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Maharashtra: उद्धव ठाकरे Vs एकनाथ शिंदे - दोनों के पास अब क्या विकल्प बचे हैं?

Eknath Shinde के पास संख्याबल, Uddhav Thackeray के पास कुनबा बचाने की जद्दोजहद- Maharashtra की राजनीति कहां जा रही?

आशुतोष कुमार सिंह
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>Maharashtra: उद्धव ठाकरे बनाम एकनाथ शिंदे - दोनों के पास अब क्या विकल्प बचे हैं?</p></div>
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Maharashtra: उद्धव ठाकरे बनाम एकनाथ शिंदे - दोनों के पास अब क्या विकल्प बचे हैं?

(फोटो- Altered By Quint)

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महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी सरकार को एकनाथ शिंदे ने बड़ा झटका (Maharashtra Political Crisis) दिया है. बाला साहेब ठाकरे के ‘हिंदुत्व’ के पैमाने पर उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) को तौलते हुए शिंदे पार्टी के 55 विधायकों में से 40 से अधिक के साथ असम चले गए हैं. एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों की बगावत से महाराष्ट्र के सियासत पर अनिश्चितता के बादल छा गए हैं.

एक तरफ संजय रावत ने कहा है कि अगर बागी शिवसेना विधायक 24 घंटों के अंदर वापस आ जाते हैं तो उद्धव ठाकरे MVA सरकार को छोड़ने पर विचार कर सकते हैं. वहीं दूसरे तरफ शिंदे गुट संख्या बल की ताकत पर उद्धव ठाकरे को कोई मुरव्वत देते नहीं दिख रहा.

ऐसे में सवाल है कि मौजूदा स्थिति में संख्या बल और दल-बदल कानून को देखते हुए उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे- दोनों के पास आगे कौन से राजनीतिक विकल्प मौजूद हैं. इसी को समझने की यहां कोशिश करते हैं.

एकनाथ शिंदे के पास क्या है आगे की राह?

जैसे ही एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के बागी विधायकों की संख्या ने 37 के जादुई आंकड़े को पार कर लिया, इसने महाराष्ट्र में नई सरकार गठन की दिशा तय कर दी.

आपको बता दें कि दल बदल कानून के अनुसार किसी पार्टी के अगर ⅔ विधायक दल-बदल करते हैं तो वे अयोग्य घोषित नहीं होते हैं. चूंकि शिवसेना के पास मौजूदा विधानसभा में कुल 55 विधायक हैं, इस स्थिति में 37 ही जादुई आंकड़ा है.

अब एकनाथ शिंदे और बागी विधायक अपने मौजूदा संख्याबल के साथ आसानी से बिना दल बदल कानून के डर के बीजेपी में मिल सकते हैं और सरकार बना सकते हैं.

वर्तमान सदन में 106 विधायकों के साथ बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है, और शिंदे के 40 MLA के दावे के साथ यह आंकड़ा 146 तक जा सकता है. साथ ही पहले से ही छोटे दलों या निर्दलीय सात विधायक शिंदे समूह की ओर बढ़ चुके हैं. ऐसी स्थिति में बीजेपी के पास 144 का बहुमत का आंकड़ा आसानी से होगा और सरकार भी उसी की होगी.

एकनाथ शिंदे के पास दूसरा विकल्प यह होगा कि वे 40 से अधिक विधायकों के गुट के साथ खुद को ‘असली’ शिवसैनिक पार्टी बताये और उद्धव ठाकरे को ही हाशिए पर ढ़केल बीजेपी के साथ गठबंधन में सरकार बना लें. ऐसी स्थिति में उन्हें पार्टी पर कब्जा करने और सिंबल जीतने के लिए चुनाव आयोग के पास जाना होगा.

हालांकि ऊपर के दोनों विकल्पों में शिंदे के लिए नफा और नुकसान दोनों हैं. शिवसेना में उद्धव के बाद नंबर दो माने जाने वाले एकनाथ शिंदे वर्तमान सरकार में शहरी विकास और लोक निर्माण मंत्री हैं. अगर बीजेपी के साथ सरकार बनाते हैं तो माना जा रहा है कि उन्हें उप-मुख्यमंत्री पद की पेशकश की जा सकती है.

बावजूद इस पेशकश के, एक बार उन्हें याद होगा कि बीजेपी जैसी अखिल भारतीय पार्टी राज्यों में कैसे क्षेत्रीय पार्टियों पर हावी हो जाती है और कई बार उन्हें अपने में मिलाकर उसका वजूद तक खत्म कर देती है. बिहार का उदाहरण ही बताता है कि भले ही नीतीश कुमार सरकार चला रहे हैं लेकिन बीजेपी को मिले- बिग ब्रदर के तमगे के तले वो दबे हुए हैं और उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता की एक सीमा है.

इसके अलावा एकनाथ शिंदे बिना उद्धव ठाकरे का साथ छोड़े उन्हें मजबूर कर दें कि उद्धव बीजेपी के साथ सरकार बनाए. ऐसी स्थिति में बीजेपी-शिवसैनिक की जो सरकार बनेगी, उसमें शायद ही उद्धव ठाकरे के पास सीएम की कुर्सी रहे. साथ ही यह कदम पार्टी के अंदर भी उद्धव ठाकरे के कद को बहुत नुकसान पहुंचा सकता है.

शिंदे गुट राज्यपाल से भी संपर्क कर सकता है और एमवीए सरकार के बहुमत को चुनौती दे सकता है. इस तरह गेंद राज्यपाल के पाले में गिर सकती है.

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एक सवाल यह भी है कि क्या एकनाथ शिंदे नई पार्टी बना सकते हैं? दलबदल कानून कहता है कि नहीं. अगर वह ⅔ विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ते हैं तो उन्हें किसी मौजूदा पार्टी में शामिल/मर्ज होना पड़ेगा. अगर वह नई पार्टी बनाने की कोशिश करते हैं तो उसे दलबदल कानून के तहत स्वेच्छा से पार्टी सदस्यता को त्यागना माना जाता है, और वह उन्हें विधायक बने रहने से अयोग्य कर देगा.

नई पार्टी बनाने की दूसरी परेशानी यह भी है कि शिंदे खुद एक कद्दावर नेता नहीं बल्कि कद्दावर लॉबिस्ट हैं. यानी अपने चेहरे के दम पर वो अपने साथ आने वाले विधायकों को चुनाव में वोटों की गारंटी नहीं दे सकते. साथ ही अगर वो शिवसेना छोड़ नई पार्टी बनाते हैं तो ‘हिंदुत्व’ और बाला साहेब जैसे फैक्टर के साथ बना बनाया शिवसेना का ब्रांड उनके हाथ से निकल जाएगा.

उद्धव ठाकरे के पास क्या विकल्प हैं?

सबसे पहले तो उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद का मोह छोड़कर अपना कुनबा- शिवसेना बचाने की कोशिश करेंगे और उन्होंने यह किया भी है. जैसे ही बुधवार, 22 जून को उन्होंने मुख्यमंत्री निवास को छोड़कर ठाकरे परिवार के पुश्तैनी आवास का रुख किया- उन्होंने साफ कर दिया कि वो अपने हाथ से बाला साहेब ठाकरे के बनाए इस पार्टी की कमान छोड़ने को तैयार नहीं है, भले ही इसके लिए उन्हें सत्ता गंवानी पड़े.

अभी तक के विकास से लगता है कि मजबूरी में ही सही उद्धव ठाकरे बीजेपी के साथ गठबंधन को ना नहीं कह रहे हैं. शिवसेना सांसद संजय रावत ने भी कहा है कि अगर बागी विधायक अगले 24 घंटों में वापस आ जाते हैं तो पार्टी MVA सरकार से निकलने पर विचार कर सकती है. उन्होंने एक ट्वीट में कहा कि बातचीत के दरवाजे अभी भी खुले हैं.

हालांकि उद्धव ठाकरे के लिए परेशानी यह है कि जिस बीजेपी के राजनीतिक प्रभुत्व के दबाव से निकलने के लिए उन्होंने पिछले गठबंधन को छोड़ NCP और कांग्रेस का दामन थामा था, आज फिर उन्हें उसी बीजेपी के साथ ऐसी स्थिति में सरकार बनाना पड़ेगा जब उनका कद खुद अपनी पार्टी में कमजोर हो गया होगा.

उद्धव ठाकरे के पास एक विकल्प यह भी है कि वो चुनाव की ओर जाएं. शिवसेना नेता संजय राउत ने बुधवार को राज्य में विधानसभा भंग करने की धमकी दी थी. लेकिन यदि राज्य सरकार सदन को भंग करने की सिफारिश करती है तो राज्यपाल यह सवाल कर सकते हैं कि क्या सरकार के पास विधानसभा को भंग करने के लिए जरुरी बहुमत का आंकड़ा है?

जब तक 'विद्रोही' शिवसेना विधायक अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं देते या पार्टी व्हिप के खिलाफ वोट नहीं देते, उन्हें दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता है. यदि इनमें से कोई भी बात होती है, तो डिप्टी स्पीकर नरहरि जीरवाल को स्थिति की जांच करनी होगी और तय करना होगा कि क्या उन्हें अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए.

एक स्थिति यह भी है कि उद्धव ठाकरे डिप्टी स्पीकर की मदद से सरकार बचाने की कोशिश करें. ऐसे इसलिए है क्योंकि दलबदल के आधार पर अयोग्यता के प्रश्नों पर निर्णय सदन के सभापति या अध्यक्ष लेते हैं.

चूंकि महाराष्ट्र में अभी स्पीकर नहीं है यहां यह काम डिप्टी स्पीकर नरहरि जीरवाल करेंगे. याद रहे कि दलबदल पर स्पीकर का निर्णय 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन है लेकिन कानून में इसकी कोई एक समय सीमा नहीं है जिसके भीतर स्पीकर को दलबदल मामले का फैसला देना होता है.

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