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रामचंद्र गुहा द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि साल 2020 भारत और भारतीय लोकतंत्र, दोनों के लिए बुरा रहा. मोदी-शाह के राज में महामारी का इस्तेमाल संवैधानिक लोकतंत्र को कमजोर करने और सरकार व समाज पर अपनी पकड़ मजबूत करने में किया गया. अपने मकसद को पूरा करने के लिए भारतीय संसद, संघवादी व्यवस्था, प्रेस और सिविल सोसायटी से जुड़े संगठनों पर तरह-तरह से हमले किए गए.
मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के 10 साल के शासनकाल पर एक रिपोर्ट के हवाले से गुहा लिखते हैं कि इस दौरान सबसे कम विधानसभा की बैठकें हुईं. न विपक्ष से संपर्क साधा गया और न ही बड़े नीतिगत मुद्दों पर कैबिनेट की ही बैठकें हुईं. नई दिल्ली में संसद के मामले में भी यही रुख नजर आया. जिस तरीके से कृषि बिल पारित हुआ और राज्यसभा के उपसभापति ने इसके लिए संसद के नियमों को तोड़ा, ताकि संसद में वोटिंग न हो सके, वह बड़ा उदाहरण है.
मोदी भक्तों ने इन कानूनों को ‘ऐतिहासिक’ बताया. महामारी के दौर में असम और बंगाल में गृहमंत्री बड़ी-बड़ी रैलियां करते रहे, लेकिन संसद का शीतकालीन अधिवेशन रद्द कर दिया गया.
महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे गैर बीजेपी प्रदेशों को मोदी-शाह के राज में लगातार परेशान किया गया. इन राज्यों को अस्थिर करने की कोशिशें की गईं. साढ़े 6 साल के शासन में पीएम मोदी ने कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की. महामारी के बाद से 55 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया. ज्यादातर गिरफ्तारी यूपी, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हुई. प्रेस की आजादी के मामले में भारत की स्थिति नेपाल, अफगानिस्तान और श्रीलंका से भी नीचे 142वें नंबर पर आ गई.
प्रताप भानु मेहता ने द इंडियन एक्सप्रेस में लोकतंत्र के प्रति विश्वास पर पैदा हुए खतरे की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि लोकतंत्र के दो स्तंभ स्वतंत्रता और बंधुत्व परीक्षा के दौर से गुजर रहे हैं, जबकि, चुनाव भारतीय प्रजातंत्र का धर्म बना हुआ है. फिर भी मोहभंग की स्थिति मजबूत हो रही है. पढ़ा लिखा वर्ग अधीर है, मगर बेबस भी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकप्रिय होने का अंदाज दिखाते हैं. चुनाव नतीजों का मतलब भी यही होता है कि लोग उनके पीछे हैं. इसे वे सवा सौ करोड़ के समर्थन के तौर पर व्यक्त भी करते है. इससे हटकर जैसे ही कोई अभिव्यक्ति सामने आती है तो उसकी अलग किस्म से ब्रांडिंग कर दी जाती है. यही परिस्थिति स्वतंत्रता और भ्रातृत्व दोनों की दुश्मन है.
प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि कुछ भले मानुष इस बात से शर्मिंदा हैं कि लोग आर्थिक विकास को नहीं समझ रहे हैं, तो कुछ लोग इसलिए डरे हुए हैं कि बीजेपी के साथ उनके बीच के भी बहुत से लोग हैं. वास्तव में यह लोकतंत्र की चुनौती है.
“भारत बदल गया है” का शोर निश्चित रूप से गलतफहमी है, मगर ऐसा नहीं है कि लोग ठगे जा रहे हों या बुराई लोकतंत्र का हिस्सा है. सच यह है कि सीएए या पंजाब के किसानों का आंदोलन या कभी-कभार मिली चुनावी जीत के मौके पर विपक्ष अपने महिमामंडन में जुट जाता है.
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि 2014 में भारतीय अर्थव्यवस्था आखिरकार चीन के मुकाबले अधिक तेज गति से बढ़नी शुरू हुई जो 2018 तक जारी रही. उम्मीद थी कि 2020 तक बनी रहने वाली थी, लेकिन अचानक स्थिति बदल गयी. आईएमएफ का कहना है कि 2010-20 के दशक में चीन की अर्थव्यवस्था 146 फीसदी बढ़ी, जबकि भारत की 52 फीसदी. अमेरिका ने इस दौरान 39 फीसदी की बढ़ोतरी देखी. 13 देशों के समूह में भारत तीसरे स्थान पर रहा जिसे बुरा नहीं कहा जा सकता. मगर, छोटी अर्थव्यवस्था वाले देशों में बांग्लादेश ने चीन से बेहतर प्रदर्शन किया, जबकि वियतनाम ने चीन के समान ही आर्थिक विकास की गति रखी.
नाइनन कहते हैं कि मार्क्स ने सही आकलन किया था कि तेज आर्थिक विकास के बीच समय-समय पर संकट भी आया करते हैं. वास्तविकता यह है कि भारत समेत पूरी दुनिया महामारी के बाद पुनर्निर्माण के दौर से गुजर रही है. कोई नहीं जानता कि बढ़ती असमानता के बीच वॉलस्ट्रीट पर कब्जे के आंदोलन के 9 साल बाद कब कहां ज्वालामुखी फट पड़े. मार्क्स की आशंका के अनुरूप ही कोरोना काल में श्रमिक बेरोजगार हुए हैं, वेतन घटे हैं. जबकि, शीर्ष के 1 प्रतिशत दौलतमंद और तंदरूस्त हुए हैं. सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में इसका जवाब देने की ताकत है?
नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने असमानता और जलवायु परिवर्तन को मुख्य एजेंडा बनाया है. भारत को भी इस पर ध्यान देना होगा. अब एशिया में सत्ता संतुलन नये सिरे से पैदा हो रहा है. 2010 में भारत से 3.5 गुणा बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था चीन. अब यह 5.7 गुणा बड़ा हो चुका है. जल्द ही अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा चीन. अब से 10 साल बाद दुनिया बिल्कुल अलग दिखेगी.
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि कृषि कानूनों का विरोध जनांदोलन बन चुका है. पंजाब, हरियाणा में इसकी जड़े हैं. इस विरोध प्रदर्शन ने कृषि और इसके भविष्य की चिंता को चर्चा के केंद्र में ला दिया है. कृषि कानूनों का समर्थन करने वाली मीडिया ने आंदोलन के तरीकों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि इससे आम लोगों को मुश्किलें हो रही हैं. मगर, चिंता की बात है आंदोलनकारियों के बीच विरोध का स्वरूप. इन कानूनों से कृषि और उद्योगों के बीच नजदीकी आएगी और कॉरपोरेट खेती से जुड़ेंगे. लेकिन, किसानों को डर है कि इस प्रक्रिया में उन्हें बाजार की ताकतों के सामने दया का पात्र बना दिया जाएगा. इस वजह से भारतीय उद्योगपतियों के बारे में आम धारणा के अनुरूप वे विरोध पर अड़ गए हैं.
लेखक का मानना है कि निजी पूंजी को जिस तरीके से कॉरपोरेट इस्तेमाल करते हैं यह अहम है. कृषि देश में सबसे बड़ा क्षेत्र है जहां निवेशक निवेश करते हैं और उन्हें शासन का सहयोग मिलता है. लेकिन खेती इससे अलग है और यह निजी होती है. कॉरपोरेट का जो अंध विरोध दिख रहा है उसे देखते हुए पूंजीवाद की भूमिका अहम हो जाती है.
समस्या यह है कि भारत में हर कदम पर निजी क्षेत्र को सरकार के सहयोग की आवश्यकता दिखती है. चुनाव के दौरान कॉरपोरेट फंडिंग भी होती है. भारतीय पूंजीवाद को भी सुधार की जरूरत है. पसंदीदा कंपनियों को फायदा पहुंचाते हुए सरकार न दिखे, यह भी जरूरी है. भारत को और अधिक पूंजीवाद की आवश्यकता है- रिफॉर्म्ड कैपिटलिज्म.
चेतन भगत ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए अनोखा सुझाव दिया है. उन्होंने लिखा है कि हर भारतीय को एक साल की वैधता वाली 5 हजार मूल्य की करंसी दी जाए. इससे हर परिवार के पास 20 हजार रुपये आएंगे. इससे बाजार में मेगा बूम पैदा होगा और अर्थव्यवस्था में रफ्तार आ जाएगी. लेखक ने इस रकम को खर्च करने का तरीका भी बताया है. आधी रकम सेवा क्षेत्र में खर्च करने की शर्त रहेगी जबकि शेष आधी रकम भी उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च होगी.
इस नये निवेश से जो अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा, उसके बाद यह रकम लौटाना बड़ी बात नहीं होगी. अर्थव्यवस्था में बूम आने के बाद रोजगार भी बढ़ेंगे और समृद्धि आएगी. केंद्र सरकार ने कोरोना काल में कई स्टीमुलस पैकेज दिए हैं. एक और प्रोत्साहन योजना देकर सरकार 2021 को सबके लिए हैप्पी न्यू ईयर बना सकती है.
तवलीन सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि ‘नए इंडिया’ में ऐसे लोग गद्दार और राष्ट्रविरोधी माने जाते हैं, जो हिंदुस्तान में मुसलमान और हिंदू की जान ढूंढते हैं या फिर कहते हैं ‘तुलसी और कबीर, जायसी जैसे पीर फकीर, जहां थे मोमिन, गालिब, मीर’. तवलीन लिखती हैं कि हिन्दुत्व को हथियार बनाकर उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया, जिन्होंने मोदी और भारतीय जनता पार्टी के साथ असहमति जताई. पिछले साल की शुरुआत नागरिकता कानून के विरोध से हुई थी, यह साल किसानों के आंदोलन के बीच आया है. तब आंदोलनकारियों को किराये का जिहादी करार दिया गया था, अब आंदोलनकारियों को खालिस्तानी बताया जा रहा है.
मुसलमानों को गालियां देने की शुरू हुई परिपार्टी से बीजेपी को भले राजनीतिक फायदा हो, बंगाल का चुनाव भी वे जीत जाएं, लेकिन इससे देश को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी. अंत में लेखिका कटाक्ष करती हैं कि नरेंद्र मोदी ने जिस परिवर्तन का वादा किया था, उसे उन्होंने 2020 में लाकर दिखा दिया.
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