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संडे व्यू: PM मोदी ने गंवाया मौका, राहुल पर 'गुहा vs गांधी'

संडे व्यू में पढ़ें गोपाल कृष्ण गांधी, राजमोहन गांधी, पी चिदंबरम, सुमन कुमार झा का आर्टिकल.

क्विंट हिंदी
भारत
Published:
संडे व्यू में पढ़ें देश के बड़े अखबारों के सबसे जरूरी लेख 
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संडे व्यू में पढ़ें देश के बड़े अखबारों के सबसे जरूरी लेख 
(फोटो: Altered by Quint)

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गांधीजी की नजर में- सबका ईश्वर एक है

गोपाल कृष्ण गांधी ने द टेलीग्राफ में 23 अगस्त 1947 को अपने अंदाज में याद किया है. तब महात्मा गांधी नोआखाली जाने से पहले बेलियाघाटा में थे. एक ऐसी जगह जहां हिन्दू उस इलाके में मुसलमानों की रक्षा कर रहे थे. उन्होंने कलकत्ता में रहने का आग्रह करने वाले मुसलमानों से भी पूर्वी बंगाल में हिन्दुओं की रक्षा करने का आग्रह किया था. 23 अगस्त के दिन गांधीजी रूटीन के हिसाब से सुबह 3.30 बजे जग गए. ध्यान किया, चिट्ठियां लिखीं और फिर खाली पैर पैदल चले.

लेखक लिखते हैं कि गांधी जी अपने समय से आगे देख और सोच रहे थे. वे जानते थे कि भारत का बंटवारा गलत हो रहा है. खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ वे इसी राय के थे कि रेडक्लिफ ने जो लकीर खींची थी, आखिरकार उसी दिशा में देश आगे बढ़ गया.

गांधीजी को लॉर्ड माउंटबेटन ‘वन मैन बाउंड्री फोर्स’ कहा करते थे क्योंकि उनमें ही वह क्षमता थी कि सांप्रदायिकता की आग को बुझा सकें और उन्होंने ऐसा कर दिखाया. गांधीजी के साथ मौजूद मनु ने 1959 में नवजीवन में प्रकाशित ‘मिरैकल ऑफ कोलकाता’ में लिखा था, “बापू ने एकता पर बोला.” मनु ने बताया कि मुसलमानों के ‘अल्ला हू अकबर’ बोलने से हिन्दुओं को और ‘वंदे मातरम’ बोले जाने पर मुसलमानों को बिल्कुल नाराज नहीं होना चाहिए. ‘अल्ला हू अकबर’ का मतलब होता है ईश्वर महान है. वंदे मातरम का मतलब होता है अपनी प्यारी भारत माता के सामने सर झुकाना. इन बातों में किसी को क्यों ऐतराज होना चाहिए.

लेखक लिखते हैं कि आज के दिन भी मुसलमानों को मां काली के मंदिर में जाने या फिर हिन्दुओं को मस्जिद में प्रार्थनाएं करने में संकोच नहीं दिखाना चाहिए. वे लिखते हैं कि गांधी के लिए मंदिर हिन्दुओं का या मस्जिद मुसलमानों का नहीं होता है. 23 अगस्त के दिन महाराजा के राजभवन में गांधीजी ने जो कुछ कहा था उसने जान बचाने को वहां इकट्ठा हिन्दुओं और मुसलमानों को झकझोर दिया था. भले ही उनकी श्रद्धा और उनका विश्वास अलग-अलग क्यों न रहे हों.

मोदी vs राहुल पर गुहा vs गांधी

राजमोहन गांधी ने एनडीटीवी में लिखे एक लेख में राहुल गांधी को लेकर रामचंद्र गुहा की सोच को सवालों के घेरे में लिया है. गुहा ने पांच कारण बताए थे कि राहुल कभी नरेंद्र मोदी का विकल्प नहीं बन सकते. इन पांच कारणों में शामिल थे- राहुल का कमजोर नारा, हिन्दी में सजह नहीं बोल पाना, राहुल के पास सरकार, विभाग या निजी कंपनी को चलाने का अनुभव नहीं होना, असफलताओं के लिए जनता की ओर से अतीत को जिम्मेदार ठहराना और राहुल का वंशवादी होना.

लेखक राज मोहन लिखते हैं कि चुनाव में अभी वक्त है और जो कुछ आंखों के सामने हो रहा है उस पर प्रतिक्रिया देना अधिक जरूरी है. वे लिखते हैं कि अहम मामलों पर भी सुप्रीम कोर्ट सुनवाई टाल रही है, नौकरशाह की ओर से विपक्षी नेताओं के घर छापेमारी सत्ता को सुख पहुंचाने वाले समय में हो रहे हैं. बारी-बारी से लोकतंत्र के खम्भों को गिराया जा रहा है.

लेखक का कहना है कि सत्ता संचालित मीडिया में प्रधानमंत्री सिमट गये हैं. पीएम सवाल पूछने वाले पत्रकारों से भाग रहे हैं. अगला चुनाव क्या ईमानदारी से होंगे?- इस सवाल को लेखक मजबूती से रखते हैं.

उनका कहना है कि विपक्षी दलों के पास चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं होंगे. लेखक याद दिलाते हैं कि राहुल का नारा, “सूट-बूट की सरकार” बहुत प्रभावी था. हालांकि ‘चौकीदार चोर है’ का नारा नहीं चला. इसके बावजूद वह अपना काम बखूबी कर रहे हैं. लेखक कहते हैं कि आज की तारीख में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा के लिए चाहे जो कोई भी काम करे, उसका समर्थन पार्टी लाइन से ऊपर उठकर किया जाना चाहिए. वे लिखते हैं कि टेस्ट क्रिकेट के मैच में अभी देरी है लेकिन जिस तरह से रोजाना मुकाबले हो रहे हैं उसे देखते हुए खतरनाक पिच पर टिके रहना भी मुश्किल हो रहा है. यहां तक कि अम्पायर पर भी शक है. ऐसे में राहुल गांधी का लगातार विरोध के मोर्चे पर टिके रहना तारीफ के काबिल है.

पीएम मोदी ने मौका गंवाया

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि 2020 का 15 अगस्त सामान्य नहीं था. बच्चे नहीं दिखे, समूचा देश महामारी की चपेट में है, ऐसी मंदी कभी देखी नहीं गयी और पड़ोसियों का बाहुबल भी इससे पहले इस तरह से देखना नहीं पड़ा था. गिरती अर्थव्यवस्था, महामारी और भारती क्षेत्र पर कब्जे के तीन सुरंगों में भारत फंसा दिख रहा है और कोई रोशनी नजर नहीं आ रही है.

चिदंबरम लिखते हैं कि संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 5 दिसंबर 2014 को ही हर पंचायत में ऑप्टिकल फाइबर बिछाने का एलान कर दिया था. पीएम ने 2016 तक हर गांव में इसे पहुंचाना सुनिश्चित करने की बात कही थी. यही वादा एक बार फिर लालकिले से दोहरा दिया गया है. इसी तरह 2014 में दिया गया मेक इन इंडिया का नारा बुरी तरह फेल हो चुका है. अब आत्मनिर्भरता का नारा दिया जा रहा है. कोरोना की महामारी चरम पर है.

चिदंबरम लिखते हैं कि पीएम मोदी के लिए अच्छा अवसर था जब वे हर महत्वपूर्ण मसले पर अपना रुख रख सकते थे. इसके बजाए 90 मिनट के भाषण में कोई बात उन्होंने नई नहीं कही. उन्होंने अच्छा अवसर गंवा दिया.

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शिवराज के राज में 70 फीसदी स्थानीय को टिकट

द टाइम्स ऑफ इंडिया में सुमन कुमार झा लिखते हैं कि ‘एक देश बाधाएं अनेक’. मध्यप्रदेश में 70 फीसदी नौकरियां केवल स्थानीय लोगों को देने की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की घोषणा की है. यह न्याय के सामान्य सिद्धांतों के खिलाफ है. कांग्रेस नेता कमलनाथ ने भी ऐसा ही नारा, दिया था. राष्ट्रीय पार्टियों का यही स्वदेशी चेहरा है.

सुमन कुमार झा का कहना है कि शिवराज सिंह चौहान बीजेपी के वरिष्ठ नेता और मुख्यमंत्री हैं. 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान शिवराज के शासन को उदाहरण के तौर पर बताया जा रहा था.

आज जहां हम दुनिया के लिए उत्पाद बनाने जा रहे हैं तो अपने लिए नौकरियों को क्षेत्रवार समेटने में जुटे हैं. हरियाणा में भी निजी नौकरियों में 75 फीसदी स्थानीय लोगों को देने का फैसला हुआ है. यही स्थिति तेलंगाना और आंध्र की भी है. लेखक सवाल उठाते हैं कि उद्यम की भावना केवल गुजरात तक रहे, आंध्र प्रदेश को इंफ्रास्ट्रक्चर मैनेजमेंट में महारथ है. ओडिशा के प्लम्बर हर प्रदेश में देखे जा सकते हैं जिन्हें अपने ही प्रदेश में होना चाहिए. यूपी के भैया को मुंबई में कैब नहीं चलाना चाहिए या फिर सारे सस्ते श्रम जो झारखंड, बिहार आदि प्रदेशों से दूसरे प्रदेशों में जाते हैं, उसे बंद कर दिया जाना चाहिए.

पुरानी बातें छोड़कर नई घोषणाएं करते हैं मोदी

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि मोदी की सरकार भी लगभग उसी हाल में पहुंच गई है जिस हाल में मनमोहन की सरकार 7 साल बाद पहुंचने लगी थी. तब सीएजीकी लगातार दो रिपोर्टों ने हंगामा रपा दिया था. लालकिले से मोदी अपने पुराने वादे दोहरा रहे हैं- मेडिकल आईडी, 100 लाख करोड़ का इंफ्रास्ट्रक्चर, सभी गांवों को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ना.

लेखक मोदी सरकार को महत्वाकांक्षी मानते हैं मगर इस रूप में कि जम्मू-कश्मीर में ऐतिहासिक बदलाव के बाद यह सरकार नागरिकता पर कानून पास करा पाने में सफल रही.

नाइनन तीन बड़े मसलों पर सरकार की चुप्पी की ओर ध्यान दिलाते हैं. वे लिखते हैं कि प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आर्थिक संकट से पैदा हुई मुश्किलों को दूर करना. मगर, वे लिखते हैं कि प्रधानमंत्री समेत सैनीटरी पैड की चर्चा में इन जरूरी बातों की चर्चा नहीं कर पा रही है. लेखक का कहना है कि मोदी मुश्किल मसलों से खुद को दूर रखते हैं. केवल कामयाबी पर जोर देते हैं. घोषणाएं करना नहीं छोड़ते. मगर, अच्छे दिन लाने से लेकर जीडीपी की दर दहाई अंकों में पहुंचाने या फिर अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर का आकार देने की बात अब प्रधानमंत्री नहीं करते.

आपका पूरा सम्मान है मी लॉर्ड

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की सफलता के पीछे कई वजहें रही हैं. इनमें वह नेतृत्व है जिसने प्रगतिशील संविधान बनाया, लोकतांत्रिक नियमों को मानती रही पार्टियां हैं, जागरूक मतदाता हैं जिन्होंने राजनीतिक दलों को हमेशा सक्रिय रखा, सजग सिविल सोसायटी हैं जिन्होंने सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया और वे संस्थान हैं जिन्होंने संवैधानिक दायित्वों को पूरा किया.

इन सबमें न्यायालय का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है जिसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता से लेकर मौलिक अधिकारों की रक्षा की और न्याय का विस्तार किया. राज्य, केंद्र, आम लोग सबकी उम्मीद बना रहा है न्यायालय.

चाणक्य लिखते हैं कि हाल के दिनों में न्यायालय और कार्यपालिका में नजदीकी दिखी है जो परस्पर नियंत्रण और संतुलन के लिहाज से उचित नहीं है. कोलिजियम की प्रक्रिया में भी कार्यपालिका का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव रहा है और दूसरे तरीकों से भी जजों को प्रभावित किए जाते रहे हैं. एक अध्ययन के हवाले से चाणक्य लिखते हैं कि 1999 से 2014 के बीच हुए फैसलों में रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले प्रतिष्ठित पद की भूमिका रही है.

लेखक ने अरुण जेटली की एक दशक पहले कही गयी बात की भी याद दिलायी है कि जज के रिटायरमेंट के बाद एक कूलिंग पीरियड होना चाहिए. लेखक का मानना है कि जिम्मेदारी संविधान के प्रति होनी चाहिए न कि राजनीतिक सोच और रुझाने के प्रति. जम्मू-कश्मीर से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड और बंदी प्रत्यक्षीकरण जैसे मामलों पर उचित तरीके से सुनवाई आगे नहीं बढ़ी. इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से वे लिखते हैं कि 10 में से चार अभिव्यक्ति की आजादी के मामलों में फैसले तब अनुकूल रहे जब शिकायतकर्ता और सरकार एक ओर दिखे. वहीं, बाकी 6 मामलों में फैसले प्रतिकूल रहे.

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