मी (पोस्ट ग्रैजुएट और इससे ऊपर) न्यायेतर तरीकों का समर्थन करते हैं. यहां तक कि अपराधियों के खिलाफ हिंसा के प्रयोग को भी न्यायोचित बताने वाले पुलिसकर्मियों में कम पढ़े लिखे जवानों की तुलना में पोस्ट ग्रैजुएट जवान अधिक हैं.
कर्नाटक, छत्तीसगढ़, नगालैंड, बिहार और गुजरात की पुलिस हिंसक तरीके के इस्तेमाल या हिंसा को सही ठहराती दिखी. ओडिशा और पश्चिम बंगाल की पुलिस का झुकाव इस ओर कम दिखा.
मुसलमानों को लेकर पुलिस के जो विचार हैं या हिंसा को लेकर जो उनकी सोच है उसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि राज्य में किसकी सरकार है. लेकिन, वर्तमान हिंसा में एक साफ पैटर्न स्पष्ट नज़र आता है.
खबरों के अनुसार प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई के दौरान 25 लोग मारे गये हैं. इनमें से 19 उत्तर प्रदेश में, 4 असम में और दो कर्नाटक में मारे गये हैं. ये सभी बीजेपी शासित राज्य हैं. दूसरी तरफ, गैर बीजेपी शासित राज्यों में बहुत कम या कोई हिंसा नहीं हुई है.
यह बताता है कि इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि पुलिसकर्मियों की सोच क्या है बल्कि यह राजनीतिक नेतृत्व है जो इस मामले में महत्वपूर्ण कारक साबित हुआ है.
तो एक तरफ महाराष्ट्र जैसे राज्य हैं जहां मुसलमानों का बड़ा हिस्सा मानता है कि पुलिस का रवैया उनके खिलाफ है या मुसलमानो को आतंक के मामलों में फंसाने वाला है, फिर भी वहां सीएए के विरोध में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की हिंसा नहीं हुई. इसकी बड़ी वजह राज्य में राजनीतिक नेतृत्व है.
दूसरी तरफ बुरी तरह प्रभावित उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्य हैं जहां ऐसा लगता है कि पुलिस की पूर्वाग्रही सोच और सत्ताधारी बीजेपी की युगलबंदी हो गयी.
सीएसडीएस सर्वे के अनुसार जवाब देने वाले पुलिसकर्मियों में उत्तर प्रदेश के 56 फीसदी और कर्नाटक के 49 फीसदी का मानना है कि मुसलमान “स्वाभाविक रूप से अपराध की ओर प्रवृत्त” होते हैं. फिर दोनों राज्यों में अधिकतर पुलिसकर्मी हिंसा और इससे निपटने के लिए न्यायेतर तरीकों के इस्तेमाल को सही ठहराते हैं.
जब पुलिस की ऐसी सोच को इस भावना से शह मिलने लगती है कि राजनीतिक नेतृत्व मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा पर आपत्ति नहीं करेगा तो उसके घातक नतीजे अवश्यम्भावी हो जाते हैं. दोनों राज्यों में प्रदर्शनकारियों की मौत इसका प्रमाण है.