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सुप्रीम कोर्ट ने 14 जुलाई को एक फैसले में 2009 में हुई दो घटनाओं में छत्तीसगढ़ में कई आदिवासियों की मौत की स्वतंत्र जांच के लिए दायर याचिका खारिज कर दी. कोर्ट ने न केवल याचिकाकर्ता नंबर 1 एक्टिविस्ट हिमांशु वर्मा (जो एक NGO चलाते हैं, जिसके बारे में वे कहते हैं कि वह एनजीओ छत्तीसगढ़ के बस्तर / दंतेवाड़ा क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के लिए काम करता है) और अन्य 12 याचिकाकर्ताओं (जिनकी मौत हुई उनके परिवार के सदस्य) की याचिका को खारिज कर दिया.
कोर्ट ने वर्मा पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाने का निर्देश भी दिया, क्योंकि कोर्ट ने पाया कि मूल रिट याचिका और अदालत के हलफनामों में किए गए दावों का समर्थन करने के लिए कोई आधार नहीं था. याचिका और हलफनामों में दावा किया गया था कि नागरिकों की मौतों के लिए सुरक्षा बल जिम्मेदार थे और यही वजह है कि हत्याओं की पड़ताल के लिए CBI जांच और एक विशेष जांच दल (SIT) की जरूरत बताई थी.
इस बारे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि यह फैसला कैसे आया? लेकिन समस्या यह है कि अदालत यहीं नहीं रुकी.
केंद्र सरकार ने एक इंटरलोक्यूटरी एप्लीकेशन दायर करते हुए कोर्ट से अनुरोध किया कि याचिकाकर्ताओं को झूठे आरोप लगाने और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष झूठे और मनगढ़ंत सबूत देने के लिए दोषी ठहराया जाए, क्योंकि ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य सुरक्षाबलों को हत्या के अपराध के लिए दोषी ठहराना और नक्सल अपराधियों को बचाना था.
इसके अलावा आवेदन में कोर्ट से यह भी अनुराेध किया गया कि कोर्ट सीबीआई (CBI) या राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) या किसी अन्य केंद्रीय जांच एजेंसी (सेंट्रल इनवेस्टिगेशन एजेंसी) को उन लोगों पर FIR दर्ज करने और इंवेस्टिगेशन करने का निर्देश दे, जो इस तरह की साजिश रच रहे हैं, उकसा रहे हैं और अदालतों में ऐसे मामलों को दाखिल करने में मदद कर रहे हैं.
भले ही शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार द्वारा अनुरोध की गई दो चीजों में से किसी का भी आदेश नहीं दिया, लेकिन उसने आवेदन को गंभीरता से लिया और झूठे सबूत देने (धारा 195) और झूठे आरोप (धारा 211) से निपटने के लिए आईपीसी के प्रावधानों पर विचार किया. तब कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि
तकनीकी रूप से, इस मामले में अदालत ने जांच शुरू करने या याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कोई निष्कर्ष पारित करने का आदेश नहीं दिया.
हालांकि, केंद्र द्वारा इस आवेदन पर विचार करने के लिए सहमत होकर, (यह जांच करना कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कौन से कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल किया जा सकता है, और फिर यह स्वीकार करते हुए कि एक संभावित साजिश की जांच CBI कर सकती है.) कोर्ट ने सरकार को जवाबदेह ठहराने की कोशिश करने वालों के खिलाफ एक और अभियान चलाने का दरवाजा खोल दिया है.
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के प्रतिनिधित्व में केंद्र सरकार ने इस तरह की किसी भी साजिश का कोई सबूत अदालत को नहीं दिए थे, लेकिन फिर भी अदालत ने इस दावे पर विश्वास किया जिसके पीछे कोई आधार पेश नहीं किया गया.
केंद्र द्वारा जो इंटरलोक्यूटरी एप्लीकेशन दायर किया गया था, उसमें यह भी स्पष्टता से उल्लेखित नहीं है कि यह किस कानून के प्रावधान के तहत दायर किया गया था, जोकि लीगल ड्राफ्टिंग की मूल बातों में से एक है. ऐसे में एप्लीकेशन (आवेदन) को खारिज करने के बजाय, बेंच ने उदारतापूर्वक अपने सुझाव दिए कि किस आधार कार्रवाई की जा सकती है.
इसका प्रभाव न केवल इस मामले में जहां अब हमें संभवत: CBI और ED द्वारा हिमांशु वर्मा और अन्य लोगों (जिन्होंने आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी/बहस की है) पर जांच-पड़ताल देखने को मिल सकती है, बल्कि भविष्य में सरकार के अधिकारियों द्वारा कदाचार का आरोप लगाते हुए रिट याचिका दायर करने वाले किसी भी व्यक्ति पर भी इसका भयावह प्रभाव पड़ेगा.
यहां सुप्रीम कोर्ट ने जो कार्रवाई की है उसका स्पष्ट जस्टिफिकेशन यह है कि सुरक्षाबलों के खिलाफ लगाए गए आरोप झूठे और मनगढ़ंत थे. अगर यह सच है तो उनकी जांच किए जाने और संभवत: मुकदमा चलाने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है.
यहां पर समस्या यह है कि भले ही इसके (झूठे और मनगढंत आरोप) आधार पर एक्टिविस्ट हिमांशु वर्मा पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया है, लेकिन इसे किसी भी तरह से फैसले में स्थापित नहीं किया गया है.
दो मुख्य कारणों से अदालत अपने निष्कर्ष पर पहुंची.
सबसे पहले उन्होंने इस पर ध्यान दिया कि उन घटनाओं (जहां आदिवासी समुदाय के नागरिक मारे गए थे) के संबंध में एफआईआर 2009 में दर्ज की गई थीं और इन घटनाओं की जांच एजेंसियों द्वारा जांच की गई, जिसके बाद छत्तीसगढ़ में विभिन्न अदालतों में हत्या, डकैती जैसे आदि अपराधों के लिए आरोप पत्र दायर किए गए थे.
फैसले के दौरान कहा गया है कि "जांच में ऐसा कुछ भी नहीं मिला है, जिसके आधार पर पुलिस बल के सदस्यों की ओर एक उंगली भी उठाई जा सके."
चौंकाने वाली बात यह नहीं है कि जांच के दौरान पुलिस को अपनी ही संलिप्तता का कोई सबूत नहीं मिला, आश्चर्य की बात यह है कि अनुभवी न्यायाधीशों की एक पीठ यहां पर हितों का टकराव कैसे नहीं देख सकी.
जांच के दौरान जिन पर मुकदमा चलाया गया था और उन्हें दोषी ठहराया गया था. अगर वाकई में उन अपराधियों को पकड़ लिया जाता, तो शायद पुलिस द्वारा जांच के दावों को गंभीरता से लिया जा सकता था. हालांकि, पुलिस जांच से यह संकेत मिलता है कि जो नरसंहार या हत्याएं हुई थीं उनमें अज्ञात नक्सलियों का हाथ था.
पिछले 13 सालों में उनमें से किसी को खोजा नहीं जा सका, जिसको गिरफ्तार किया जाए या उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सके.
यह किसी चौंकाने वाली बात से कम नहीं है कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने इस चिंता के कारण कि पुलिस निष्पक्ष कार्रवाई नहीं करेगी, पहले कई मामलों में स्वतंत्र जांच का आदेश दिया है, उसी कोर्ट ने यहां छत्तीसगढ़ पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाने के बारे में विचार भी नहीं किया.
यह कहते हुए कि अपराध वास्तव में अन्य लोगों द्वारा किए गए थे, जिनमें से किसी का भी नाम वो नहीं बता पाई और न ही उन्हें पकड़ पाई, राज्य पुलिस ने खुद को क्लीन चिट दे दी है. वहीं सुप्रीम कोर्ट जिसके पास हर सरकार या स्टेट अथॉरिटी को जवाबदेह ठहराने की शक्ति है उसे भी इसमें कुछ भी संदिग्ध नहीं दिखता है?
अगर इस अदालत ने गुजरात दंगों के मामलों में एसआईटी के फैसलों को चुनौती देने में जकिया जाफरी का समर्थन करने वाली कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य लोगों के खिलाफ अभियान चलाने में मदद नहीं की होती, तो ये अविश्वसनीय लगता.
लेकिन ठीक है, आप कह सकते हैं कि जस्टिस खानविलकर (जिन्होंने जकिया जाफरी मामले में फैसला सुनाया था) और न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कुछ और कारण से आरोपों को मनगढ़ंत बताया.
दूसरा महत्वपूर्ण कारक जिसने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद की वो याचिकाकर्ता 2 से 13, यानी दो कथित नरसंहारों के मृतकों के रिश्तेदारों द्वारा दिए गए बयान थे
2010 में दिल्ली में एक जिला और सत्र न्यायाधीश के समक्ष इनमें से एक व्यक्ति ने बयान दिया. हिमांशु वर्मा इस बयान में अनुवादक थे (क्योंकि बयान देने वाले व्यक्ति केवल गोंडी भाषा बोलते थे)
जज के सामने मृतक के रिश्तेदार ने जो बयान दर्ज कराया, उसमें उसने कहा कि वह उन लोगों की पहचान नहीं कर सकता, जिसने उसके परिवार के सदस्यों को मारा. इसके साथ ही उसने कहा कि हमलावर "जंगल से आए थे."
यह बयान तब दिया गया था , जब याचिकाकर्ता 2 से 13 को कथित तौर पर अवैध हिरासत में ले लिया गया था और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसी के लिए एक आदेश पारित करने के बाद दिल्ली के न्यायाधीश के सामने पेश किया था.
माना जाता है, याचिकाकर्ता संख्या 1 यानी हिमांशु वर्मा के केस को इसी बयानों ने पूरी तरह से 'ध्वस्त' कर दिया.
वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. सुनवाई के दौरान बेंच ने इन बयानों के बारे में उनसे पूछा, लेकिन उन्होंने जो कुछ भी कहा उससे बेंच संतुष्ट नहीं थी.
गोंसाल्वेस ने तर्क देते हुए कहा कि जिस तरह से सवाल पूछे गए थे, वह गलत था, जज द्वारा याचिकाकर्ता से विशिष्ट (स्पेसिफिक) सवाल पूछे जाने चाहिए थे. जिस तरह से जज ने हमलावरों के बारे में सवाल किए उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जज कई प्रासंगिक प्रश्न पूछने में विफल रहे. यह एक उचित चिंता की तरह प्रतीत होता है, क्योंकि उनके सवाल कुछ इस तरह से थे जैसे हमलावरों ने वर्दी पहनी थी क्या? हमले के दौरान उन्होंने कुछ भी कहा था क्या?.
अगर हम बयानों को देखें, तो ऐसा कुछ भी नहीं है, जो रिट पिटीशन में दिए गए तर्क के उलट है. हां, पीड़ितों के परिजनों ने ने स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि पुलिस/सुरक्षा बलों/सलवा जुडूम के जवानों ने उन पर हमला किया था, लेकिन उन्होंने यह भी नहीं कहा उन पर हमला करने वाले नक्सली थे.
और यह तथ्य कि हमलावर "जंगल" से आए थे. यह भी इस संबंध में भी अनिर्णायक है, खास तौर पर तब जब इसमें कथित रूप से मिलिशिया शामिल था. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पहले से ही उस क्षेत्र में अन्य घटनाओं की जांच कर रहा था, जहां सुरक्षा बलों और मिलिशिया पर नागरिकों पर हमला करने का आरोप लगाया गया था, इस वजह से यह कोई अजीबोगरीब या असाधारण दावा नहीं था.
यहां पर मृतक के परिजनों को अवैध रूप से हिरासत में लिए जाने का मुद्दा भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है.
2010 में जब राज्य सरकार ने उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश किया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर कोई तथ्यात्मक निष्कर्ष नहीं निकालने का फैसला किया कि क्या उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया गया था. यह अपने आप में कर्तव्य पालन की विफलता या लापरवाही है. यह कुछ ऐसा है, जिसे हमने हाल के मामलों में भी बार-बार देखा है, जैसे कि जम्मू और कश्मीर बंदी प्रत्यक्षीकरण मामलों में देखने को मिला है, जहां कोर्ट वास्तव में प्रमुख कानूनी मुद्दों को संबोधित करने में विफल रहता है और इसके बजाय मामलों के 'व्यावहारिक' समाधान स्वीकार करती हैं.
यह अनुमान लगाना अनुचित नहीं होगा कि अगर अवैध हिरासत में लिया जाता है, तो याचिकाकर्ताओं ने दबाव महसूस किया होगा कि वे कुछ भी ऐसा न कहें जो राज्य के अधिकारियों को सीधे तौर पर फंसाए या उलझाए. भले ही 2010 में याचिकाकर्ताओं को हिरासत के ठीक बाद पेश किया गया था, लेकिन प्रश्न पूछने वाले जज कथित हिरासत के बारे में कोई भी सवाल पूछने में विफल रहे. बजाय इसके कि क्या उन पर (याचिकाकर्ताओं पर) अपना बयान देने से पहले दबाव डाला गया था? उन्होंने केवल यह पूछा कि क्या वे दबाव में अपना बयान दे रहे थे?
रिट पिटीशन के पीछे जो लीगल टीम थी उसको काफी पहले इसे चुनौती देनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा करने में विफलता को शायद ही सबूत के रूप में लिया जा सकता है कि रिट पिटीशन में आरोप गलत थे.
यह फैसला गुजरात दंगों के फैसले (जिसके कारण तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व पुलिस अधिकारी आरबी श्रीकुमार के खिलाफ तत्काल FIR दर्ज की गई) के तुरंत बाद आ रहा है. ऐसे में यहां पर चिंता का महत्वपूर्ण कारण यह है कि सुप्रीम कोर्ट किस दिशा में जा रहा है. दोनों मामलों में मनगढ़ंत या दुर्भावना का कोई स्पष्ट सबूत नहीं था फिर भी अदालत ने निर्णयों में इन्हें स्वीकार कर लिया है.
सीतलवाड़ और अन्य के मामले में अदालत द्वारा उन्हें आरोपों का जवाब देने का अवसर भी नहीं दिया गया था. वहीं इस मामले में मृतक के रिश्तेदारों के बयानों को देखते हुए ऐसा लगता है कि उन्हें प्रतिक्रिया देने का एक सीमित अवसर दिया गया था, अभी भी ऐसी कोई सामग्री नहीं थी जो अदालत के बयानों को सही ठहराती हो.
यह बात समझ में आती है कि सुप्रीम कोर्ट अदालत में दायर की जा रही बेकार की जनहित याचिकाओं को हतोत्साहित करना चाहती है जो न्यायिक समय और राज्य के संसाधनों को बर्बाद करती हैं, लेकिन इन मामलों को लेकर वह जो कर रही है वह काफी आगे जाता है.
झूठे मामलों के खिलाफ कार्रवाई को प्रोत्साहित करने के लिए कोर्ट कदम उठा सकती है और हां, बेशक उसे ऐसा करना भी चाहिए. लेकिन हाल की घटनाओं की तुलना में कहीं अधिक औचित्य या आधार होना चाहिए.
वर्मा जैसी रिट पिटीशन्स यह सुनिश्चित करने के लिए अहम है कि इस तरह की परिस्थितियों में जवाबदेही हो. उन्होंने कोर्ट से केवल अत्याचारों की एक स्वतंत्र जांच का अनुरोध किया था, न कि यह फैसला करने के लिए कहा था कि राज्य के अधिकारियों ने इन अत्याचारों को अंजाम दिया है. नागरिक स्वतंत्रता के लिए वह एक काला दिन होता है, जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के अनुरोध पर रोक लगा देती है.
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