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शाह फैसल का राजनीति छोड़ने का ऐलान जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार की बढ़ती चुनौतियों का एक और संकेत है. जम्मू-कश्मीर में तीन वंशवादी पार्टियों (कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) के बिना ‘नई’ राजनीति तैयार करने की कृत्रिम कोशिश फिर से फेल हो गई है.
स्मार्ट, मुखर, ऑल इंडिया सिविल सर्विसेज परीक्षा के टॉपर, एक फुलब्राइट स्कॉलर और हार्वर्ड से डिग्री प्राप्त स्कॉलर फैसल को गुमराह कर उनके दिमाग में ये बात डाली गई कि वो जम्मू-कश्मीर के वो नेता हो सकते हैं जो राज्य को अभी तक नहीं मिला, शायद एक दिन मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं. हालांकि, जम्मू-कश्मीर में एक राजनीतिक पार्टी का प्रमुख होने के बाद अब वो शायद एक बार फिर से ब्यूरोक्रैट बन जाएंगे.
सरकारी एजेंसियां केंद्र सरकार को खुश करने के लिए बेतुकी योजनाएं बनाने में माहिर हैं. फैसल की पार्टी जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट (JKPM) कभी भी अपने नाम पर खरी नहीं उतरी और उभरती छात्र नेता शेहला रशीद सहित कई भोले-भाले युवा कश्मीरियों की छवि खराब करने में कामयाब रही. हालांकि वो समझदार निकलीं और सात महीने के अंदर ही फैसल की पार्टी से अलग भी हो गईं.
आर्टिकल 370 को हटाने के बाद हुई घटनाओं से पता चलता है कि फैसल के छोटे राजनीतिक करियर के पीछे सरकार थी, जिन्हें राजनीतिक नेता के तौर पर आगे बढ़ाने के लिए गिरफ्तारी और रिहाई का दिखावा किया गया. उन्हें पहली बार 5 अगस्त 2019 को संवैधानिक बदलाव के बाद अन्य नेताओं के साथ हिरासत में लिया गया था. हालांकि, बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया था और नौ दिन बाद तुर्की ‘भागने’ की कोशिश के दौरान दिल्ली में गिरफ्तारर किया गया.
अज्ञात सूत्रों ने मीडिया को बताया कि फैसल तुर्की से कश्मीर में एक समानांतर कश्मीरी सरकार के ऐलान की योजना बना रहे थे. फरवरी 2020 में उनपर पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) लगाया गया था, जिसे 3 जून को हटा लिया गया लेकिन उन्हें घर पर नजरबंद रखा गया. अगर उनकी हिरासत और गिरफ्तारी उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए दिखावा थी तो लगता है कि ये कोशिश बेकार गई. जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अपनी जगह बनाने में असफल और अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बीच में छोड़ने की मजबूरी के बाद अब उन्हें अपनी जिंदगी को पहले जैसी बनाने के लिए सरकार के आशीर्वाद का इंतजार है.
जम्मू-कश्मीर में इस बात की अटकलें लगाई जा रही हैं कि राज्य में राजनीतिक प्रक्रिया फिर से शुरू करने की कोशिश के तहत फैसल को नए उपराज्यपाल का राजनीतिक सलाहकार बनाया जा सकता है. उनका राजनीतिक करियर असफल होने के बाद इस बात पर सवाल है कि वो इस काम को कितने अच्छे तरीके से कर सकेंगे. शायद जिन्होंने फैसल को राजनीति में उतरने के लिए तैयार किया था, उन्हें अब ये ध्यान में रखते हुए कि उनपर सबकी नजर रहेगी, समायोजित करने के तरीके खोजने होंगे.
एक समय पर महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार गिरने के बाद सज्जाद लोन केंद्र सरकार की ओर से इसके लिए चुने गए थे. राजनीतिक महत्वाकांक्षा होने के बाद भी लोन बहुमत के लिए आंकड़ा नहीं जुटा सके.
तब केंद्र सरकार ने सोचा कि ग्रामीण निकाय में चुने गए पंच और सरपंच को आगे बढ़ाकर नए राजनीतिक नेतृत्व को खड़ा किया जा सकता है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पंच और सरपंचों को लोकतंत्र के प्रसार के लिए एक नए साधन के तौर पर पेश किया, जिन्हें विकास के लिए सीधे फंड दिए जाएंगे और ‘तीन परिवारों’ (नेहरू-गांधी परिवार, अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार) जिन्होंने लंबे समय तक कश्मीर के भाग्य का फैसला किया है उन्हें अलग रखने में मदद मिलेगी.
पंचों और सरपंचों को प्रधानमंत्री से मिलाने दिल्ली लाया गया और उनमें से कुछ लंबी दाढ़ी वालों की तस्वीरों को सबके सामने ऐसे पेश किया, जैसे कि ये दिखाने की कोशिश हो रही थी कि कुछ आतंकी मुस्लिम कट्टरपंथी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आए हैं. असलियत ये थी कि पंचों, सरपंचों को लगा कि वो आतंकवादियों के मुख्य टारगेट बन गए हैं और उन्होंने अपने गांव लौटने से इनकार कर दिया. सरकार को सभी के लिए दो लाख के मुफ्त बीमा का ऐलान करना पड़ा और श्रीनगर के होटलों में ठहराना पड़ा क्योंकि उनके लिए गांव लौटना अपनी जान को खतरे में डालना था.
इसके बाद पीडीपी के एक पूर्व मंत्री और बिजनेसमैन अल्ताफ बुखारी को नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) की जांच का डर दिखाकर एक राजनीतिक दल बनाने को कहा गया. उनके भाई से मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में पहले से ही पूछताछ चल रही थी, ऐसे में इस बात का ख़तरा था कि अल्ताफ बुखारी का अगला नंबर हो सकता है. बुखारी भी धमकी के आगे झुक गए और उन्होंने ‘J&K अपनी पार्टी’ बनाई जिसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में अहमियत नहीं पा रहे लोग शामिल हुए. ये प्रयोग भी ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता है.
इस बीच जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी अपना आधार खोने लगी है. घाटी में पार्टी के नेताओं को आतंकवादी योजनाबद्ध तरीके से निशाना बना रहे हैं. मई 2020 से हमलों में पांच बीजेपी कार्यकर्ताओं की मौत हो चुकी है, जबकि छह घायल हुए हैं. डर के कारण कश्मीर घाटी में बीजेपी कार्यकर्ता इस्तीफे दे रहे हैं. जम्मू में भी पार्टी का नेतृत्व डोगरा समुदाय से लेकर कश्मीरी पंडित को दिए जाने के कारण असंतोष है.
कोई भी असरदार पार्टी या नेता नहीं है जो केंद्र सरकार के एजेंडा को आगे ले जा सके. मुख्यधारा की पार्टियां-अपने पिछले रिकॉर्ड, आगे बढ़ने की राजनीतिक गतिशीलता पर वंशवाद की सीमा और अपनी मौकापरस्ती से घिरी हैं. और बीजेपी का प्रभाव ज्यादातर जम्मू क्षेत्र में ही है.
इसलिए ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री का नया कश्मीर अभी तक उस नई राजनीति के लिए तैयार नहीं है जिसमें वो राज्य को ले जाना चाहते थे. जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद राज्य में केंद्र सरकार की बात रखने वाले किसी राजनीतिक व्यक्ति/पार्टी को खड़ा करने की सभी कोशिश या तो बेकार गई हैं या उसमें ज्यादा उम्मीद नहीं दिखी. शाह फैसल की ‘घर’ वापसी उस विफलता को सिर्फ उजागर करती है.
(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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