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है दुनिया जिसका नाम रखा, यह और तरह की बस्ती है,
जो महंगों को तो महंगी है, और सस्तों को यह सस्ती है.
यां हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत बस्ती है,
गर मस्त करे तो मस्ती है, और पस्त करे तो पस्ती है.
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अद्लपरस्ती है,
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है.
अगर आप उर्दू अदब में दिलचस्पी रखते हैं, तो नजीर अकबराबादी साहब (Nazeer Akbarabadi) का नाम तो सुना ही होगा. हां, वही नजीर साहब जिन्होंने दुनियावी रवायात, हिंदुस्तान की तहजीब, सांस्कृतिक एकता और तमात तरह के त्योहारों को अपने कलाम का हिस्सा बनाया. 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत की गंगा जमुनी तहजीब और पुराने सामाजिक ताने-बाने के उस दौर में झांकने के लिए लोग नजीर अकबराबादी को याद करते हैं.
साल 1735 में जन्मे नजीर अकबराबादी उत्तर प्रदेश में स्थित ताज नगरी आगरा के अकबरपुर से ताल्लुक रखते थे. उनका मूल नाम शेख वली मुहम्मद था. कई जगहों पर यह भी दावा किया जाता है कि उनकी पैदाइश दिल्ली में हुई और बाद में वो आगरा कूच कर गए. उनकी लेखनी में भी आगरा का जिक्र देखने को मिलता है.
आशिक़ कहो, असीर कहो, आगरे का है
मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है
मुफ़लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है
लेखनी के मौजू हों, जबान हो या लहजा...नजीर साहब का कलाम हर तरह से बेनजीर है. उन्होंने अपने दौर में उन विषयों पर कलम उठाई, जो बीसवीं शताब्दी में प्रगतिशील शायरों और कवियों के रहे.
क्या हिंदू और मुसलमां, क्या रिंद-ओ-गबर-ओ-काफ़िर
नक़्क़ाश, क्या मुसव्विर, क्या ख़ुश नवीस शायर
जितने नज़ीर हैं यां, इक दम के हैं मुसाफ़िर
रहना नहीं किसी को, चलना है सबको आख़िर
उर्दू लेखक मौलाना सैय्यद अहमद देहलवी 'फ़रहंगे आसफ़ीया' में लिखते हैं कि
नजीर अकबराबादी का दौर वो था, जब हिंदुस्तान में मुगल सल्तनत का असर कम हो गया था और अंग्रेजों ने देश पर कब्जा कर लिया था. इस दौर को उर्दू शायरी का सुनहरा दौर माना जाता है. मीर तकी मीर, मिर्जा सौदा, ख्वाजा मीर दर्द जैसे शायर उर्दू शायरी के फलक पर कहकशां बनाए हुए थे. इसी सुनहरे दौर में नजीर साहब ने लीक से हटकर अवामी मौजू पर शायरी की. दरबारी शायरों और वजीफा लेने के उस जमाने में उन्होंने खुद को इस रवायत से अलग रखा. उन्होंने आम लोगों की समझ और दिलचस्पी पर निगाह रखी, यहां तक कि जिंदगी और मौत, जिंदगी की मंजिलें, मौसम और त्योहार, अमीरी और गरीबी, इश्क और मजहब, मनोरंजन और जिंदगी की भाग-दौड़ और ताज नगरी की सेक्यूलर रवायतों पर अपनी कलम चलाई. वो अपनी नज्म 'रोटीनामा' में लिखत हैं...
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां
आंखें परी-रुखों से लड़ाती हैं रोटियां
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियां
वो अपनी एक दूसरी नज़्म में लिखते हैं...
पैसे ही का अमीर के दिल में ख़याल है
पैसे ही का फ़क़ीर भी करता सवाल है
पैसा ही फ़ौज पैसा ही जाह-ओ-जलाल है
पैसे ही का तमाम ये दंग-ओ-दवाल है
पैसा ही रंग-रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्ख़े की माल है.
मरहूम उर्दू शायर सीमाब अकबराबादी ने कहा है कि
नजीर साहब ने जिस खुलूस और जोश के साथ हिंदू मजहब के विषयों पर नज्में लिखी हैं वैसा कोई हिंदू शायर भी नहीं लिख सका. उन्होंने होली, दिवाली और रक्षा बंधन जैसे त्याहारों के लिए एक दर्जन से ज्यादा कविताएं लिखीं.
हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दीवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का
दूसरी ओर अगर मुस्लिम त्योहारों की बात करें तो नज़ीर साहब ने सिर्फ तीन कविताएं ईद-उल-फित्र, ईद-उल-अजहा और शब-ए-बारात के लिए लिखीं. वो अपनी नज्म ईद-उल-फित्र में लिखते हैं.
पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है
शीर-ओ-शकर सिवइयां पकाने की धूम है
पीर-ओ-जवां को नेमतें खाने की धूम है
लड़कों को ईदगाह में जाने की धूम है
ऐसी न शब-बरात न बक़रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी
प्रो.इब्ने कंवल अपनी किताब 'नजीर अकबराबादी (अहवाल-ओ-इंतिख़ाब)' में लिखते हैं
नजीर अकबराबादी के अश'आर पढ़ने से ये मालूम होता है कि उन्होंने भारतीय त्योहारों को मजहबी नजरों से नहीं बल्कि इंसानी नजरों से देखा. वो जिधर भी खुशहाली और उत्सव देखते थे, उसमें शामिल होने की कोशिश करते थे...उस पर कलम चलाने का रुतबा रखते थे. यही हिंदुस्तान की मिली-जुली तहजीब की आत्मा है, यही असली भारत है, जो हिंदुस्तानियों का है- हिंदुओं और मुसलमानों का नहीं.
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