advertisement
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि उन्हें पी चिदंबरम के साथ कोई हमदर्दी नहीं है लेकिन उनके साथ जो हुआ, वह नहीं होना चाहिए था. अपने एक अनुभव के जरिए लेखिका ने बताया है कि किस तरह से उन्हें बेइज्जती सहनी पड़ी थी जब पी चिदंबरम देश के वित्तमंत्री थे. बेइज्जती की वह घटना भी भारत सरकार की ऐसी ही एजेंसियों से जुड़ी थी और उन्हें एक बेहद खौफनाक अनुभव से गुजरना पड़ा था. लेखिका का कहना है कि जिन पर आर्थिक अपराध करने का शक होता है उनके साथ एक हत्यारे से भी बदतर व्यवहार किया जाता है.
लेखिका मोदी सरकार के आला अफसरों को भी आगाह करती हैं कि आने वाले समय में उनके साथ भी ऐसा ही कुछ हो सकता है. वह मोदी सरकार को इस बात का जिम्मेदार ठहराती हैं कि कालाधन ढूंढ़ने के बहाने आर्थिक विभागों के अफसरों को बेहिसाब ताकत दे दी गयी है. ये अधिकारी मीडिया का इस्तेमाल करना सीख गये हैं. इसलिए अदालत में बेगुनाह हों या न हो चिदंबरम मीडिया की अदालत में दोषी घोषित कर दिए गये हैं.
अर्घ्य सेनगुप्ता ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में अरुण जेटली को याद करते हुए एक आलेख में लिखा है कि वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें राजनीति के साथ-साथ कानून और क्रिकेट से बेहद प्यार था. उनके जिरह की बानगी अदालत नहीं संसद भवन में देखी जा सकती है जब उनके तर्कों के सामने कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन को हथियार डालना पड़ा और उन पर महाभियोग चलाया गया. जेटली के बोलने से पहले सेन संसद को भरोसा दिला चुके थे कि उन्हें वित्तीय अनियमितता के मामले में बलि का बकरा बनाया जा रहा है. मगर, जेटली ने बाजी पलट दी. लेखक लिखते हैं कि डीडीसीए में रहे अरुण जेटली सेहवाग, गंभीर, शिखर, विराट, नेहरा, ईशान्त शर्मा को ‘हमारे लड़के’ मानते रहे.
लेखक का मानना है कि आपातकाल के दौरान जेल में रहे जेटली के अनुभव की यह जीत थी. एक वकील, पार्टी नेता और मंत्री के रूप में उपलब्धियों से भरी जेटली की जिंदगी में वह भावना हमेशा हावी रही, जो गिरते सार्वजनिक जीवन में उदाहरण बनी रहेगी. उन्होंने यह साबित किया कि सफलता के बीच सबकी पसंद बने रहना संभव है.
रामचंद्र गुहा ने अमर उजाला में लिखे अपने एक आलेख में सेकेंड हैंड बुक स्टोर से खरीदी गयी एक किताब ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस : ए मलयेशियन पर्सपेक्टिव’ के हवाले से कई रहस्यों को उजागर किया है. उन्होंने बताया है कि नेताजी को उनके मकसद में कामयाबी के लिए मलय और सिंगापुर में रहने वाले हजारों भारतीयों की भूमिका रही थी. इस पुस्तक से जुड़े सारे लोग सभी धर्मों से जुड़े पूर्व सैनिक हैं जिससे पता चलता है कि बोस की सेना सही मायने में भारतीय बनी रहना चाहती हैं.
लेखक ने इस पुस्तक के जरिए यह बताया है कि नेताजी लैंगिक समानता को कितना महत्व देते थे. जापानियों और चंद संकीर्ण भारतीयों की इच्छा के विरुद्ध रानी ऑफ झांसी रेजिमेंट बनाना और इसका नेतृत्व कैप्टन लक्ष्मी को सौंपना इसका उदाहरण है.
लेखक ने इसी किताब में सुभाष चंद्र बोस की बेटी के शब्दों को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने अपनी निजी यात्रा पर भारत आने के बावजूद राजकीय सम्मान मिलने की बात कही है और नेहरू का आभार जताया है. सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजी से बेहतर ऊर्दू बोलते थे इस बारे में भी आईएनए के सैनिकों के बयान इस पुस्तक में हैं. लेखक ने स्वतंत्रता के बाद नेहरू के पहले संबोधन को याद करते हुए उसमें महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के उल्लेख का जिक्र किया है जिसमें बोस के प्रति अत्यधिक सम्मान था.
जी सम्पथ ने द हिन्दू में धारा 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर की स्थिति का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है. वे लिखते हैं कि अब युवा अधिक स्वतंत्र हैं, खुश हैं. प्रतीकात्मक शैली में वह बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर को चोट लगी है. उसके सिर पर पेपरवेट से हमला बोला गया है लेकिन यह हमला उसकी भलाई के लिए ही है. युवाओं की नौकरी भी जा चुकी है. गलती नौजवानों की ही है जो अपने बॉस को गुड मॉर्निंग बोलना भूल गए. फिर अकेले वही बेरोजगार नहीं हुआ है, 5 हजार और भी लोगों को नौकरी से निकाला गया है.
जम्मू-कश्मीर को महसूस हो रहा है कि धारा 370 हटाने और विशेष राज्य का दर्जा हटने के बाद एक अलग तरह का अहसास है. भारत का एक बेरोजगार साधारण नागरिक हूं. इससे बेहतर और क्या हो सकता है!
मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि जम्मू-कश्मीर मामले में भारत यह कभी नहीं चाहेगा कि अमेरिका मध्यस्थता करे. मगर, अमेरिका मध्यस्थता करने की बात को दोहरा रहा है. पाकिस्तान की कोशिश मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की है. पाकिस्तान को पहली सफलता तब मिली थी जब चीन ने सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाने की मांग की. 1971 के बाद पहली बार बैठक तो हुई लेकिन चीन अलग-थलग पड़ गया. कोई बयान जारी नहीं हुआ. यह भारत की जीत थी.
अब आगे अमेरिका का क्या रुख रहने वाला है यह महत्वपूर्ण है. ट्रंप ने कश्मीर में स्थिति को बहुत विस्फोटक और मुश्किल भरा बताया है. मगर, भारत कभी भी अमेरिकी मध्यस्थता नहीं चाहेगा.
मेघनाद देसाई इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात दोहराई है. चार साल पहले बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने यह बात कही थी. तब बीजेपी को इसका नुकसान उठाना पड़ा था. भागवत सवाल उठा रहे हैं कि एससी-एसटी को आरक्षण कब तक रहेगा? 15 साल इसकी समीक्षा के लिए काफी होने चाहिए थे. एससी में लगा ‘शिड्यूल’ 1930 में गोलमेज सम्मेलन का नतीजा था. इसे बाबा साहेब अंबेडकर की बड़ी जीत मानी गई थी.
लेखक लिखते हैं कि भारत का संविधान सबके लिए समान अधिकार की बात करता है लेकिन वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता. संघ भारत में 7000 जातियों में बंटे हिन्दुओं को एकजुट करना चाहता है. मगर, इसके लिए आरक्षण को हटाना जरूरी है या नहीं, यह अहम बात है. हिंदू समाज जातियों में बंटा है. उनके बीच अंतर कम हो और ये एक दिखें, इस प्रयास में संघ लगा है. मोहन भागवत की राय पर बड़ी बहस की जरूरत है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)