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ये यूपी है. यहां पुलिस क्रिमिनल्स का हाफ एनकाउंटर करती है और क्रिमिनल्स पुलिस वालों को सीधे मौत की नींद सुला देते हैं. यहां उन्नाव के बीजेपी एमएलए कुलदीप सेंगर के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा लिखाने के लिये लड़की को आत्मदाह करना पड़ता है. यहां कानपुर के माफिया विकास दुबे की इतनी हैसियत है कि वो आठ-आठ पुलिस वालों को दस मिनट में मौत के घाट उतार सकता है.
तारीख 12 अक्टूबर, दिन शनिवार, साल 2001...अचानक खबर आई कि उत्तर प्रदेश श्रम संविदा बोर्ड के अध्यक्ष संतोष शुक्ला की शिवली कोतवाली के अंदर घुस कर हत्या कर दी गई है, एक दो या तीन नहीं बल्कि छाती छलनी कर दी गई है गोलियों से, संतोष शुक्ला की . सिरफिरे और दबंग गुंडे विकास दुबे ने दरोगा के दफ्तर में किया था ये कत्ल.
यूपी में उस वक्त राजनाथ सिंह की सरकार थी. प्रेमलता कटियार, सतीश महाना, बालचंद्र मिश्र जैसे तमाम मंत्री थाने की खून सनी जमीन पर खड़े डरी सहमी आंखों से अफसोस जता रहे थे. प्रेमलता तो फूट फूट कर रो रही थीं. मगर विकास दुबे का कुछ नहीं हुआ. थाने में राज्यमंत्री के सरेआम कत्ल के केस में विकास को बरी कर दिया गया. किसी पुलिस वाले की औकात नहीं थी जो उसके खिलाफ गवाही देता. भला कैसे देता. विकास दुबे के इलाके में अगर रहना है तो विकास विकास कहना है, हर जुर्म ज्यादती सहना है, मुंह से उफ तक नहीं कहना है, सत्ता कोई भी रही हो विकास ने हमेशा संरक्षण का चोला पहना है.
ये वही विकास दुबे है जिसे मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने संरक्षण दिया. ये वही विकास दुबे है जिसे अखिलेश यादव की सरकार ने जिला पंचायत सदस्य बनवाया, ये वही विकास दुबे है जिसने बीजेपी के ही मंत्री की हत्या की और बीजेपी के ही नेताओं ने उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ बनाये रखा. यूपी के इस संरक्षण सिस्टम को समझिये जरा. बीस साल बाद भी बीजेपी की सरकारें बीजेपी के मंत्री के इस दुर्दांत हत्यारे को सजा तक नहीं दिला पाईं. विकास दुबे के पैर में गैंगरिन हो गया लेकिन विकास की क्रिमिनल हिस्ट्री के कदम चले नहीं, बल्कि दौड़ते रहे.
मुझे अच्छी तरह याद है. साल 2008 की बात है. यूपी में मायावती की सरकार थी. कानपुर में तैनात तेज तर्रार आईजी आनंद स्वरूप ने हिस्ट्रीशीटर्स का एक सम्मेलन बुलाया था. विकास दुबे उस सम्मेलन में नीले रंग का ब्लेजर पहन कर मौजूद था. आनंद स्वरूप ने स्टेज पर विकास दुबे की हिस्ट्री शीट फाड़ कर फेंकी थी. ये कहते हुए कि अब एक अर्सा हो गया है, जब विकास ने कोई अपराध नहीं किया है, लिहाजा अब विकास पर निगरानी की कोई जरूरत नहीं है. जिसकी हिस्ट्री शीट फाड़ी गई थी उस विकास दुबे का जलवा योगी सरकार में बदस्तूर कायम था. उस जलवे का ही नतीजा है कि उसने पुलिस में बैठे मुखबिरों की दम पर आठ पुलिस वालों का कत्ल कर डाला.
अरे तो कैसे विकास दुबे की हिम्मत थी कि उसने बिकरू गांव को पुलिस वालों की कब्रगाह बना दिया. क्यों यूपी के कानपुर में ही दस दिन पहले माफिया पिंटू सेंगर का कत्ल कर के कातिल फरार हो गये. कैसे अमरोहा में दो पुलिस वालों का कत्ल कर के चार अपराधी जेल वैन से भाग गये. सच है ऐसे शहीदों को सलामी दी जानी चाहिये, लेकिन उस सिस्टम के पुर्जों की जंग कैसे खरोंची जाये जो सिर्फ चिल्लाती है कि गोली का जवाब गोली से दिया जायेगा. क्या यह कहना गलत है कि गोली का जवाब गोली से खुद अपराधी दे रहे हैं.
आज ऑपरेशन ददुआ याद आ गया. जब माया सरकार ने ददुआ को मार कर उसका 40 साल का साम्राज्य उखाड़ फेंका था. ये वही ददुआ था जिसे हर सरकार ने संरक्षण दिया था. ददुआ को मार कर लौट रही पुलिस टीम पर हमला कर के ददुआ के चेले ठोकिया डकैत ने आधा दर्जन से ज्यादा पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया था. कहानी फिर वही है, बस माफिया बदल गया है, तब ददुआ नाम था, अब नाम है विकास दुबे, तब माया सरकार थी और अब सरकार है योगी आदित्यनाथ की. विकास हर बार पकड़ा जाता है और फिर छूट जाता है, उम्रकैद की सजा है उसको, लेकिन पुलिस, सरकार, नेता तक ऐसी कौन सी कमजोर कड़ियां हैं, जिनके सहारे हर बार विकास बाहर आ जाता है. कहीं तो लूप होल है, कहीं तो कोई झोल है. सिर्फ ढिंढोरा पीटा जायेगा, हर बार एक ऐलान होगा कि पुलिस पर हमला करने वाले पाताललोक से ढूंढ कर निकाले जायेंगे. सच है हर बार निकाले भी गये, कई मारे भी गये, लेकिन सवाल ये नहीं है कि मारे गये, सवाल तो ये है कि कैसे माना जाये कि यूपी में अपराधी या तो जेल में हैं या यूपी से बाहर भाग गये हैं. क्या सिर्फ अफसरों का प्रचार तंत्र महिमा मंडन में मशगूल है और महिमा असल में खोखली है.
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