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विरोध प्रदर्शन हुआ था, पर “एक सामान्य विरोध प्रदर्शन” नहीं.
क्रांति का आह्वान किया गया था, लेकिन एक “रक्तहीन क्रांति”का नहीं.
दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली दंगों की बड़ी साजिश के मामले में जेएनयू के पूर्व स्टूडेंट उमर खालिद की जमानत याचिका को खारिज (Umar Khalid UAPA Bail Plea Denied) किया और विशेष अदालत के फैसले को बरकरार रखा. लेकिन हाई कोर्ट का अपना फैसला भी कई विरोधाभासों से भरा हुआ है. उमर UAPA के तहत आरोपी हैं. हां, हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया है, वह उसके पहले के फैसलों का खंडन करता है और ऐतिहासिक फैसलों का भी. जानते हैं कि कैसे?
लेकिन अध्ययन के लिए हमें सीएए विरोधी प्रदर्शनों, प्रदर्शन करने के अधिकार, और UAPA (अक्सर महज विरोध जताने पर ही सजा मुकर्रर कर देता है) के असर के संबंध में दिल्ली हाई कोर्ट के दो नजरियों (और रवैयों) के बीच तुलना जरूर करनी चाहिए.
नोट: नरवाल, कलिता और इकबाल पर एक ही मामले में प्राथमिकी दर्ज की गयी थी - 2020 की FIR नंबर 59- उसी कानून (UAPA) के तहत, जिसके तहत उमर हिरासत में है. सच तो यह है कि जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल इन सभी जमानत याचिकाओं (नरवाल, कलिता और इकबाल के मामले में ) की सुनवाई करने वाली खंडपीठ में थे.
नताशा, देवांगना और आसिफ का मामले में
एक नागरिक के विरोध के अधिकार की रक्षा करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि
... और सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों की तरफ इशारा करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था:
"सरकार उपद्रव या यातायात की रुकावटों से बचने के लिए सड़कों या राजमार्गों पर सार्वजनिक सभाओं, प्रदर्शनों या विरोध प्रदर्शनों पर भी रोक लगा सकती है, लेकिन सरकार सार्वजनिक सभाओं के लिए सभी सड़कों या खुले क्षेत्रों को बंद नहीं कर सकती है जिससे उन अधिकारों का दमन किया जा सके जो संविधान के अनुच्छेद 19(1) (ए) और 19(1)(बी) द्वारा प्रदत्त हैं." (आसिफ इकबाल को जमानत देने वाले फैसला में).
इस प्रकार, दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि आतंकवाद को "कानून और व्यवस्था की समस्याओं" या "हिंसक विरोध" के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के एक और फैसले का हवाला देते हुए हाई कोर्ट ने कहा था:
"...आतंकवादी कृत्यों का उद्देश्य राष्ट्र की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती देकर उसे अस्थिर करना, संवैधानिक सिद्धांतों को नष्ट करना, आम लोगों में भय और अराजकता की भावना भरना, धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को तोड़ना, लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंकना, पूर्वाग्रह और कट्टरता को बढ़ावा देना. सुरक्षा बलों का मनोबल गिराना, आर्थिक प्रगति और विकास को विफल करना है. इसे किसी राज्य के भीतर सामान्य कानून-व्यवस्था की समस्या से नहीं जोड़ा जा सकता.”
अदालत ने कहा कि आतंकवाद "अंतर-राज्यीय, अंतरराष्ट्रीय या सीमा-पार प्रकृति का होता है." उसने यह भी कहा था कि आतंकवाद के खुले या गुप्त कृत्यों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ एक नियमित आपराधिक न्यायिक कोशिश नहीं होती.
उमर खालिद के मामले में
इसके बावजूद उमर खालिद के मामले में अदालत ने कहा है कि
इसके अलावा अदालत ने इस विरोध को एक ऐसा विरोध बताया "जो सामान्य नहीं था". अदालत ने कहा कि यह विरोध "राजनीतिक संस्कृति या लोकतंत्र में सामान्य तो था लेकिन बहुत ज्यादा विनाशकारी और नुकसानदेह था...".
"पहले महिला प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिसकर्मियों पर हमला, और फिर आम लोगों द्वारा, और फिर इलाके को दंगे में तब्दील करना- यह योजना बनाकर ही अंजाम दिया जा सकता है, और इस तरह यह प्रथम दृष्टया 'आतंकवादी कृत्य' की परिभाषा के दायरे में ही आएगा."
दरअसल कुछ आरोपियों की जमानत याचिकाओं की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट ने माना कि एक प्रदर्शन आतंकवादी कृत्य के बिना, विभिन्न रूप ले सकता है (यहां तक कि अव्यवस्थित और हिंसक भी), लेकिन दूसरे के संबंध में उसने कहा कि ये विरोध प्रदर्शन दंगों की वजह थे और इस प्रकार आरोपी पर आतंकवाद से संबंधित आरोपों के तहत मुकदमा चलाया जा रहा था (और जमानत से इनकार किया गया). उमर की जमानत याचिका पर फैसला सुनाते हुए अदालत इस नतीजे पर कैसे पहुंची, यह फिलहाल स्पष्ट नहीं है.
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण- अदालत से इस बात पर चिंता जताई कि राज्य ने 'विरोध को दबाने की फिक्र' में 'विरोध के अधिकार' और 'आतंकवादी कृत्य' के बीच की रेखाओं को 'धुंधला' कर दिया, लेकिन खुद ही अदालत ने उन धुंधली रेखाओं को बरकरार रखा. हम इन दो बातों को समझना चाहते हैं.
नताशा, देवांगना और आसिफ का मामले में
सबसे जबरदस्त विरोधाभास इस बारे में है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने यूएपीए के तहत आतंकवाद की क्या परिभाषा दी. यह बताते हुए कि उनके हिसाब से यूएपीए के सेक्शन 15 में 'आतंकवादी कृत्य' की परिभाषा "व्यापक और कुछ हद तक अस्पष्ट" है, हाई कोर्ट ने अपने पूर्व निर्णयों में कहा था:
इसके अलावा उनकी राय में, कि यूएपीए को लागू और संशोधित करने में संसद का "इरादा और उद्देश्य" आतंकवादी गतिविधि को अपने दायरे में लाना था, "और सिर्फ भारत की रक्षा को गहराई से प्रभावित करने वाले मामलों से निपटना था.''
खंडपीठ ने कहा था, “न इससे ज्यादा और न इससे कम.”
उमर खालिद के मामले में
लेकिन उमर खालिद के फैसले में उन्होंने कहा कि यूएपीए के सेक्शन 15 के तहत "आतंकवादी कृत्य" की परिभाषा में शामिल हैं:
"... न केवल एकता और अखंडता को खतरे में डालने का इरादा, बल्कि एकता और अखंडता को खतरे में डालने की आशंका ..."
"... न केवल आतंक मचाने का इरादा, बल्कि आतंक मचाने की आशंका ..."
"... न केवल हथियारों का इस्तेमाल बल्कि किसी भी प्रकृति के किसी भी साधन का इस्तेमाल ..."
"... न सिर्फ मौत का कारण, बल्कि मौत का कारण बनने की आशंका, सिर्फ इतना ही नहीं, किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों को चोट पहुंचाना और चोट पहुंचाने की आशंका, संपत्ति की हानि, नुकसान, क्षति या उनकी आशंका..."
इस बिंदु पर यह दोहराया जाना चाहिए कि नरवाल, कलिता और इकबाल के मामलों में निर्णयों को मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इसका मतलब यह है कि यूएपीए के तहत अपराधों के आरोपी व्यक्ति जमानत की मांग करते समय इन निर्णयों का हवाला नहीं दे सकते. लेकिन अध्ययन के लिहाज से इन अलग-अलग फैसलों का विश्लेषण किया जा सकता है.
और अगर जमानत के पूर्व आदेश लागू नहीं होते हैं, तो भी यह देखने लायक है कि एपेक्स कोर्ट के फैसलों (जो वैधता रखते हैं और दिल्ली हाई कोर्ट उनका हवाला देता रहा है) में विरोध करने के अधिकार और आतंक के आरोपों को कैसे देखा गया है.
मजदूर किसान शक्ति संगठन बनाम भारत संघ और अन्य मामले में एपेक्स कोर्ट ने (एक बार फिर) कहा था कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है. उसने कहा था:
उसने यह भी कहा
"... एक खास वजह, जो पहली बार में, महत्वहीन या अप्रासंगिक प्रतीत हो सकती है, जब इसे विधिवत आवाज दी जाती है और उस पर बहस की जाती है तो उसे गति मिलती है, और स्वीकार्यता भी. यही कारण है कि इस अदालत ने हमेशा शांतिपूर्ण और व्यवस्थित प्रदर्शनों और विरोध प्रदर्शनों के बहुमूल्य अधिकार की रक्षा की है.”
हिम्मत लाल के शाह बनाम पुलिस आयुक्त में मामले सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने यहां तक कहा था कि "... राज्य कानून द्वारा हर सार्वजनिक सड़क या सार्वजनिक स्थान पर सभा को प्रतिबंधित करके सभा के अधिकार को कम नहीं कर सकता है, उसे छीन नहीं सकता."
हितेंद्र विष्णु ठाकुर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आतंकवाद को एक "असामान्य घटना" कहा था, और कहा था कि आतंकवादी गतिविधि की सीमा और पहुंच एक सामान्य अपराध के प्रभाव से परे होनी चाहिए और यह केवल कानून और व्यवस्था और सार्वजनिक व्यवस्था की गड़बड़ी से उत्पन्न नहीं होनी चाहिए.
इसके अलावा कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था:
"यह जोड़ने की जरूरत नहीं है कि कई ‘चीजों की प्रकृति’ की वजह से कोई प्रदर्शन विभिन्न रूप ले सकता है; यह शोरगुल भरा और अव्यवस्थित हो सकता है, उदाहरण के लिए भीड़ द्वारा पथराव को हिंसक और अव्यवस्थित प्रदर्शन के उदाहरण के रूप में पेश किया जा सकता है और यह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 19 (1) (ए) या (बी) के तहत नहीं आएगा. इसी तरह यह शांतिपूर्ण और व्यवस्थित हो सकता है जैसा किसी समूह के सदस्य केवल कुछ बैज पहनकर, सबका ध्यान अपनी शिकायतों की तरफ खींचें.”
फिर भी उमर के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट का कहना है कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों को विभिन्न "षड्यंत्रकारी बैठकों" में प्रथम दृष्टया रचा गया था और उमर खालिद के नाम का उल्लेख साजिश की शुरुआत से लेकर दंगों तक बार-बार होता रहा. हाई कोर्ट यह कह रहा है, जबकि उमर खालिद के मामले मे सबूतों की सच्चाई पर सवाल उठाए गए हैं- जैसे गवाहो के बयानों में विसंगतियां हैं और यह भी सच है कि उसने पांच व्हॉट्सएप ग्रुप्स के हजारों मैसेजेज़ में सिर्फ चार मैसेज भेजे थे जिन्हें उसे फंसने के लिए इस्तेमाल किया गया था, और चारों मैसेज में हिंसा को उकसाने या दंगा भड़काने जैसी कोई बात नहीं थी.
उमर खालिद को जमानत देने से इनकार करते हुए, 'क्रांति' और 'रक्तहीन क्रांति' के बीच अंतर करने के लिए अदालत ने मैक्समिलियन रॉब्सपियर और जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया. सोशल मीडिया में इस पर काफी हलचल रही.
अमरावती में अपने भाषण की शुरुआत में उमर खालिद ने "इंकलाबली सलाम" और "क्रांतिकारी इस्तिक़बाल" शब्दों के इस्तेमाल किया था. इस पर अदालत ने कहा:
"क्रांति का आह्वान, वहां मौजूद लोगों के अलावा कई लोगों को प्रभावित कर सकता है. यही कारण है कि यह अदालत रॉब्सपियर का उल्लेख करना उपयुक्त मानती है, जो फ्रांसीसी क्रांति के अग्रदूत थे. इस अदालत का विचार है कि अगर अपीलकर्ता ने क्रांति के लिए मैक्समिलियन रॉब्सपियर का उल्लेख किया होता, तो उसे यह भी पता होता कि हमारे स्वतंत्रता सेनानी और पहले प्रधानमंत्री के लिए क्रांति के क्या मायने थे.”
आगे अदालत ने कहा कि नेहरू का मानना था कि स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र के कारण क्रांति गैरजरूरी थी और "इसका मतलब रक्तहीन परिवर्तन के बिल्कुल विपरीत था." इस प्रकार अदालत ने कहा:
"क्रांति अपने आप में हमेशा रक्तहीन नहीं होती है, यही कारण है कि इसका प्रयोग विशिष्ट रूप से उपसर्ग के साथ किया जाता है- एक 'रक्तहीन' क्रांति. इसलिए जब हम "क्रांति" शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो तो इसका मायने आवश्यक रूप से रक्तहीन नहीं होता. इस अदालत को याद है कि हालांकि, "क्रांति" अपने आधारभूत स्वरूप में अलग नहीं हो सकती, लेकिन रॉब्सपियर और नेहरू के नजरिये से, अपनी क्षमता और सार्वजनिक शांति पर उसके असर के लिहाज से, फर्क हो सकती है."
लेकिन अगर हम रॉब्सपियर और नेहरू की क्रांति की अवधारणा के बारे में बात कर रहे हैं, तो क्यों न इतिहास को (थोड़ा सा) खंगाल लिया जाए और यह देखा जाए कि क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह 'क्रांति' को कैसे देखते थे.
द इंडियन एक्सप्रेस के अपने एक आर्टिकल में इतिहासकार इरफान हबीब ने लिखा है कि जब भगतसिंह के 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे की आलोचना हुई तो भगत सिंह ने लिखा: "उस वाक्य में क्रांति (इंकलाब) शब्द का इस्तेमाल जिस अर्थ में किया गया है, वह है उसकी भावना, और बेहतरी के लिए बदलाव की लालसा ..."
1929 में भगत सिंह ने अदालत में कहा था: “क्रांति (इंकलाब) बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है. क्रांति से हमारा अर्थ, वर्तमान परिस्थितियों को बदलना है, जो स्पष्ट रूप नाइंसाफी पर आधारित है."
इरफान हबीब ने अपने लेख में बताया कि भगत सिंह की क्रांतिकारी पार्टी एचएसआरए ने एक ऐसी क्रांति का लक्ष्य रखा था जो अराजकता फैलाने वाली नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय हासिल करने के लिए थी. और किसी को यह याद नहीं है कि भगत सिंह ने "रक्तहीन इंकलाब जिंदाबाद" कहकर, अपनी बात साफ करने की कोशिश की हो.
द क्विंट से बातचीत में सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने कहा:
"यूएपीए कानून की कठोरता को देखते हुए, जमानत से इनकार करना आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन अदालत क्रांति पर अपनी टिप्पणियों से आगे निकल गई. ये टिप्पणियां मामले के संदर्भ (जिसे उन्होंने मेरिट कहा) से अलग थीं."
अंत में, बेशक, यूएपीए एक सख्त कानून है. और हां, यूएपीए के तहत जमानत से इनकार करना बिल्कुल भी हैरानी की बात नहीं है. अगर कोई अदालत सिर्फ पुलिस के बयान को देखती है और आपको लगता है कि आपके खिलाफ आतंकवाद से संबंधित आरोप प्रथम दृष्टया सच हैं, तो आपको वर्षों तक जेल में रखा जा सकता है.
28 सितंबर 2022 को प्रकाशित एक अध्ययन में, पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज ने लिखा है:
“यूएपीए के सबसे कड़े और कठोर प्रावधानों में से एक जमानत के संबंध में है, जैसा कि यूएपीए से सेक्शन 43 डी (5) में दिया गया है. दिसंबर 2008 में इस कानून के सेक्शन 43डी(5) में संशोधन किए गए... संशोधित प्रावधान जमानत से इनकार करता है, अगर अदालत के पास आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप को प्रथम दृष्टया सच मानने का उचित आधार है.”
इस अध्ययन में लोकसभा के डेटा का हवाला दिया गया है और कहा गया है कि 2018 और 2020 के बीच, यूएपीए के तहत कुल 4690 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, और उनमें से केवल एक चौथाई (1080) को ही जमानत मिली है.
लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि यूएपीए के एक आरोपी को सालों तक जेल में बिताना होगा (मुकदमे के इंतजार में)? असल में ऐसा नहीं है.
केए नजीब मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यूएपीए के सेक्शन 43 डी (5) जैसा प्रावधान "संवैधानिक अदालतों के इस अधिकार को नहीं छीनता कि वह संविधान के भाग III के उल्लंघन के आधार पर किसी को जमानत न दे सके."
जैसा कि यहां बताया गया है, इसका मतलब यह है कि अगर कोई संवैधानिक अदालत (यानी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट) देखती है कि किसी की गिरफ्तारी या लंबे समय तक कैद में रहने की वजह से उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, तो अदालत उसे जमानत दे सकती है.
इसके अलावा हाल ही में केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को यूएपीए मामले में जमानत देने के अपने आदेश में भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने "कस्टडी की लंबी अवधि" और उनके मामले में "अजीबोगरीब तथ्यों और परिस्थितियां" पर विचार किया था.
यह आदेश तब दिया गया, जब कप्पन एक अंडर-ट्रायल के रूप में लगभग दो साल कैद में बिता चुके थे. उमर खालिद इसी तरह 765 दिनों से अधिक समय से जेल में बंद है. अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है.
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