advertisement
टीएन नायनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि अर्थशास्त्री लगातार आर्थिक विकास की भविष्यवाणियों की समीक्षा कर रहे हैं. ज्यादातर का मानना है कि अर्थव्यवस्था दो साल पहले वाली स्थिति में आ जाएगी. यहां से तेज आर्थिक विकास की राह पर चलेगा भारत या फिर बीच रास्ते में निराशा का सामना करना पड़ेगा, यह देखना महत्वपूर्ण है. इसका उत्तर हासिल करने के लिए हाल में हुए विकास की तह में जाना होगा.
कोविड हमले से पहले ही भारत का आर्थिक विकास मोदी के शासन काल में अधिकतम 8 फीसदी से न्यूनतम 4 फीसदी तक पहुंच गया था. निश्चित पूंजी निवेश के मामले में हाल और भी बुरा रहा. यह तीन साल पहले के स्तर 8.7 फीसदी पर गया. सार्वजनिक कर्ज दो तिहाई बढ़कर जीडीपी का 90 फीसदी हो चुका है.
ऐसे में खर्च के वर्तमान स्तर को बनाए रखना चुनौती है. अगर उपभोग धीरे-धीरे बढ़ता है तो निवेश आकर्षित करने के स्तर तक पहुंचने में दो से तीन साल लग जाएंगे. घरेलू मांग घटने की स्थिति में हम निर्यात की मांग को बढ़ा सकते हैं. चीन से दूर रहते हुए पश्चिम की अर्थव्यवस्था राह तलाश रही है और इसकी गति भी तेज है. यह साफ नहीं है कि आत्मनिर्भर भारत इसमें कितना मददगार होगा. फिर भी घरेलू बाजार को बढ़ाना भी जरूरी है.
कोई नहीं चाहता कि भारत लैटिन अमेरिका बने. गरीबी और असमान आय के मामले में दोनों की स्थिति एक जैसी होती जा रही है. स्कॉट फिजगेराल्ड के उपन्यास में नीति निर्माताओं ने एक टर्म इजाद किया है ग्रेट गेट्सबाई कर्व. इस उपन्यास में अमेरिका में असमानता का जिक्र है.
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि 26 मई को नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर किसी ने भी पीएम मोदी की तारीफ नहीं की, न ही कहीं जश्न मनाया गया. कोरोना में पिछले साल के मुकाबले यह अलग स्थिति रही. कट्टर प्रशंसक भी कहने लगे कि जब नेतृत्व दिखाने की सबसे ज्यादा जरूरत थी, प्रधानमंत्री गायब हो गए. ऑक्सीजन की कमी से मौत, गंगा किनारे की रेतीली कब्रें जब दुनिया देख रही थी तब भी प्रधानमंत्री नहीं दिखे. लेखिका का मानना है कि मोदी के लिए जितना बुरा समय दिखा है, उतना दुनिया के किसी राजनेता के लिए नहीं दिखा. लोकप्रियता में काफी गिरावट आयी है.
लेखिका ध्यान दिलाती हैं कि किसानों का काला दिवस भी 26 मई को मनाया गया. मोदी सरकार की यह जिम्मेदारी है कि इस आंदोलन को वे खत्म कराए. यह काम कृषि कानून वापस लेकर ही हो सकता है. वजह यह है कि किसानों को सरकार पर विश्वास नहीं रहा. इस विश्वास को दोबारा हासिल किए बगैर मोदी के बुरे दिन खत्म होते नहीं दिख रहे. कोरोना महामारी से निपटने का इकलौता समाधान है टीकाकरण. लेकिन, इतने टीके आएंगे कहां से? मोदी सरकार ने जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी. लेकिन, अब देर हो चुकी है. लोग पूछ रहे हैं कि बताइए ‘प्रधानमंत्री जी, काफिला क्यों लुटा’?
हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने लिखा है कि दुनिया में बिग टेक और सरकारों के बीच तकरार चौंकाने वाली घटना नहीं है. दोनों सूचना पर नियंत्रण चाहते हैं और ताकतवर बने रहना चाहते हैं. सच्चाई यह है कि बिग टेक वाणिज्यिक ताकत है, जो यूजर की सूचना और प्रभाव का कारोबार कर रहा है. ज्यादातर तकनीकी फर्म्स परंपरागत मीडिया मॉडल से कमाई कर रहे हैं जबकि उनकी जिम्मेदारी किसी मीडिया कंपनी की तरह भी नहीं है.
सत्ता संरचना में सूचना महत्वपूर्ण होता है और इसी के लिए सरकार और बिग टेक के बीच लड़ाई है. लेखक का कहना है कि यह साफ हो चुका है कि सूचना का अपने-अपने नैरेटिव के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है. कंपनियां सबसे पहले इस बात को जान जाती हैं. वह अपना यूजर बेस बढ़ाने, यूजर को व्यस्त रखने पर ध्यान देती है और यूजर डाटा पर नियंत्रण रखती हैं. सरकारें बिग टेक पर भी नियंत्रण रखना चाहती हैं. नियामक ऐसे होने चाहिए जिनसे यूजर की निजता का बचाव हो. भारत समेत ज्यादातर देशों में यह मौलिक अधिकार है.
पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि कोरोना की दूसरी लहर सबसे बड़ा संकट नहीं है, सबसे बड़ा संकट अभी आने वाला है. एनएसओ के हवाले से चिदंबरम बताते हैं कि 2020-21 में यानी महामारी के पहले साल में जीडीपी 4 फीसदी की दर से बढ़ी. 2021-22 में जीडीपी बढ़ेगी या स्थिर रहेगी- इसे लेकर कोई उत्साहवर्धक अनुमान नहीं है. अच्छा हो अगर हम इस वृद्धि दर को शून्य मानकर अच्छे की उम्मीद रखें.
मई 2021 में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 23 करोड़ लोग 375 रुपये रोजाना मजदूरी वाली गरीबी की दहलीज पर पहुंच चुके हैं. 2005 से 2015 के दौरान 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर हुए थे. इससे ठीक उलट स्थिति पैदा हो चुकी है. मजबूत अर्थव्यवस्था के प्रमुख संकेतकों के नीचे जाने की वजह से आजीविका बुरी तरह प्रभावित होने वाली है. ऐसी स्थिति में यह ज्यादा बड़ी आपदा है जिसका हमें 2021-22 में इंतजार है.
शोभा डे ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में बुद्ध पूर्णिमा के दिन चांद का दीदार करते हुए जो फर्क इस वर्ष महसूस किया, उसकी वजह बताया है कि यह यास तूफान नहीं, बल्कि कोरोना की महामारी है. नौकायन करते मछुआरों के पास मौसम समझ लेने का जो सदियों पुराना अनुभव है, वह आज के विज्ञान की दुनिया में भी विशेष बना हुआ है. शोभा का मानना है कि दूसरी कोरोना वेव में मुंबई अगर कम भयावह बना रह सका है तो इसकी वजह महामारी से लड़ पाने वाला ‘मुंबई मॉडल’ है.
शोभा डे कहती हैं कि मुंबई से ओसाका की तुलना कर छाती पीटने की कोई जरूरत नहीं है. देश के बाकी हिस्सों की तस्वीर देखनी हो तो बरखा दत्त की साहसिक स्टोरी देखें जिन्हें पेड एजेंट, देश विरोधी, भारत विरोधी तक करार दिया गया. बरखा ने दिखाया है कि लोगों ने बिस्तर और आईसीयू नहीं मिलने की वजह से असहाय होकर अपने प्रियजनों को खोया है. वह नदी किनारे लाशों का सच सामने लेकर आयी हैं. शोभा लिखती हैं कि यह खुला सच है कि बुरे वक्त में केंद्रीय नेतृत्व ने देश को फेल किया है. इतिहास उन्हें याद रखेगा. यह समय सच का सामना करने का है. भले ही यह सच कितना ही बुरा क्यों ना हो.
जीनेप टुफेक्सी द न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखते हैं कि दुनिया के नेताओं को यह तय करना है कि वह हर्ड इम्युनिटी के जरिए कोरोना संक्रमण का मुकाबला करे या फिर अधिकतम आबादी को वैक्सीन की डोज देकर यह काम करे. मगर, यह निर्णय भी जल्द लेना होगा क्योंकि वक्त बहुत कम है. सबसे पहले भारत में कोरोना वायरस के जिस बी.1.617.2 वेरिएंट की पहचान हुई है, उस बारे में मिल रहे सबूत डराने वाले हैं. यह ब्रिटेन में दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार बी.1.1.7 वेरिएंट से भी ज्यादा तेज संक्रमित होने वाला और जानलेवा है. दुनिया में नए वेरिएंट का आतंक तेजी से बढ़ रहा है.
हालांकि, प्राप्त आंकड़े प्रारंभिक हैं और पक्के तौर पर अभी कुछ कह पाना इतना आसान नहीं है. ब्रिटेन में शनिवार और इससे पहले गुरुवार को बी.1.1.7 के संक्रमण को लेकर जारी रिपोर्ट में इसे पहले के वेरिएंट से खतरनाक बताया गया है.
टुफेक्सी लिखती हैं कि बगैर वैक्सीन के भी कोविड की महामारी से बचे रहे ताइवान या वियतनाम जैसे देश के लोगों के लिए नया वेरिएंट खतरा है. पहले वाला वेरिएंट जब 40 हजार लोगों संक्रमित कर लेता है, उसी समय में नया वेरिएंट 5 लाख 24 हजार लोगों संक्रमित कर सकता है. संक्रमण की यह रफ्तार पहले से 13 गुणा ज्यादा है. दुनिया के स्तर पर लोगों को वैक्सीन देने के लिए तुरंत रणनीति की आवश्यकता है. कोई वैक्सीन नहीं देने से बेहतर है कि जो वैक्सीन उपलब्ध है वह दिया जाए. इसके लिए वैक्सीन के उत्पादन और वितरण को तुरंत ठीक करने की पहल करनी होगी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)