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कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद:भाषा-संस्कृति की लड़ाई का समाधान कोर्ट दे सकता है?

Karnataka-Maharashtra Border Dispute: बॉर्डर के दोनों ओर 'विवादित' क्षेत्रों के स्थानीय लोग क्या चाहते हैं?

ईश्वर रंजना
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>Karnataka-Maharashtra Border Row</p></div>
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Karnataka-Maharashtra Border Row

(प्रतीकात्मक फोटो- क्विंट)

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पहली हेडलाइन- 'महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा- एक इंच भी जमीन नहीं दी जाएगी'

दूसरी हेडलाइन- 'कर्नाटक CM के महाराष्ट्र के सांगली स्थित जठ तहसील पर दावा करने से राजनीतिक विवाद छिड़ गया'

तीसरी हेडलाइन- 'महाराष्ट्र के 40 गांवों कर्नाटक में शामिल होना चाहते हैं'

अगर कोई महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद  (Karnataka-Maharashtra Border Row) को गूगल करे, तो पिछले कुछ हफ्तों से ऐसी कई सुर्खियां सामने आई हैं. यह सीमा विवाद पिछले 66 सालों से चला आ रहा, जब मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) को 1956 में बॉम्बे राज्य से अलग किया गया था.

राजनीतिक रूप से इस मोर्चे पर कोई प्रगति नहीं होने के कारण, महाराष्ट्र सरकार 2004 में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गयी, लेकिन वहां भी यह मामला तब से आगे नहीं बढ़ा. दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों, एकनाथ शिंदे और बसवराज बोम्मई के बीच हाल की जुबानी जंग के बाद विवाद फिर से गरमा गया है. अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हस्तक्षेप किया है और दोनों राज्यों से कहा कि वे इस मामले को तब तक आगे न बढ़ाएं जब तक कि "सुप्रीम कोर्ट इसका समाधान नहीं कर देता."

कर्नाटक के CM बसवराज बोम्मई, महाराष्ट्र के CM एकनाथ शिंदे और डिप्टी CM देवेंद्र फडणवीस के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह

(फोटो- PTI)

अमित शाह ने भले ही बीजेपी शासित इन दो राज्यों से आती सुर्खियों की रफ्तार को धीमा कर दिया हो, लेकिन इस विवाद का 'समाधान' कहीं दूर है और इस बीच कई सवाल सामने आ रहे हैं.

  • क्या सुप्रीम कोर्ट वास्तव में इस विवाद को सुलझा सकता है? क्या दो राज्यों के बीच सीमा विवाद को हल करना उसके अधिकार क्षेत्र में है?

  • यदि हां, तो इसमें किन बातों का ध्यान रखना होगा?

  • बॉर्डर के दोनों ओर और बेलगावी, निपानी और कारवार जैसे 'विवादित' क्षेत्रों के स्थानीय लोग क्या चाहते हैं? क्या मामला कानूनी है, या यह उससे अधिक एक सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दा है?

पहले विवाद पर एक नजर 

इस विवाद से उपजे सवालों पर गौर करने से पहले, 66 साल पुराने इस सीमा विवाद को डिटेल में जानने के लिए यहां क्लिक करें.

भले ही यह विवाद दशकों से चला आ रहा है, तीन प्रमुख कारक हैं जिनके कारण हाल ही में यह फिर से गरमा गया है:

  • विवाद को कानूनी रूप से आगे बढ़ाने के लिए एकनाथ शिंदे ने तीन मंत्रियों की एक समिति बनाई.

  • इसके जवाब में CM बोम्मई ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले दमखम दिखाने के लिए महाराष्ट्र के जठ क्षेत्र में कन्नड़-बहुसंख्यक गांवों पर दावा कर दिया.

  • दोनों राज्यों में विपक्षी पार्टियों ने दोनों पक्षों के दावों और प्रतिदावों को लेकर संबंधित बीजेपी+ सरकारों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

एक्टिविस्ट, लेखक, और महाराष्ट्र एकीकरण समिति (MES) के एक पदाधिकारी गुणवंत पाटिल (56) इन तीन क्षेत्रों को महाराष्ट्र में शामिल करने की वकालत करते हैं. उन्होंने कहा कि विवाद के समाधान पर विचार करने के दौरान इन क्षेत्रों में मराठी भाषी लोगों के हितों पर ध्यान देने की आवश्यकता है.

1984 में गठित, MES बेलगावी, निपानी, खानापुर और कारवार के अलावा कर्नाटक के लगभग 864 गांवों को महाराष्ट्र में जोड़ने की मांग करती है और इस मुद्दे पर चुनाव लड़ती है.

गुणवंत पाटिल ने कहा कि "अगर सुप्रीम कोर्ट राज्यों के बंटवारे के दौरान दाखिल डाक्यूमेंट्स, मौजूदा जमीनी हालात, बहुसंख्यकों की भाषा और संस्कृति पर विचार करता है, तो वो हमारे पक्ष में निर्णय देगा."

दूसरी तरफ बेलगावी जिला कन्नड़ संगठन कृति समिति के अध्यक्ष अशोक चंदागढ़ी ने कहा कि सीमा विवाद पर निर्णय लेने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है. यह दावा करते हुए कि इन क्षेत्रों में मराठी भाषी लोग अब बहुसंख्यक नहीं हैं, अशोक चंदागढ़ी ने कहा कि

"सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पहले क्षेत्राधिकार के आधार पर होनी चाहिए. संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत, केवल संसद के पास राज्य की सीमाओं पर निर्णय लेने या क्षेत्रों को ट्रांसफर करने की शक्ति है. उन्होंने (महाराष्ट्र) 50 साल बाद फैसले को चुनौती दी है. हमारा स्टैंड यह है कि सुप्रीम कोर्ट के पास इस मामले में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है. याचिका मैंटेनेबल नहीं है, और इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए."

तो, क्या सुप्रीम कोर्ट के पास निर्णय लेने की शक्ति है?

इस सवाल पर सीमा विवादों के कानूनी विशेषज्ञ एडवोकेट शाहरुख अली ने कहा कि "हां, उसके पास है."

उन्होंने कहा कि "हमारे पास संविधान में एक विशिष्ट प्रावधान अनुच्छेद 131 है, जो एक राज्य को दूसरे राज्य के खिलाफ मामला दर्ज करने की अनुमति देता है. एक राज्य (जो दूसरे राज्य को अदालत में घसीट रहा है) को यह दिखाने की जरूरत है कि किसी मुद्दे पर विवाद है और उसका कोई ऐसा कानूनी अधिकार है जिसका इस विवाद में उल्लंघन किया जा रहा है या अन्य राज्यों के एक्शन से प्रभावित हो रहा है."

"फिर, यदि मामले की वैधता स्थापित हो जाती है, तो आखिर में, किसके पास यह तय करने की शक्ति है कि सीमा कहां खींची जानी है? इसका उत्तर है- संसद. संविधान के अनुच्छेद 3 में विशेष रूप से ऐसे विवादों से संबंधित सभी सवालों के जवाब हैं. यह संसद को उन पर निर्णय लेने की शक्ति देता है"
एडवोकेट शाहरुख अली
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जब 1956 में मैसूर राज्य को बॉम्बे राज्य से निकालकर नया राज्य बनाना था तो राज्य पुनर्गठन अधिनियम (फजल अली समिति के अनुसार गठित) का पालन किया गया था, जो भाषाई आधार पर राज्यों कीे सीमा तय करता था. जब आगे महाराष्ट्र ने दावा किया कि कई मराठी-बहुल जिले और गांव कर्नाटक में चले गए हैं तो इसपर विचार करने के लिए 1966 में महाजन समिति का गठन किया गया था. इसकी रिपोर्ट एक साल बाद प्रकाशित हुई थी लेकिन महाराष्ट्र ने इसे खारिज कर दी थी.

एडवोकेट शाहरुख अली के अनुसार "तो, केवल यही सवाल होगा कि क्या क्षेत्रों का विभाजन उचित या तार्किक हुआ है? या दूसरे शब्दों में, क्या विभाजन गलत या मनमाने ढंग से हुआ? वे कह सकते हैं कि आपने दूसरे राज्यों के लिए एक विशेष पैरामीटर का पालन किया, लेकिन महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच विभाजन करने के लिए आपने पूरी तरह मनमाना या अनुचित पैरामीटर का पालन किया."

सबकुछ मिलाकर एडवोकेट अली ने कहा कि

सुप्रीम कोर्ट के पास राज्यों के बीच विवाद हैं या नहीं, यह निर्धारित करने की शक्ति है. इसमें शिकायतकर्ता राज्य को यह साबित करने की आवश्यकता है कि विवाद में उसके किस कानूनी अधिकार का उल्लंघन हो रहा है, जिसपर वह चाहता है कि SC गौर करे.

संसद के पास संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत राज्य बनाने, उसकी सीमाएं तय करने और दो राज्यों के बीच क्षेत्रों का आदान-प्रदान करने की शक्ति है.

इस मामले में कोर्ट द्वारा परीक्षण स्थिति पर निर्भर और सीमित है. कोर्ट को जब यह पता चलता है कि एक निश्चित विधायी निकाय के पास उस कानून का प्रयोग करने की शक्ति है - जो सीमा विवाद के मामले में संसद है - तब वह उन क्षेत्रों में प्रवेश नहीं करता है जो नीति से संबंधित हैं.

कोर्ट की सीमित भूमिका इसकी जांच होगी कि क्या सीमा तय करने के लिए जिम्मेदार विधायी निकाय का फैसला गलत, मनमाना या तर्कहीन रहा है या नहीं? इस मामले में सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न पक्षों को यह साबित करने की आवश्यकता होगी कि फजल समिति की रिपोर्ट, SRA, और महाजन समिति की रिपोर्ट या तो महाराष्ट्र के दावों के पक्ष में है या उसके विरुद्ध है.

तो, क्या इसे पूरी तरह से कानूनी रूप से सुलझाया जा सकता है?

बेलगावी के वरिष्ठ पत्रकार, प्रसाद प्रभु ने कहा कि अगर इन क्षेत्रों में रहने वाले मराठी भाषी लोगों को कर्नाटक द्वारा अधिक सम्मान दिखाया जाता तो यह विवाद आजतक नहीं चलता.

"देश में मौजूदा कानूनों के अनुसार, बेलगावी जैसी जगह में दो भाषा बनाए रखा जाना चाहिए था. लेकिन यहां के अधिकांश मराठी भाषी लोगों को लगता है कि उन पर कन्नड़ थोपा जा रहा है. उनपर अक्सर टिप्पणी होती है कि "कन्नड़ में बोलें, नहीं मराठी में" या "आप कर्नाटक में रहते हैं और यहां का खाते हैं". अल्पसंख्यक आयोग का भी इसके खिलाफ नियम है. यहां तक ​​कि उन्होंने बेलगाम से बेलगावी तक का नाम बदल दिया और यहां एक विधानसभा बनाया गया. कुछ मुद्दों को केवल राजनीति के लिए हवा दी जा रही है."
प्रसाद प्रभु,वरिष्ठ पत्रकार

पाटिल ने भी बेलगावी क्षेत्र में मराठी भाषी लोगों पर जबरदस्ती कन्नड़ थोपने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा "सभी सरकारी ऑफिस में काम केवल कन्नड़ में होता है. कानून के अनुसार, भले ही किसी विशेष क्षेत्र में अल्पसंख्यक हों, उन्हें उस भाषा में डॉक्यूमेंट मिलना चाहिए, जो वे समझते हैं. लेकिन यहां मराठी में कोई डॉक्यूमेंट नहीं दिया जा रहा है."

उन्होंने इन क्षेत्रों में मराठी शिक्षण संस्थानों और आयोजित होने वाले साहित्य उत्सवों को कमजोर करने के प्रयासों का भी आरोप लगाया.

दूसरी ओर चंदागढ़ी ने महाराष्ट्र के दावों को खारिज करते हुए कहा कि बाद के राजनेताओं, प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने इस मुद्दे पर बार-बार अपना रुख बदला और इसकी राजनीति को जिन्दा रखा.

पाटिल ने विवाद के लगातार राजनीतिकरण पर निराशा जाहिर की. उन्होंने कहा "इस मुद्दे का राजनीतिकरण बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए था क्योंकि यह लोगों के जीवन और आजीविका का मामला है. राजनीतिक ड्रामा करना उनके संघर्षों का मजाक बनाने जैसा है. जठ क्षेत्र (महाराष्ट्र के) में लोग सूखे और पानी की कमी से जूझ रहे हैं. दोनों राज्यों को सीमावर्ती गांवों के प्रति सहानुभूति दिखाने की जरूरत है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण ऐसा शर्त रखने जैसा है कि प्यासे को पानी तभी मिलेगा कि समय आने पर वे उनके साथ होंगे. सूखा प्रभावित लोगों पर राजनीति करना दोनों राज्यों के स्तर के नीचे की बात है".

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