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"कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियां..."लाइव शो में तानाशाह से लोहा लेने वाला शायर

Habib Jalib को हुकूमत ने अपनी हद तक परेशान किया लेकिन जब तक वो जिंदा रहे, उनकी कलम से 'सच' टपकता रहा.

मोहम्मद साक़िब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>Habib Jalib:&nbsp;“कहीं गैस का धुआं है,कहीं गोलियों..." लाइव शो में तानाशाह से लोहा लेने वाला शायर</p></div>
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Habib Jalib: “कहीं गैस का धुआं है,कहीं गोलियों..." लाइव शो में तानाशाह से लोहा लेने वाला शायर

(फोटो- नमिता चौहान/क्विंट हिंदी)

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और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना,

रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना.

पाकिस्तान (Pakistan) में कई तानाशाहों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले हबीब जालिब (Habib Jalib) की कलम से निकला ये शेर बागी तेवर वालों के लिए एक विरासत की तरह है. आज हम आपको एक ऐसे उर्दू शायर (Urdu Poet) से मिलवाएंगे जिसको तानाशाही के खिलाफ लिखने में कभी डर नहीं लगा...लाइव प्रोग्राम बंद करवाया गया, जेल भेजा गया, हुकूमत ने परेशान किया लेकिन क्रांतिकारी शायर हबीब जालिब की कलम से 'सच' टपकता रहा, वो हमेशा अवाम के लिए लड़ते रहे, उन्हें हुक्मरान के सामने कभी झुकते नहीं देखा गया.

24 मार्च 1928 को पंजाब (Punjab) के होशियारपुर में जन्मे हबीब जालिब का मूल नाम हबीब अहमद (Habib Ahmed) था. उन्होंने उर्दू शायर जालिब देहलवी (Jalib Dehlvi) की याद में अपने नाम में तखल्लुस जोड़ा था. हबीब जालिब की शुरुआती तालीम राजधानी दिल्ली में पूरी हुई और 1947 में बंटवारे के दौरान उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला किया.

लाइव शो में हुकूमत से पंगा

साल 1959 में जनरल अय्यूब खान द्वारा लगाया गया मार्शल लॉ प्रभाव में था और तानाशाही अपने चरम पर थी. इस दौरान हबीब जालिब पाकिस्तान ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के रावलपिंडी स्टूडियो में हो रहे एक मुशायरे में शामिल हुए. ये मुशायरा स्टूडियो से लाइव चल रहा था. जब हबीब जालिब की बारी आई तो उन्होंने अपनी शायरी के जरिए अन्य कवियों से अलग उस दौर का सच बोलना शुरू कर दिया. इस दौरान उन्होंने कहा...

 “कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियों की बारिश

शब-ए-अहद-ए-कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएं”

 इस शेर के जरिए स्टूडियो से हबीब जालिब साहब की आवाज पाकिस्तान में गूंजने के बाद प्रोग्राम में शामिल लोगों से लेकर अवाम और हुकूमत दंग रह गई. प्रोग्राम का लाइव प्रसारण रोक दिया गया और इसी घटना के बाद हबीब जालिब को पहली बार गिरफ्तार किया गया.

डॉ मोहम्मद सईद उल्ला नदवी उर्दू अखबार रोजनाम नदीम में लिखे एक आर्टिकल में कहते हैं

कि हबीब जालिब, नजीर अकबराबादी के बाद दूसरे सबसे बड़े अवामी शायर थे. उन्होंने तानाशाही के खिलाफ जो किया उसकी कोई मिसाल नहीं है.

साल 1962 का वो दौर जब जनरल अय्यूब खान देश में नए संविधान को बढ़ावा दे रहे थे. उस दौर में युवा शायर हबीब जालिब ने अपनी नज्मों और गजलों के जरिए हुकूमत का विरोध किया और आम अवाम के हक में अपनी आवाज बुलंद की. पाकिस्तान में तानाशाह अय्यूब खान द्वारा राष्ट्रपति शासन लागू करने के बाद बगावती शायर हबीब जालिब ने 'दस्तूर' उन्वान से नज्म लिखी, जो आज भी विरोध प्रदर्शनों का प्रतीक है. इस नज्म ने सरहदों का दायरा तोड़कर सफर किया. हिंदुस्तान में भी विरोध प्रदर्शनों के दौरान ये गुनगुनाई जाती है.

दीप जिस का महल्लात ही में जले

चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले

वो जो साए में हर मस्लहत के पले

ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

 

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूं

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूं

चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूं

तुम नहीं चारागर कोई माने मगर

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

जब ये नज्म अवाम तक पहुंची तो खूब लोकप्रिय हुई, ये नज्म पाकिस्तान में तानाशाही के खिलाफ अवाम में फैले गुस्से और राजनीतिक हताशा की आवाज बन गई. और जब ये हुकूमत के कानों तक पहुंची तो जनरल अय्यूब ने हबीब जालिब को जेल भेज दिया लेकिन इसके बाद भी हबीब जालिब की कलम खामोश नहीं हुई. उन्होंने कभी सत्ता के साथ सम्झौता नहीं किया.

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साल 1965 में भारत-पाकिस्तान (India Pakistan War 1965) के बीच हुई जंग के बाद अय्यूब खान (General Ayyub Khan) को हुकूमत से बेदखल कर दिया और सत्ता की चाबी दूसरे तानाशाह जनरल याह्या खान (General Yahya Khan) को दे दी गई. हबीब जालिब ने यह्या खान को भी नहीं बख्शा, उनकी तानाशाही नीतियों का भी विरोध किया. उन्होंने याह्या खान को नजर में रखते हुए एक गजल लिखी. जिसके शेर इस तरह हैं.

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था,

उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था.

उनका एक और शेर काफी मशहूर है, जो उन्होंने यह्या खान की हुकूमत के वक्त लिखा था.

मोहब्बत गोलियों से बो रहे हो,

वतन का चेहरा ख़ूं से धो रहे हो.

हबीब जालिब के बारे में उर्दू शायर फैज अहमद फैज ने कहा है कि “वली दक्कनी के बाद से कोई शायर हबीब जालिब से ज़्यादा लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल नहीं हो सका. हकीकत में वो अवाम के शायर थे."

साल 1972 में जुल्फिकार अली भुट्टो (Zulfikar Ali Bhutto) सत्ता में आए, वो हबीब जालिब के अच्छे दोस्त थे. वो चाहते थे कि जालिब उनकी नई पार्टी 'पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी' में शामिल हो जाएं.

द क्विंट के लिए लिखे आर्टिकल में रिसर्चर आमिर रज़ा कहते हैं कि एक दिन हबीब जालिब भुट्टो से मिलने गए. भुट्टो ने उन्हें देखकर पूछा, 'आप पार्टी में कब शामिल हो रहे हो?'

इस पर हबीब जालिब ने कहा- 'क्या समंदर कभी नदियों में गिरे हैं?'

शायर हबीब जालिब ने जुल्फिकार अली भुट्टो की आंख में आंख मिलाकर ये बात उस वक्त कही थी जब पाकिस्तान में भुट्टो की हुकूमत हुआ करती थी लेकिन बिना किसी डर के उन्होंने सरकार के साथ हाथ मिलाने से इनकार कर दिया था. हबीब जालिब ने 'पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी' की नीतियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद की.

साल 1977 में जनरल जियाउल हक पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने. हबीब जालिब ने उनसे भी पंगा लिया.

जनरल जिया की सरकार के खिलाफ लिखने की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया. हबीब जालिब ने अपनी नज्म के जरिए जियाउल हक को अंधेरे और अज्ञानता का प्रतीक बताया. जालिब साहब लिखते हैं...

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

पत्थर को गुहर दीवार को दर कर्गस को हुमा क्या लिखना

 

हक़ बात पे कोड़े और ज़िंदां बातिल के शिकंजे में है ये जां

इंसां हैं कि सहमे बैठे हैं खूं-ख़्वार दरिंदे हैं रक़्सां

इस ज़ुल्म-ओ-सितम को लुत्फ़-ओ-करम इस दुख को दवा क्या लिखना

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

 

ऐ मेरे वतन के फ़नकारो ज़ुल्मत पे न अपना फ़न वारो

ये महल-सराओं के बासी क़ातिल हैं सभी अपने यारो

विर्से में हमें ये ग़म है मिला इस ग़म को नया क्या लिखना

ज़ुल्मत को ज़िया सरसर को सबा बंदे को ख़ुदा क्या लिखना

जब हबीब जालिब ने जिया का मजाक उड़ाया

साल 1984 में, जनरल जिया ने अपने शासन को वैधता देने के लिए एक जनमत संग्रह कराने का फैसला किया, जिसमें पूछा गया था कि क्या लोग पाकिस्तान में इस्लामी कानून चाहते हैं. कोई भी वोट देने नहीं आया और हबीब जालिब ने अपनी 'नज्म' 'रेफ़्रेनडम' के जरिए उनका मजाक उड़ाया.

शहर में हू का आलम था

जिन था या रेफ़्रेनडम था

क़ैद थे दीवारों में लोग

बाहर शोर बहुत कम था

कुछ बा-रीश से चेहरे थे

और ईमान का मातम था

मर्हूमीन शरीक हुए

सच्चाई का चहलम था

दिन उन्नीस दिसम्बर का

बे-मअ'नी बे-हंगम था

या वादा था हाकिम का

या अख़बारी कॉलम था

साल 1993 में 12 मार्च को लाहौर में उन्होंने आखिरी सांसें लीं. उनके इंतकाल पर पाकिस्तान के मशहूर उर्दू शायर कतील शिफाई अपना दर्द बयां करते हुए लिखते हैं....

 "अपने सारे दर्द भुलाकर औरों के दुःख सहता था,

हम जब गज़लें कहते थे वो अक्सर जेल में रहता था,

आखिरकार चला ही गया वो रूठ के हम फरज़ानों से,

वो दीवाना जिसको ज़माना जालिब जालिब कहता था"

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