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तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि G-20 सम्मेलन में भाग लेने इंडोनेशिया पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाली में भारतीय समुदाय के लोगों को संबोधित किया. उन्होंने उपस्थित जनसमूह से पूछा कि 2014 के बाद सबसे बड़ा परिवर्तन भारत में कौन-सा आया है तो जवाब ‘मोदी, मोदी’ के रूप में मिला. जवाब से खुश प्रधानमंत्री ने कहा कि, 'जवाब गलत' है. भारत की सोच अब बड़ी हो गयी है. विश्व की सबसे बड़ी प्रतिमा, विश्व का सबसे बड़ा स्टेडियम गुजरात में है. सोच-विचार में परिवर्तन आया है.
विभिन्न राष्ट्रप्रमुखों के साथ भारतीय पीएम की तस्वीर वाली वीडियो खुद नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट की. इस पर भक्तों का कहना है कि जब दुनिया पीएम मोदी को इज्जत दे रही है, तो भारत में विरोध क्यों? लेकिन सवाल यह है कि बगैर आलोचना के कोई देश लोकतांत्रिक रह सकता है? शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदलाव आए बगैर भारत विकसित देश नहीं बन सकता. शहरों, कस्बों और गांवों में हर मोड़, हर गली में सड़ते कूड़ों का ढेर है. देश की राजधानी में कूड़ों का ढेर नहीं, पहाड़ दिखता है. विकसित देशों में आम इंसान की इज्जत होती है. कोई बिना सुरक्षित कपड़े पहने सीवर में नहीं उतरता है.
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि गुजरात मॉडल पर गौर करना जरूरी है. चुनाव की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री के सरकारी दौरों में लगातार इस मॉडल की चर्चा रही. जैसे भारत का इतिहास 2014 से शुरू हुआ है, वैसे ही गुजरात का पुनरुत्थान भी 2001 से ही शुरू हआ है. 2016 से अब तक हुए तीन मुख्यमंत्रियों में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे विजय रुपाणी को कैबिनेट समेत हटा दिया गया था. गुजरात में ‘डबल इंजन’ का मतलब भी थोड़ा अलग है. पीएम-सीएम के बजाए प्रधानमंत्री-गृहमंत्री ही यहां डबल इंजन हैं. राज्य सरकारों और राज्यों से छुटकारा पाना चाहते हैं तो हम ‘एक भारत, एक सरकार’ बना सकते हैं.
गुजरात में ‘मोरबी पुल’ गिरा. 135 मौत हुई. प्रधानमंत्री वहीं मौजूद थे. मगर, मीडिया को कोई जवाब देने की जरूरत महसूस नहीं हुई. गुजरात हाईकोर्ट ने पकड़ा. मोरबी पुल के लिए कोई टेंडर, बोली नहीं लगायी गयी थी. कोई शर्त नहीं था. कोई माफी नहीं, कोई इस्तीफा नहीं. आगे भारत भी बिना किसी जवाबदेही के इसी रास्ते पर चलेगा. गुजरात में लिंगानुपात 919 है. श्रम भागीदारी में भी महिलाएं राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. कुपोषण में बच्चे और महिलाएं आगे हैं. इन मानकों पर भी भारत अब गुजरात का मॉडल अपनाएगा.
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि कई आर्थिक समीक्षक अल्पकालिक रूप से भारत के लिए निराशावादी नजरिया रखते रहे हैं, लेकिन दीर्घावधि को लेकर वे आशान्वित रहे हैं. यह स्थिति उलट गयी है. अब वही समीक्षक दीर्घावधि को लेर निराशा से घिरे हैं और अल्पावधि की घटनाओं को संतोषजनक मान रहे हैं. दलील बदल गयी है. अगर हम अल्पावधि की घटनाओं का ध्यान रखें तो दीर्घावधि स्वयं अपना ध्यान रखेगी.
डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन बाकी मुद्राओं की अपेक्षा कम हुआ है. चीनी अर्थव्यवस्था की वृद्धि भारत के मुकाबले आधी रहने का अनुमान है. जापान में गतिशीलता का अभाव है. प्रतिव्यक्ति आय कम होने के बावजूद वैश्विक आर्थिक वृद्धि के मुकाबले भारत दोगुनी गति से बढ़ता दिखने वाला है. इसके बावजूद सामाजिक अशांति और शिक्षा एवं स्वास्थ्य की खराब स्थिति के साथ-साथ पोषण में कमी की समस्या भारत में बनी हुई है. दीर्घकालिक निराशा की इन वजहों को वे लोग खारिज कर दे रहे हैं, जिन्हें अल्पावधि की घटनाएं प्रभावित कर रही हैं. व्यवस्थागत दिक्कतें बढ़ने वाली हैं और हमारी परेशानी भी, मगर आर्थिक समीक्षक इन बातों पर गौर करने को तैयार नहीं हैं.
शोभा डे एनडीटीवी में लिखती हैं कि दिल्ली की आफताब-श्रद्धा मर्डर स्टोरी मीडिया की सुर्खियों में है. इस घटना ने हर किसी को कंपकंपा दिया है. रिपोर्टर्स और मीडिया इस जघन्य घटना के माध्यम से समाज को जगाने में लगे हैं. अब तक इस घटना की कवरेज सनसनीखेज रही है. यह ‘ओटीटी स्टोरी के लायक’ ‘मसालेदार’ रही है. आफताब की मानसिक स्थिति को लेकर हर कोई कुछ न कुछ कहता दिख रहा है. आफताब ने अपनी प्रेमिका के कितने टुकड़े किए? कैसे किए? वह संख्या 35 ही थी ना? क्या उसने अपने परिसर में किसी सिपाही को नहीं देखा? या फिर वह पेशेवर दक्षता रखता था जैसा कि एक शेफ के पास होता है? क्या उसके पास धारदार चाकू थी? या कि उसने सब्जी काटने वाले चाकू का ही सहारा लिया?
यह सब बयां कर रहे मीडिया के लिए G-20 की स्टोरी महत्वपूर्ण नहीं रही, राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी जो बाइडेन से अधिक महत्वपूर्ण आफताब हो गया. इस बात की भी अहमियत नहीं कि जस्टिन ट्रुडो और शी जिनपिंग वास्तव में भिड़े या नहीं भिड़े. इन सबके बावजूद लेखिका का मानना है कि आफताब-श्रद्धा की स्टोरी में कुछ बचा नहीं है. अगले हफ्ते चर्चा में कुछ और होगा. मारी गयी बच्ची के पिता की ओर भी ध्यान देना जरूरी है जो दुखी हैं.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में कन्नड़ साहित्य की दुनिया में मशहूर देवनुरा महादेव के एक लिफ्लेट की चर्चा की है जो इन दिनों विभिन्न भाषाओं में अनुदित हो रही है और जिसकी खूब चर्चा है. इसमें हिंदुत्व को आकार देने वाले दो विचारकों एमएस गोलवलकर और वीडी सावरकर के उद्धरण हैं, जो जाति व्यवस्था और इसमें मौजूद ऊंच-नीच का समर्थन करते हैं. सावरकर मनुस्मृति की पूजा करने की वकालत करते हैं. महादेव ने सावरकर के जो उद्धरण रखे हैं, उसमें कहा गया है कि हमारे हिंदू राष्ट्र में मनुस्मृति वेद के बाद सबसे पूजनीय है. यह संस्कृति-परंपरा, विचार और प्रचलन का आधार है... आज मनुस्मृति ही हिंदू लॉ है. यही बुनियादी बात है.
महादेव लिखते हैं कि भारतीय संविधान के रक्षक के तौर पर देखें तो बहु विविधतावाद, जाति और लिंग की समानता, अभिव्यक्ति की आजादी और संघवाद पर खतरा साफ तौर पर दिख रहा है. भारत की राजनीतिक पार्टियां एक नेतृत्व, पारिवारिक नियंत्रण और गैर संवैधानिक संगठनात्मक तरीकों से चल रही हैं. यही वजह है कि कालाधन मिटाने, किसानों की आय दोगुनी करने, करोड़ों रोजगार पैदा करने जैसे वादे फेल हो जाने के बावजूद बेचैनी नहीं दिखती. अमीरी-गरीबी का फर्क बढ़ता जा रहा है और फायदा चंद उद्योगपतियों को ही हो रहा है.
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