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14 अक्टूबर को मुंबई हाई कोर्ट ने कवि और एक्टिविस्ट वरवर राव (Varavara Rao) की बेल पर सुनवाई को दो हफ्तों, यानी 28 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दिया . 81 साल के वरवर राव को अदालत ने इसी साल फरवरी में यह देखते हुए कि उनकी सेहत ठीक नहीं है और उन्हें बार-बार अस्पताल में भर्ती कराना पड़ रहा है, छह महीने की मेडिकल बेल दी थी, .जितनी बार उन्हें दोबारा जेल भेजा गया, उनकी सेहत बिगड़ती गई.
वैसे इससे पहले एनआईए कोर्ट मेडिकल आधार पर भीमा कोरेगांव मामले के चार दूसरे आरोपियों शोमा सेन, आनंद तेलतुंबडे, गौतम नवलखा और वर्णन गोंसालविस की मेडिकल बेल को ठुकरा चुकी है.
सुधा भारद्वाज को मई 2020 में मेडिकल बेल देने से इनकार किया गया. इसी तरह 83 साल के पादरी फादर स्टेन स्वामी की जमानत याचिका अक्टूबर 2020 और फिर मार्च 2021 में खारिज कर दी गई. फिर सेहत बिगड़ने के बाद जेल में ही जुलाई 2021 में उन्होंने दम तोड़ दिया.
2020 की शुरुआत में एनआईए ने इस मामले की जांच शुरू की थी. वह लगातार आरोपियों की मेडिकल बेल की गुजारिश का विरोध करती रही है. वह कहती है कि यूएपीए के तहत अपराध गंभीर होते हैं और दावा करती है कि अगर किसी मेडिकल इलाज की जरूरत होगी तो जेल के अस्पताल में वह दिया जाएगा, या सरकारी अस्पताल ले जाया जाएगा.
मेडिकल बेल देने का सवाल बेशक, उन मामलों में पैदा नहीं होता, जोकि ‘जमानती अपराध’ होते हैं, यानी कम गंभीर अपराध जिसमें व्यक्ति बेल की राशि जमा कराने के बाद जब तक चाहे बेल पर रहने का हकदार होता है, और अदालत उसकी कोई खास तहकीकात नहीं करती.
हां, जब ‘गैर जमानती अपराध’ की बात आती है तो बेल सिर्फ तभी मिल सकती है, जब अदालत पूरे मामले की छानबीन करती है. आम तौर पर अदालतें सिर्फ यही देखती हैं कि अगर अपराधी को बेल पर छोड़ा जाता है तो क्या उसके दोबारा अपराध करने का खतरा है, या वह भाग सकता है, या चश्मदीदों को डरा-धमका सकता है या सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है.
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 यानी सीआरपीसी के सेक्शन 437 के तहत ऐसे अपराध के आरोपियों को बेल नहीं दी जाती, जिनके लिए अधिकतम सजा मृत्यु या उम्रकैद है, या वे पहले गंभीर अपराध के दोषी ठहराए जा चुके हैं. लेकिन अगर आरोपी ‘बीमार या दुर्बल’ है तो सेक्शन 437 (1) के तहत ऐसे मामलों में भी बेल दी जाती है.
अदालत का मेडिकल बेल देने का अधिकार न्यायिक विवेक का मामला है. ऐसा कोई विशेष नियम या दिशानिर्देश नहीं कि कैसे और कब इसका उपयोग किया जा सकता है, लेकिन जज कथित मेडिकल समस्या पर विचार कर सकते हैं और संबंधित मेडिकल रिपोर्ट्स देख सकते हैं, और फिर किसी व्यक्ति को मेडिकल आधार पर बेल देने के लिए राजी हो सकते हैं.
मेडिकल आधार पर बेल सिर्फ अंतरिम रूप से मिलती है. जरूरी इलाज होने और व्यक्ति की सेहत स्थिर होने पर उसे फिर से कस्टडी में भेज दिया जाता है.
इसीलिए वरवर राव को छह महीने की बेल दी गई थी (जिसे अदालत अगली सुनवाई में बढ़ा सकती है), या विकलांग और अशक्त प्रोफेसर जीएन साईबाबा (वह भी माओवादी षडयंत्र के लिए आरोपित हैं) को 2015 में मुंबई हाई कोर्ट ने दो महीने के लिए मेडिकल बेल दी थी.
यहां तक कि एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपराध का दोषी ठहराया गया है, वह भी मेडिकल आधार पर बेल की विनती कर सकता है, हालांकि अदालतों के पास यह निर्देश देने का विकल्प है कि उन्हें बेल दिए बिना इलाज के लिए अस्पताल भेजा जाए.
जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने दिसंबर 2017 से जेल का अपना ज्यादातर समय रांची के राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान और नई दिल्ली के एम्स में इलाज कराने में बिताया है.
कोई आरोपी मेडिकल बेल मिलने के बाद भाग जाए, या चश्मीदीदों को डराए धमकाए या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करे, तभी उस पर बेल की कड़ी शर्तें लागू की जाती हैं. वरना, असली मेडिकल समस्या वाले मामले में आरोपी को बेल देना तर्कसंगत लगता है.
तो एनआईए कोर्ट्स भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों को बेल देने से क्यों इनकार कर रही है, इसके बावजूद कि उनकी मेडिकल स्थिति एकदम साफ है?
जैसे आप स्टेन स्वामी का मामला लीजिए. मार्च में स्पेशल एनआईए कोर्ट ने फैसला सुनाया कि ‘समुदाय के सामूहिक हित’ उनकी उम्र या बीमारी से ज्यादा मायने रखते हैं और उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया.
कोर्ट के फैसले का आधार यूएपीए का सेक्शन 43डी (5) था, जिसमें कहा गया है कि कोर्ट यूएपीए के तहत आतंकवाद के अपराध के आरोपी व्यक्ति को बेल नहीं दे सकती, अगर उनके पास यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि उनके खिलाफ मामला प्राइमा फेशिया, यानी पहली नजर में सच है.
एनआईए के अनुसार, सेक्शन 43 डी (5) में बेल पर पाबंदी, मेडिकल बेल पर भी लागू होती है. इसलिए उसका तर्क है कि चूंकि स्पेशल कोर्ट पहले ही कह चुका है कि उनके खिलाफ मामला पहली नजर में सच है, इसलिए किसी भी कोर्ट से उन्हें मेडिकल बेल नहीं मिल सकती.
एनआईए का यह तर्क कोई नया नहीं है. इसे कई मामलों में इस्तेमाल किया जा चुका है. जैसे 2015 में मुंबई हाई कोर्ट मेंजीएन साईबाबा और 2009 में गुवाहाटी हाई कोर्ट में रेडौल हुसैन खान की याचिकाओं पर ऐसी ही दलील दी गई थी.
एनआईए यह तर्क देती रही है कि यूएपीए का सेक्शन 43 डी (5) कोर्ट्स को सीआरपीसी के सेक्शन 437 के तहत मेडिकल बेल देने की सामान्य शक्ति का इस्तेमाल करने से रोकता है. इसके अलावा एजेंसी हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट को भी उनके रिट क्षेत्राधिकार के तहत बेल देने से रोकती है.
पुलिस और जांच एजेंसियां विशेष कानूनों के तहत आने वाले मामलों के लिए भी ऐसे ही तर्क देती हैं. कई विशेष कानूनों में बेल मिलना आसान नहीं होता. जैसे नारकोटिक्स ड्रग्स और साइकोट्रॉपिक पदार्थ सबस्टांस एक्ट (एनडीपीएस एक्ट).
एनडीपीएस एक्ट के सेक्शन 37 के तहत गंभीर अपराध के किसी ऐसे आरोपी को बेल मिल सकती है, अगर कोर्ट को “इस बात से संतुष्ट हो कि यह मानने के उचित आधार हैं कि वह इस तरह के अपराध का दोषी नहीं है, और यह संभावना नहीं कि वह बेल पर रहते हुए कोई अपराध करेगा.”
जब एनआईए जैसी जांच एजेंसियां ऐसे तर्क देती हैं तो निचली अदालतें विशेष कानूनों, मिसाल के तौर पर यूएपीए, के तहत आने वाले अपराधों के आरोपियों को मेडिकल बेल देने से इनकार कर देती हैं. जैसा कि हमने स्टेन स्वामी के मामले में देखा.
ऐसा नहीं कि वे ऐसा करने को बाध्य हैं. 2012 में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने कहा था कि सेक्शन 43 डी (5) के तहत स्पेशल बेल देने का प्रावधान, सीआरपीसी के सेक्शन 437 के तहत मेडिकल बेल देने की शक्ति को खत्म नहीं करता. हालांकि उन्होंने कहा था कि जजों को इस सिलसिले में खास तौर से सावधान रहना चाहिए कि आरोपी की मेडिकल स्थिति गंभीर थी और उनका इलाज कस्टडी में रहकर नहीं किया जा सकता.
देश भर के हाई कोर्ट ने मेडिकल आधार पर किसी शख्स को बेल दी है, अगर उन्हें यह यकीन हुआ है कि आरोपी की हालत गंभीर है, जोकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिलने वाले जीवन के मौलिक अधिकार पर आधारित है. और हाई कोर्ट के पास अपने रिट क्षेत्राधिकार के जरिए मौलिक अधिकारों को लागू करने की शक्ति है. तब कोर्ट ने कहा था:
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केए नजीब मामले में यह दोहराया था कि संवैधानिक अदालतों के पास मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु कार्रवाई करने की शक्ति है, भले ही सेक्शन 43 डी (5) जैसे सख्त जमानत प्रावधान लागू होते हों.
पिछले साल अर्णव गोस्वामी को अंतरिम बेल देने के समय भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अदालतें मौलिक अधिकारों के संरक्षण के मामले में अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकतीं, भले ही बेल के लिए सही प्रक्रिया का पालन किया गया हो या नहीं.
ऐसे ही कुछ फैसलों, जैसे "इन रे इनह्यूमन कंडीशंस इन 1382 प्रिजन्स" में कहा गया है कि भारत को कैदियों के साथ होने वाले व्यवहार पर उन इंटरनेशनल कन्वेंशंस और स्टैंडर्ड्स का पालन करना चाहिए जिन पर उसने दस्तखत किए हैं. इनमें से एक में अदालत ने साफ तौर से 'युनाइडेट नेशंस स्टैंडर्ड मिनिमम रूल्स फॉर ट्रीटमेंट ऑफ प्रिजनर्स' का हवाला दिया था जिसे नेल्सन मंडेला रूल्स कहा जाता है.
नेल्सन मंडेला रूल्स के रूल 24, 25 और 26 में कहा गया है कि कैदियों को भी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध होनी चाहिए. यह उनका अधिकार है, ठीक वैसे ही जैसे समाज के बाकी लोगों को मिलता है. इस लिहाज से यह स्पष्ट है कि हाई कोर्ट्स के पास मेडिकल बेल देने का अधिकार है, इसके बावजूद कि कड़े स्पेशल कानून लागू होते हों.
जैसा कि हम देख चुके हैं, मुंबई हाई कोर्ट ने यूएपीए के मामलों में वरवर राव और जीएन साईबाबा को मेडिकल बेल दी है. इसके अलावा अर्चना मनोहर गलरानी बनाम कर्नाटक राज्य मामले, जोकि एनडीपीएस के तहत आता था, में आरोपी को दिसंबर 2020 में मेडिकल बेल दी है.
मुंबई हाई कोर्ट ने ऐसा ही सुधा भारद्वाज मामले में अगस्त 2020 में किया था, और सुप्रीम कोर्ट ऐसा कई मामलों में कर चुका है, जिसमें से एक मामला बाबा आसाराम का भी है. इसीलिए मेडिकल बेल देने या न देने का फैसला, कोर्ट के सामने मामले से जुड़े तथ्यों और हालात पर निर्भर करेगा.
जहां तक वरवर राव के मामले का सवाल है, वह बहुत बूढ़े हैं और कई बीमारियों के शिकार, जैसे हाइपर टेंशन और कोरोनरी आर्टरी डिज़ीज़. जेल में उन्हें कई न्यूरोलॉजिकल बीमारियां हो गई थीं (कोविड होने के साथ-साथ). साफ था कि उन्हें कस्टडी में पूरा इलाज नहीं मिल रहा था. ऐसे में फैसला लेना आसान था.
हालांकि, जो मामले बहुत भयानक नहीं हैं, उनमें अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर जरूरी हो तो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बनाए गए मानकों के हिसाब से मेडिकल बेल दी जाए.
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