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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) ने लोकसभा (Lok Sabha) में 11 अगस्त को भारतीय न्याय संहिता (BNS) विधेयक, 2023 को पेश किया जोकि IPC (1860) जैसे औपनिवेशिक कानून की जगह लाया गया है. IPC यानी भारतीय दंड संहिता भारत में अपराधों को परिभाषित करती है, और उनके लिए सजा तय करती है.
अमित शाह ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1872 को क्रमशः भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 और भारतीय साक्ष्य (BS) विधेयक, 2023 से बदलने के लिए दो और विधेयक भी पेश किए.
लेकिन प्रस्तावित BNS में IPC की धारा 377 ("अप्राकृतिक अपराध") शामिल नहीं है जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि यह अब वैध नहीं है. धारा 377 "किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति के आदेश के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाने" को अपराध बताती थी.
जबकि, धारा 377 IPC में अब भी मौजूद है लेकिन सहमति से दो बालिगों के बीच गे सेक्स को अपराध मानने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
हालांकि, द क्विंट ने ऐसे कई वकीलों से बातचीत की, जिनका मानना है कि विधेयक में धारा 377 की गैरमौजूदगी से यौन उत्पीड़न के शिकार बालिग पुरुषों को कानून की मदद नहीं मिल पाएगी.
IPC की धारा 377 दो बालिगों के बीच सहमति से प्राइवेट सेक्सुअल एक्ट को अपराध मानती है. बेस्टिएलिटी (पशु और इनसान के बीच यौन संबंध) के अलावा इसके दायरे में किसी भी ऐसे जेंडर के लोगों के बीच सेक्सुअल एक्ट आता है जोकि हेट्रोसेक्सुअल यानी विषलैंगिक पेनाइल-वेजाइनल सेक्स नहीं है. चाहे, वे दो लोग अपनी मर्जी से इस एक्ट में शामिल हों, तो भी!
1860 में IPC के लागू होने के बाद से धारा 377 इसमें अपने वर्तमान रूप में मौजूद है. हमने जिन बातों का जिक्र ऊपर किया, उसके अलावा इस धारा में हेट्रोसेक्सुअल कपल्स के बीच ओरल और एनल सेक्स भी शामिल है. इन्हें होमोसेक्सुअल और ट्रांससेक्सुअल लोगों के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जाता रहा है, वह भी उनका उत्पीड़न करने के मकसद से.
दशकों से धारा 377 पर बहस की जाती रही है. LGBTQ समुदाय यह दलीद देता रहा है कि यह धारा भेदभाव करती है. 6 सितंबर, 2018 को नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दो बालिगों (चाहे उनका जेंडर कोई भी हो) के बीच सहमति से सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया और धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द कर दिया था. तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने यह फैसला सुनाया था.
यह फैसला सुनाते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि धारा के दूसरे प्रावधान, जो जानवरों और बच्चों के साथ अप्राकृतिक सेक्स से संबंधित हैं, अब भी प्रभावी रहेंगे.
राजमाने का कहना है, "सरकार मानती है कि लोगों में विविधता है लेकिन उन सबकी हिफाजत को लेकर लापरवाह है."
प्रस्तावित BNS 2023 के अनुसार, अध्याय V में सूचीबद्ध यौन अपराधों का खंड "महिलाओं और बच्चों के साथ अपराध" तक सीमित है.
BNS में खंड 63 (बलात्कार) लिंग आधारित है - जिसका अर्थ है कि यह एक पुरुष द्वारा एक महिला के साथ किया गया है.
"जो कोई भी, उप-धारा (2) (वैवाहिक बलात्कार) में दिए गए मामलों को छोड़कर, बलात्कार करेगा, उसे एक अवधि के लिए कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा जो दस वर्ष से कम नहीं होगा, लेकिन जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है, और जुर्माना भी लगाया जाएगा," विधेयक में कहा गया है.
सुप्रीम कोर्ट की वकील उज्जैनी चटर्जी द क्विंट से कहती हैं, "एपेक्स कोर्ट ने धारा 377 के तहत केवल एक ही जेंडर के दो बालिगों के बीच सहमति से सेक्स को रद्द किया था. लेकिन यहां हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह धारा अभी भी 'पुरुष, महिला या जानवरों' को हिंसा के यौन कृत्यों से बचाती है."
उनका कहना है कि अदालत ने यौन अल्पसंख्यकों को शामिल करने और उनकी जरूरतों को समझने के लिए धारा 377 को रद्द किया था.
BNS 2023 में बलात्कार/यौन उत्पीड़न के एक अपराधी को "पुरुष" और पीड़ित को "महिला" का जेंडर्ड कोनोटेशन यानी लिंग आधारित अर्थ दिया गया है.
उज्जैनी का कहना है कि, यह "पितृसत्तात्मक" और "अभिमानी" सोच है कि पुरुष कमजोर स्थिति में नहीं हो सकते.
बेंगलुरु के स्वतंत्र रिसर्चर मिहिर राजमाने ने द क्विंट से कहा कि अगर संहिता विधेयक अपने वर्तमान स्वरूप में पास हो जाता है, तो "पुरुषों को अपने साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के लिए कोई सुरक्षा नहीं मिलेगी."
“हां, महिलाएं अक्सर यौन हिंसा की शिकार होती हैं और हाशिए पर और असुरक्षित होती हैं. लेकिन इसके साथ हम एक गैर बराबर कानून प्रणाली की रचना भी करते हैं- चूंकि तब हम क्वीर पुरुषों और ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों के साथ होने वाले अपराधों की गंभीरता और उन लोगों के दर्द को नजरंदाज कर देते हैं.” चटर्जी कहती हैं.
राजमाने का कहना है, "सरकार मानती है कि लोगों में विविधता है लेकिन उन सबकी हिफाजत को लेकर लापरवाह है."
दिल्ली की वकील मुस्कान टिबरेवाला ने द क्विंट से कहा कि विधेयक में केवल परिभाषाओं में ट्रांसजेंडर समुदाय के सदस्यों का उल्लेख है और कहीं नहीं. “यह कुछ हद तक प्रगतिशील है. लेकिन विधेयक किसी पुरुष/ट्रांसजेंडर व्यक्ति से आपराधिक कानून के तहत किसी पर मुकदमा चलाने का अधिकार छीन लेता है,'' वह कहती हैं.
“धारा 377 समलैंगिक संबंधों को मान्यता देती है. लेकिन यह विधेयक दो पुरुषों/महिलाओं के बीच इंटरकोर्स को मान्यता ही नहीं देता, बल्कि सिर्फ यह बात करता है कि एक पुरुष महिला के साथ बलात्कार कर सकता है... यह सोच हेट्रोपेट्रियाकल है (यानी जब सिस-जेंडर और हेट्रोसेक्सुअल पुरुष, महिलाओं और दूसरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन और जेंडर आइडेंटिटी वाले लोगों पर अपनी ताकत की आजमाइश करने लगें, प्रभुत्व जमाने लगें),'' वह कहती हैं.
चटर्जी के अनुसार, धारा 377 को पूरी तरह से हटा देने से अपराधी अपराध से बच जाएंगे क्योंकि वे कानून की किसी विशेष धारा के तहत नहीं आएंगे. वह कहती हैं, ''यह बहुत भ्रम पैदा करने वाला है.''
LGBTQ+ लोगों के अधिकारों की हिमायत करने वाले एडवोकेसी इनीशिएटिव यस, वी एग्जिस्ट नाम के फाउंडर जीत का सवाल है, यौन हमले के शिकार क्वीर पुरुषों के लिए ऐसे में क्या रास्ता बचता है? उन्होंने आगे कहा, “अब, अगर वे पुलिस स्टेशन जाएंगे, तो वे किस प्रावधान के तहत मामला दर्ज करेंगे? दूसरी किसी धारा में धारा 377 के जैसी सजा नहीं है."
टिबरेवाला के मुताबिक, वकीलों को मुकदमे लड़ने के लिए कानून की अन्य धाराएं इस्तेमाल करनी होंगी. “अगर बलात्कार के साथ शारीरिक हमला भी होता है, तो IPC की धारा 352 का इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन यह हमेशा हमले के साथ नहीं होता है."
चटर्जी का मानना है कि "हमें अपने फायदे के लिए अपहरण (आईपीसी की धारा 363) और शारीरिक उत्पीड़न (आईपीसी की धारा 352) जैसे मौजूदा कानूनों का इस्तेमाल करना होगा." हालांकि उनका कहना है कि "कोई सोच सकता है कि इससे सजा की गंभीरता और अपराध भी बदल जाएंगे."
राजमाने और जीत, दोनों ने कहा कि हालांकि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत सुरक्षा है, लेकिन सजा की गंभीरता उतनी नहीं है जितनी महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के लिए निर्धारित है.
राजमाने का कहना है, "धारा 377 के तहत सजा 10 साल तक की कैद है, जबकि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम में दो साल की सजा है."
सुप्रीम कोर्ट के वकील रोहिन भट्ट ने द क्विंट से कहा कि धारा 377 उन बीवियों की भी रक्षा करती है जिन्हें अपने पति के साथ ओरल या एनल इंटरकोर्स के लिए मजबूर किया जाता है.
"ऐसे कई मामले थे जब किसी औरत को उसके पति ने एनल या ओरल इंटरकोर्स के लिए मजबूर किया था. ऐसे मामले विवाह में बलात्कर के अपवाद के तौर पर संरक्षित हैं. ऐसी औरतें धारा 377 के तहत मामला दर्ज करती हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका मामला अभी भी 'अप्राकृतिक यौन संबंध' के तहत आता है.” भट्ट का कहना है.
भट्ट ने द क्विंट से कहा, "हालांकि विवाह में बलात्कार (आईपीसी धारा 375) की संवैधानिक वैधता सुप्रीम कोर्ट के सामने लंबित है, लेकिन सरकार के पास इसे खत्म करने का मौका था."
11 अगस्त को लोकसभा में तीन आपराधिक कानून विधेयक पेश करते समय, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि ये हमारे आपराधिक कानून में "औपनिवेशिक" अवशेषों से दूर जाने के लिए हैं.
मिहिर राजमाने का मानना था कि सरकार को हर जेंडर के संदर्भ में विशिष्ट अपराध निर्दिष्ट करने चाहिए. उन्होंने द क्विंट से कहा, "हमें अलग-अलग जेंडर के पीड़ित लोगों के साथ होने वाले अलग-अलग अपराधों को निर्दिष्ट और परिभाषित करना चाहिए और सभी के लिए समान सजा होनी चाहिए. मुझे लगता है कि भारत जैसे देश के लिए यह बेहतर होगा, जहां जेंडर के आधार पर गैरबराबरी कायम है."
टिबरेवाला का कहना है, इसका हल यह नहीं कि धारा 377 को हटा दिया जाए बल्कि उसे किसी ऐसे दस्तावेज से बदला जाए जिसकी भाषा अधिक "समावेशी" हो.
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