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जाति-विरोधी कार्यकर्ता बहुत लंबे समय से एक व्यापक जातिगणना (Caste Census) की मांग कर रहे हैं. केवल कार्यकर्ता ही नहीं, कई पिछड़े वर्गों के आयोगों के सदस्यों, नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और यहां तक कि अदालतों ने भी विभिन्न उद्देश्यों के लिए अलग-अलग जातियों और जाति समूहों पर डेटा की आवश्यकता महसूस की है.
बिहार के जाति सर्वेक्षण ने इस जरूरत को पूरा करने का वादा किया था, भले ही एक राज्य के लिए. लेकिन वह भी अब पटरी से उतर गया है.
पटना हाईकोर्ट ने तीन बिंदुओं पर आपत्ति जताने के बाद इस जनगणना पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने मुख्य रूप से इस आधार पर रोक लगाई कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार इसे भ्रामक तरीके से सर्वे बताकर जनगणना करा रही है, जबकि जनगणना कराने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के पास रहता है.
बिहार सरकार ने राज्य में जाति आधारित जनगणना पर अंतरिम रोक लगाने के पटना हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है.
जाति गणना का विषय पिछले कुछ सालों से सुर्खियां बटोर रहा है. हाल ही में, राहुल गांधी ने विधानसभा चुनाव से पहले कर्नाटक में एक भाषण के दौरान कहा कि, भारत की दशकीय जनगणना में जाति के आंकड़े एकत्र करने की मांग को अपना स्पष्ट समर्थन दिया है और उनकी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने आधिकारिक कार्यक्रम में भी जाति गणना की मांग को शामिल किया है.
वहीं, अप्रैल में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन 'जाति जनगणना' की मांग के लिए भारतीय जनता पार्टी के विरोध में सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को एक मंच पर लेकर आए.
स्टालिन की पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने भी केंद्र सरकार से संविधान में संशोधन करने के लिए कहा है ताकि राज्यों को अपनी स्वयं की जनगणना कराने की अनुमति दी जा सके, यदि वह अपने दम पर जाति गणना कराने को तैयार नहीं है.
इस दलील से नरेंद्र मोदी सरकार के हिलने की संभावना नहीं है. इसके अलावा, सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वह जनगणना में जातिगत डेटा एकत्र नहीं करेगी. हालांकि, इस मोड़ पर, दशकीय जनगणना के 2021 संस्करण का भाग्य ही सवालों के घेरे में है. सरकार ने शुरुआत में कोविड-19 महामारी की असाधारण परिस्थितियों के कारण जनगणना को स्थगित कर दिया था. अब ऐसी कोई स्थिति नहीं है, लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार ने जनगणना कराने की इच्छा में पूरी तरह से कमी दिखाई है.
यह मान लेना अनुचित नहीं होगा कि इस प्रश्न पर केंद्र सरकार की इच्छा न होने के कारण राज्य सरकारों ने अपनी स्वयं की जनगणना कराने की आवश्यकता महसूस की होगी.
बिहार के बाद, ओडिशा सरकार ने भी अपनी खुद की जनगणना कराने का फैसला किया. हालांकि इसकी कवायद अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तक ही सीमित रहेगी.
राज्यों को अपनी सभी नीति निर्माण संबंधी जरूरतों के लिए 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर निर्भर रहना पड़ता है. हालांकि, तेजी से बदलती इस दुनिया में डेटा पुरानी लगती है. जाति संबंधी आंकड़ों के लिए, सरकारों को समय से भी बहुत पीछे जाना पड़ता है. यानी कि 1931 की जनगणना तक.
यदि न्यायालय द्वारा बिहार जाति 'सर्वे' कराने की अनुमति दी जाती है तो सरकार, शोधकर्ताओं और जनता के लिए ये एक मूल्यवान संसाधन होता. हालांकि, कानूनी क्षेत्राधिकार का यह कठिन मुद्दा है.
फिलहाल पटना हाईकोर्ट ने 3 जुलाई के लिए यह फैसला सुरक्षित रख लिया है. बता दें कि 'जाति जनगणना' दो चरणों में किया जा रहा था. पहला चरण जनवरी में ही पूरा हो चुका है और दूसरे चरण का भी आधे से ज्यादा काम खत्म हो चुका था, लेकिन हाईकोर्ट के स्टे के चलते अब सारा काम ठप पड़ा है.
पटना हाई कोर्ट के आदेश से पहले नीतीश कुमार ने इस बात पर हैरानी जताई थी कि, 'मुझे समझ में नहीं आ रहा कि जाति गणना का विरोध क्यों हो रहा है? हम सभी इससे सभी वर्ग के लोगाें की आर्थिक स्थिति का पता लगाने में सक्षम होंगे. इससे किसे नुकसान होगा?'
बिहार की कवायद स्पष्ट रूप से भारत की दशकीय जनगणना पर आधारित है. जनवरी में किए गए पहले चरण में बिहार के प्रगणक ने हाउसलिस्टिंग की और 15 अप्रैल से शुरू की गई दूसरे चरण में प्रगणक राज्य के मूल निवासी प्रत्येक व्यक्ति गणना करने के लिए आयु, लिंग, व्यवसाय, जाति आदि सहित 17 प्रश्नों वाली एक प्रश्नावली भरने के लिए निर्धारित किया था.
ये दो चरण राष्ट्रीय जनगणना के समान हैं. साथ ही, तथ्य यह है कि यह कवायद बिहार के प्रत्येक व्यक्ति के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र करेगा जो इसे एक जनगणना बनाता है; सर्वेक्षण के दायरे में अधिक सीमित है.
हालांकि निजता के संबंध में पटना उच्च न्यायालय की आपत्ति उतनी ठोस नहीं है. कोर्ट ने इस बात पर चिंता जताई है कि बिहार सरकार 'सर्वे' का डेटा राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ साझा करेगी, जो लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा. हालांकि, यहां की अदालत ने इस बुनियादी तथ्य को याद किया है कि जब इस तरह का कोई डेटा सेट सार्वजनिक डोमेन में जारी किया जाता है, तो सभी व्यक्तिगत पहचान वाले विवरण हटा दिए जाते हैं. अगर अदालत को संदेह है कि सरकार के पास इस सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत नियम का पालन करने की समझदारी नहीं है, तो वह सरकार को ऐसा करने के लिए स्पष्ट निर्देश दे सकती है.
अगर बिहार सरकार केंद्र सरकार के कामकाज में दखल दे रही है, तो केंद्र को उसके खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए सही पक्ष होना चाहिए था. हालांकि, ऐसा नहीं किया है. याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को गंभीरता से लेना भी कठिन है कि जाति गणना "राजनीति से प्रेरित" है. राजनेता जो कुछ भी करते हैं उसके लिए राजनीतिक उद्देश्यों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन यह एक ठोस आलोचना नहीं है.
इस सवाल को यह फिलहाल छोड़ देते हैं कि क्या राज्य सरकार ऐसी गतिविधि कर सकती है जो संघ सूची में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है और समवर्ती सूची में नहीं है, लेकिन इसका जवाब पाने के लिए हमें 3 जुलाई तक का इंतजार करना होगा.
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