advertisement
द न्यूयॉर्क टाइम्स में फ्रैंक ब्रुनी ने पूछा है कि डोनाल्ड ट्रंप को कोरोना होने की खबर पर क्या भरोसा किया जाना चाहिए? एक ऐसे व्यक्ति पर विश्वास कैसे किया जाए जो बारंबार विक्टिम कार्ड खेलता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी बहाने डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव अभियान को बेपटरी कर देने की तैयारी कर रखी हो. जो बाइडेन से उनकी संभावित हार दिखने लगी है. डोनाल्ड ट्रंप के लिए यह बहाना हो सकता है. ट्रंप पहले ही यह सुझाव दे चुके हैं कि चुनाव स्थगित किए जा सकते हैं.
खुद उहोंने मास्क नहीं पहने हैं और बड़ी-बड़ी सभाएं की हैं. मंगलवार की रात राष्ट्रपति चुनाव में पहली डिबेट में उन्होंने जो बाइडन का इसलिए मजाक उड़ाया क्योंकि वे मास्क पहनते हैं. उन्होंने डरपोक, कायर, फर्जी होने का प्रमाण भी बताया. लेखक कहते हैं कि अब यह मान लेना चाहिए कि कभी भी कोरोना वायरस से छुटकारा मिल जाने की बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता.
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि कृषि मंत्री, वित्तमंत्री, नीति आयोग, बीजेपी अध्यक्ष, बीजेपी प्रवक्ता सब यही कह रहे हैं कि कृषि उपज बाजार समिति यानी एपीएमसी से बंधे रहे हैं किसान. अब उनके पास इससे बाहर निकलने का विकल्प है. हालांकि उनके पास अपने तर्क के समर्थन में कोई आंकड़े नहीं हैं. लेखक इन्फोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति के हवाले से कहते हैं कि हम ईश्वर में भरोसा रखते हैं. बाकी किसी भी चीज के लिए आंकड़े लाइए.
विभिन्न राज्यों में अलग-अलग एपीएमसी की चर्चा करते हुए चिदंबरम लिखते हैं कि किसानों को यहां तक पहुंचन के लिए लंबी यात्राएं करनी पड़ती हैं. लेखक किसानों के लिए बाजार सुनिश्चित करने की मांग करते हैं. वे एपीएमसी को खत्म करने की वकालत करते हैं लेकिन यह भी कहते हैं कि ऐसा किसानों को विश्वास में लिए बगैर नहीं किया जाना चाहिए. चिदंबरम चाहते हैं कि राज्यों को इस बाबत अधिकार बनाने का अधिकार मिलना चाहिए.
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि जब तक हाथरस की बेटी जिन्दा थी उसका हाल जानने न कोई राजनेता पहुंचा और न ही मीडिया के वे शेर पहुंचे जो उस समय बॉलीवुड की अभिनेत्रियों के पीछे लगे हुए थे मानो कोई दूसरी खबर इतनी महत्वपूर्ण हो ही नहीं. 15 दिन तक मौत से लड़ती रही लड़की ने वीडियो पर बयान भी दिया कि उसका हाल किन लोगों ने किया. उसने नाम भी बताया. मरने के बाद ही सोनिया गांधी और उनके बच्चों को ध्यान आया कि उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए.
ध्यान हटाने के लिए बीते 6 साल से मोदी समर्थक ऐसा ही करते रहे हैं. देश के किसी एक बीजेपी शासित राज्य में भी वह प्रशासनिक सुधार देखने को नहीं मिला है जिसकी उम्मीद में मोदी को दो बार पूर्ण बहुमत के साथ जनता ने जीत दिलायी है. तवलीन लिखती हैं कि अंग्रेज अपने यहां पुलिस को सिखाती है कि उसका काम जनता की सेवा करना है. लेकिन, भारत में उसने सिखाया कि गुलामों को काबू में कैसे रखना है और साहब के लिए कैसे काम करना है. यही कारण है कि स्थिति बदलने का नाम नहीं ले रही है.
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि तीन दशक से जो मांग आर्थिक सुधारों के समर्थक करते आ रहे थे वह पूरी हो चुकी है. श्रम कानून में सुधार लाया जा चुका है. जो काम दो दशक पहले यशवंत करना चाहते थे और नहीं कर पाए थे, वह अब पूरा हुआ है. 29 केंद्रीय कानूनों को चार संहिताओं में समेट दिया गया है. अब कर्मचारियों की छंटनी आसान हो गयी है. सरकार को भी काफी स्वतंत्रता दी गयी है. वह किसी भी उद्योग को इन संहिताओं के दायरे से बाहर रख सकता है. केंद्र ने प्रतिदिन का बुनियादी वेतन 178 रुपये कर दिया है. देश के सभी राज्यों में इससे अधिक वेतन है.
नाइनन लिखते हैं कि श्रम सुधारों की वास्तविक परीक्षा रोजगार मुहैया कराने में दिखेगी. व्यापक फैक्ट्री रोजगार पर सरकार की नज़र है जहां अधिक से अधिक लोगों के लिए रोजगार मिलता दिख रहा है. विनिर्माण के क्षेत्र में भारत एशिया के बाजार में अपनी भागीदारी बढ़ा सकता है. अगर श्रम सुधार की नीति कारगर रहती है तो सभी प्रसन्न होंगे. अगर सफल नहीं होते हैं तो जाहिर है इसे अपर्याप्त कहा जाएगा. अर्थव्यवस्था की गति धीमी है और नयी क्षमताओँ में निवेश नहीं हो रहा है. फिर भी आने वाले समय में बेहतर की उम्मीद की जानी चाहिए.
हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने व्यक्तिगत संबंध के हवाले से बीजेपी के कद्दावर नेता रहे पूर्व मंत्री जसवंत सिंह के व्यक्तित्व को दुनिया के सामने लाने की पहल की है. जिन्ना पर लिखी जिस किताब की वजह से जसवंत सिंह को बीजेपी ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखलाया था, उसमें जिन्ना की तारीफ की गयी थी. भारत के बंटवारे के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराने की सोच से अलग जसवंत सिंह ने बताया था कि भारत के बंटवारे के लिए जितना कांग्रेस के नेता जिम्मेदार थे उससे अधिक जिन्ना को जिम्मेदार बताना गलत होगा.
एक यादगार मुलाकात जिसमें लेखक को कम उम्र में बड़े की तरह व्यवहार मिला. बाद के दौर में जब जसवंत मंत्री बने, तब तक करन थापर पर उनका बहुत विश्वास नहीं रह गया था. यही वजह है कि पुस्तक के प्रकाशन से पहले के इंटरव्यू के लिए करन को बुलाया जाने का सुखद आश्चर्य महसूस हुआ. सरसरी तौर पर मजमून देखकर ही करन थापर समझ गये थे कि बीजेपी के भीतर हंगामा बरपना तय है. दो हिस्सों में प्रसारित इंटरव्यू के अगले ही दिन जसवंत बीजेपी से निकाल दिए गये.
ऐसा जसवंत सिंह को कतई विश्वासन नहीं था. लेखक से बातचीत में उन्होंने विश्वास जताया था कि बीजेपी नाराज़ नहीं होगी क्योंकि वे सच बोल रहे हैं. मगर, ऐसा हुआ नहीं. करन थापर ने एक और इंटरव्यू का जिक्र किया है जो बीजेपी से निकाले जाने के बाद का है. इसमें उन्होंने बीजेपी की सोच पर आश्चर्य जताया. उन्होंने कहा कि पार्टी को चिंता करनी चाहिए कि झूठ ही पार्टी का मूलतत्व हो चुका है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)