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Manipur Violence: 'कब्जे की जंग' में मैतेई-कुकी में गहरी होती अविश्वास की खाई

संरक्षित वन भूमि को लेकर जारी किया गया सरकारी आदेश सरकार और आदिवासियों के बीच विवाद की जड़ है.

रोहिन कुमार
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>Manipur Violence: अनुच्छेद 355 लागू, केंद्र ने अपने हाथ में ली कानून-व्यवस्था</p></div>
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Manipur Violence: अनुच्छेद 355 लागू, केंद्र ने अपने हाथ में ली कानून-व्यवस्था

(फोटो-PTI)

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ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर (ATSUM) ने बुधवार को मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) श्रेणी में शामिल करने की मांग के खिलाफ आदिवासी एकजुटता मार्च (tribal solidarity march) का आयोजन किया था, जिसके तुरंत बाद चुराचांदपुर जिले और आसपास के इलाकों में हिंसा भड़क उठी. मैतेई और कुकी दोनों ने एक दूसरे पर हिंसा का आरोप लगाया है.

राज्य के 8 जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया है और प्रदेश में अगले पांच दिनों के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं. इसके साथ ही प्रदेश में संविधान का आर्टिक 355 लागू कर दिया गया है, जो केंद्र सरकार को राज्य की कानून-व्यवस्था को संभालने और उसे सुनिश्चित करने का अधिकार देता है.

ATSUM के एकजुटता मार्च से कुछ दिन पहले, चुराचांदपुर के लमका कस्बे में भी हिंसा भड़की थी. यहां मुख्यमंत्री एन बीरेन एक ओपन जिम का उद्घाटन करने वाले थे. हालांकि, बातचीत के मुख्य विषय हिंसा और राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति के इर्द-गिर्द हैं, लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस मुद्दे की जड़ में वास्तव में कुछ और ही है.

कई प्रशासनिक कार्रवाइयों के माध्यम से मणिपुर में अविश्वास और घृणा के बीज इतने गहरे बोए गए हैं कि भले ही कानून और व्यवस्था (लॉ एंड ऑर्डर) अपना सहारा ले ले, इसके बावजूद भी एक समाज के तौर पर समुदायों के शांतिपूर्ण अस्तित्व को बहाल करना कठिन होगा.

जमीन विवाद के संदर्भ में

एक घर जिसे आप बड़े ही प्यार, देखभाल और जुनून के साथ बनाते हैं जब आप उस पर खतरे के साये को देखते हैं तो आप घबरा जाते हैं, एकजुट हो जाते हैं और विरोध करते हैं. ऐसे समय में आपकी बेचैनी और घबराहट गुस्से में तब्दील हो जाती है. यह मामला इस हद तक पहुंच जाता है कि यह किसी भी व्यक्ति और सामूहिक, दोनों के रूप में आप में सबसे खराब स्थिति को दर्शाता है.

मणिपुर के चुराचांदपुर जिले ने ठीक कुछ ऐसा ही अनुभव किया है.

रिपोर्ट्स के अनुसार, चुराचांदपुर के डिप्टी कमिश्नर ने इस साल फरवरी के मध्य में चुराचांदपुर और नोनी जिलों की सीमा पर स्थित कई गांवों (लगभग 38) में 'अवैध प्रवासियों' को पकड़ने के लिए एक पहचान अभियान चलाने का आदेश दिया था.

इस आदेश के बाद जल्द ही मणिपुर के वन विभाग ने यह आरोप लगाते हुए कि गांव की बस्ती ने चुराचांदपुर-खोपुम संरक्षित क्षेत्र का अतिक्रमण किया था, उन्होंने सुरक्षा बलों के साथ चुराचंदपुर में कुकी आदिवासी गांव के सोंगजांग के निवासियों को बेदखल करना शुरू कर दिया. जैसे ही नोटिस की खबर और सामग्री आस-पास के गांवों तक पहुंची, आदिवासियों ने एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें प्रदर्शनकारियों के साथ-साथ सुरक्षा बल के कई लोगों को चोटें पहुंची.

संरक्षित वन भूमि को लेकर जारी किया गया सरकारी आदेश सरकार और आदिवासियों के बीच विवाद की मुख्य जड़ है. सरकार जिसके लिए 'अतिक्रमण' शब्द का उपयोग करती है, उसे आदिवासी निवासी 'बस्ती' (निवास स्थल) कहते हैं.

सरकार मणिपुर वन नियम, 2021 के नियम 73 का हवाला देती है, जो वन अधिकारियों को वन भूमि पर किसी भी अतिक्रमण / अतिचार को बेदखल करने का अधिकार देता है. इसके अतिरिक्त, यह विशेष रूप से यह भी निर्देशित करता है कि अतिक्रमणकारियों को बिना सूचना के बेदखल किया जा सकता है.

आदिवासियों का क्या कहना है?

वहीं दूसरी ओर इसके विपरीत, आदिवासी सदस्य भारतीय वन अधिनियम, 1927, धारा 29 का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है कि भूमि पर निवास करने वाले निजी लोगों के अधिकारों की जांच किए बिना आरक्षित वन घोषित करने की कोई अधिसूचना (नोटिफिकेशन) नहीं बनाई जाएगी. इस तरह का नोटिफिकेशन जारी करने से पहले राज्य सरकार को एक सर्वे करने की आवश्यकता होती है.

मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 भी यह निर्देशित करता है कि संबंधित अथॉरिटी को स्थानांतरण और पुनर्वास के लिए पात्र ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए जो इसके लिए पात्र हैं और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि पुनर्वास के स्थल पर इनके लिए बुनियादी स्वतंत्रता की गारंटी है.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, धारा (3) (1) (g) भी स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित करती है कि किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति को उसकी भूमि से गलत तरीके से बेदखल करना या किसी भी भूमि पर उनके अधिकारों के उपभोग में हस्तक्षेप करना गैरकानूनी है, इस एक्ट के तहत इस तरह के कृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं और दंडनीय हैं.

एक घटना में सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे केवल 2021 में स्थापित या बसाई गई नई बस्ती को बेदखल कर रहे हैं, जोकि मणिपुर के वन संरक्षण कानूनों का भी उल्लंघन है. आदिवासियों का तर्क है कि वे पिछले कई वर्षों से इन गांवों में रह रहे हैं और सरकार ने यहां से हमें हटाने का जो नोटिस जारी किया है वह कुछ और नहीं बल्कि हमारी जमीन हड़पने और हमें हमारी पुश्तैनी जमीन को हड़पने का प्रयास है. इसलिए, यह सरकार की ओर से यह गैरकानूनी कृत्य है.
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ऐतिहासिक अन्याय की याद दिलाती है वर्तमान हिंसा

सरकार द्वारा जिन जगहों को खाली कराने का नोटिस जारी किया गया है उसमें आदिवासी भूमि (विशेष रूप से कुकी और नागा के स्वामित्व वाली भूमि) का एक बड़ा हिस्सा है. ये आदिवासी बहुल पहाड़ी क्षेत्र हैं, जहां अधिकांश समुदाय जंगल में रहते हैं.

इन आदिवासियों के बहुत ही बुनियादी प्रश्न हैं जैसे कि अगर इस तरह का कोई फैसला किया जाना था तो उनसे (आदिवासियों से) सलाह क्यों नहीं ली गई? पहले सूचना देना, सामुदायिक भागीदारी और पारस्परिक रूप से सहमत पुनर्वास योजना की उचित प्रक्रियाएं कहां हैं? वनों पर निर्भर रहने वाली आबादी या समुदाय ऐसे वनों के संरक्षण में किस प्रकार बाधक बन जाती है?

इस तथ्य के बावजूद कि इन प्रश्नों में मासूमियत और भावनाओं का विशेष तड़का हो सकता है लेकिन इनसे विकास और सत्ता के पीछे मौलिक विचार को चुनौती दी जाती है. यह एक ऐसा मामला है जहां सरल प्रश्नों के उत्तर देना सबसे कठिन होता है. इसलिए उन्हें बंद करने या चुप्प कराने का 'सबसे आसान' तरीका लाठीचार्ज, गिरफ्तारी और अवैध करार करने जैसे क्रूर उपाय हैं. जनता के साथ बातचीत करने या उनका विश्वास हासिल करने के बजाय मणिपुर सरकार बस यही सब कर रही है.

एक बात जो समझ में नहीं आ रही, वह यह है कि ये आदिवासियों की एक नई और युवा पीढ़ी है जो सामाजिक अशांति और संघर्ष की कहानियां सुनकर बड़ी हुई है. इनके पूर्वजों को जमीन हड़पने, जबरन विस्थापन, पहाड़ियों के शोषण और सशस्त्र संघर्ष का शिकार होना पड़ा है. इसलिए 2023 की सरकार जब बिना सलाह या परामर्श के नोटिस जारी करती है तो यह बात चिंताओं और आशंकाओं को ट्रिगर करती है, इसके साथ ही अनिश्चितताओं को उजागर करती है. वे अतीत के अन्यायों के साथ ऐसे मामलों को जोड़ने लगते हैं और उससे समानता बनाना शुरु कर देते हैं और अतीत की जैसी ही मांगें करने लगते हैं. उन मांगों यह शामिल है; हमारी भी बातें सुनी जाएं इसका अधिकार मिले, टेबल पर या वार्ता के दौरान बराबरी का दर्जा मिले और निर्णय लेने में हमारी भी हिस्सेदारी हो.

यह ध्यान देने योग्य है कि मैतेई समूह से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री एन बीरेन पर इन दोनों अल्पसंख्यक समूहों को हाशिये पर धकेलने का आरोप है. मणिपुर हाई कोर्ट ने मणिपुर सरकार को निर्देश दिया कि वह मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की सिफारिश करे, इससे साम्प्रदायिक भेदभाव की आशंका अब और भी बढ़ गई है. कुकी और नागा समूह मैतेई को एसटी का दर्जा देने के सख्त खिलाफ हैं.

यूनाइटेड नागा काउंसिल, मणिपुर (UNC) और कुकी इंपी मणिपुर (KIM) ने कोर्ट के निर्देश पर सख्त आपत्ति जताई है, जिसमें कहा गया है कि "मणिपुर का मैतेई समुदाय भारत का एक विकसित समुदाय है." उनकी भाषा (मणिपुरी (मीटिलोन)) भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है. इन सभी राजनीतिक घटनाक्रमों की जो टाइमिंग रही है उसने प्रशासनिक अलगाववाद की चिंताओं को भी बढ़ा दिया है.

विरोध प्रदर्शनों को अवैध बनाने का प्रयास

पिछले महीने में, सत्तारूढ़ बीजेपी के कम से कम चार विधायकों ने अपने प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दे दिया, लेकिन इसके बावजूद भी मुख्यमंत्री ने प्रदर्शनकारियों को "अवैध अप्रवासी" या "म्यांमारियों" के रूप में संदर्भित करना जारी रखा है. यहां तक कि बीजेपी की सहयोगी कुकी पीपुल्स अलायंस ने भी सीएम के बयानों और टिप्पणियों की आलोचना की है और उन्हें सांप्रदायिक स्तर पर कुकी के खिलाफ पक्षपाती बताया है.

इस बिंदु पर न केवल यह समाप्त हो गया, बल्कि सरकार ने दो उग्रवादी समूहों (कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन और यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट) के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन्स (SoO) को रद्द करने का भी फैसला किया. यह राज्य, केंद्र और उग्रवादी समूहों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता था.

युद्धविराम समाप्त करने का बेतुका तर्क यह था कि इन उग्रवादी समूहों द्वारा विरोध को बढ़ावा दिया गया था. प्रदर्शनकारियों ने इन आरोपों का पूरी तरह से खंडन किया है और कहा है कि यह लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों को अवैध और कमजोर बनाने के प्रयास है.

इस मामले ने सशस्त्र विद्रोह की आशंकाओं को फिर से जन्म दिया है और समुदायों को इस सवाल का जवाब ढूढनें के लिए छोड़ दिया है कि क्या 'डबल इंजन' वाली बीजेपी सरकार के 'अच्छे दिन' का यही मतलब था?

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