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नजीर अकबराबादी, अवाम का बिसरा हुआ शायर

नजीर अकबराबादी शायद हिंदुस्तानी के पहले कवि थे. अगर कोई समझाना चाहे कि हिंदुस्तानी भाषा कैसी थी तो इनकी कविता पढ़े.

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18वीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली और आस-पास के इलाके में एक नई भाषा उभर रही थी. ये नई भाषा स्थानीय बोलियों, जो आज की हिंदी और फारसी (उस समय के शाही दरबार की भाषा), का मिला-जुला रूप थी. बिना किसी लिपि और व्याकरण या नियमों वाली इस भाषा को हिंदुस्तानी कहा जाने लगा.

नजीर अकबराबादी (1735-1830) शायद हिंदुस्तानी के पहले कवि थे. अगर कोई समझाना चाहे कि हिंदुस्तानी भाषा कैसी थी, तो इस तरह समझा सकता है; एक तरफ संस्कृत शब्दों वाली हिंदी है, और दूसरी तरफ उर्दू जिसमें फारसी शब्द हैं - हिंदुस्तानी इन दो सिरों के बीच का कोई बिंदु है.

लेखन शैली और लेखन के विषयों, दोनों के नजरिए से देखा जाए तो नजीर अकबराबादी आवाम के शायर थे. उनकी शायरी में आम-आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी नजर आती है.

उन्होंने होली, दीपावली, कृष्ण जन्माष्टमी जैसे भारतीय त्योहारों के बारे में लिखा, गुरु नानक जैसे धार्मिक चरित्र पर लिखा, आगरा के बाजार में ककड़ी बेचने वाले पर लिखा, तमाशे में नाचने वाले भालू के बच्चे पर लिखा, असल जिंदगी की असल परेशानियों के बारे में लिखा.

लम्हों और पलों का शायर

दिल्ली के वली मुहम्मद परिवार ने 1739 में फारसी आक्रमणकारी नादिर शाह को दिल्ली को जीतते देखा. 1757 में एक बार फिर अफगानी आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली का हमला हुआ. उन दिनों नजीर आगरा (अकबराबाद) चले आए. आगरा में ही उन्होंने अकराबादी तखल्लुस अपनाया और वे अपने वक्त के मशहूर शायर बन गए.

नजीर लम्हों में जीने वाले शायर थे, उन्होंने कभी अतीत की शानो शौकत के कसीदे नहीं पढ़े, ना ही उन्होंने राजे-रजवाड़ों के लिए लिखा. नजीर की दुनिया रोजमर्रा की जिंदगी की तकलीफों, उसकी नाकामियों और कामयाबियों में ही बसती थी. उन्होंने जिंदगी के उन पहलुओं पर लिखा जिन्हें उनके दौर के रईस शायरों ने कमतर समझ कर छोड़ दिया था.


उनकी शायरी में मजदूर हैं, दलाल हैं, व्यापारी हैं, सूफी हैं, गांव वाले हैं जो शहर जाकर रोजी कमते हैं, लुटेरे हैं, बंजारे है, पतंग उड़ाने वाले हैं. सबसे खास बात ये है कि नजीर ने दरबारी जुबान फारसी में न लिखकर आम बोलचाल की भाषा हिंदुस्तानी में लिखा, जो सबके लिए आसान थी.




नजीर अकबराबादी शायद हिंदुस्तानी के पहले कवि थे. अगर कोई समझाना चाहे कि हिंदुस्तानी भाषा कैसी थी तो इनकी कविता पढ़े.
नजीर की कविता में आम लोग हैं, जिंदगी है, ताकत है. ये कविताएं कवितापाठ के लिहाज से बेहद उम्दा हैं. (फोटो: iStock)

नज्मों के अपने मायने

कहा जाता है कि नजीर ने करीब 2,00,000 कविताएं लिखीं. लेकिन, आज सिर्फ 6,000 कविताएं ही मौजूद हैं. नजीर की खासियत थी उनकी नज्में, जो तुकबंदी में लिखी जाने वाली कविता है. नज्म उर्दू अदब का एक खास हिस्सा, इसके अलावा दूसरा खास हिस्सा गजल है. नजीर के काम में उनका ‘बंजारानामा‘ और ‘आदमीनामा‘ खास हैं.

नजीर की कविता में आम लोग हैं, जिंदगी है, ताकत है. ये कविताएं कवितापाठ के लिहाज से बेहद उम्दा हैं. पर उनके वक्त में उनकी कविताओं को सनसनीखेज कहकर कविता के कथिक अच्छे मिजाज को बचाए रखने के लिए दरकिनार कर दिया गया था. हालांकि, आम आदमी को ये कविताएं अपने ज्यादा करीब लगीं. और नजीर ने उनके दिलों पर इन कविताओं के जरिए कब्जा कर लिया.


सन 1954 में मशहूर नाटककार और निर्देशक हबीब तनवीर ने अपना पहला नाटक ‘आगरा बाजार‘ पेश किया जो नजीर के काम और उनके वक्त को ध्यान में रखते हुए लिखा गया था.

नीचे लिखी पंक्तियां नजीर के काम की खासियतों का एक नमूना भर हैं. यहां आप उनकी शायरी और उसमें बसी मिट्टी की खुशबू को करीब से महसूस कर सकते हैं:


दीवाली की कविता

हमें अदाएं दीवाली की जोर भाती हैं,
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं,
चिराग जलते हैं और लौएं झिलमिलाती हैं,
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं,
गुलाबी बर्फियों के मुंह चमकते-फिरते हैं

जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं ।
हर एक दांत से पेड़े अटकते-फिरते हैं ।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं ।


होली की कविता

और एक तरफ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के,
कुछ नाज जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के,
कुछ लचकें शोख कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फड़के,
कुछ काफिर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

गुरु नानक पर कविता

हैं कहते नानक शाह जिन्हें वह पूरे हैं आगाह गुरू,
वह कामिल रहबर जग में हैं यूं रौशन जैसे माह गुरू,
मक्सूद मुराद, उम्मीद सभी, बर लाते हैं दिलख्वाह गुरू,
नित लुत्फो करम से करते हैं हम लोगों का निरबाह गुरु,
इस बख्शिश के इस अजमत के हैं बाबा नानक शाह गुरू,
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू,

आदमीनामा से

अच्छा भी आदमी ही कहता है, ऐ नजीर,
और, सब में जो बुरा है, वो भी आदमी ही है.

(लेखक एक मशहूर पब्लिशिंग फर्म के संपादक हैं)

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