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इलेक्टोरल बॉन्ड पर एक और नया खुलासा सामने आया है. न्यूज वेबसाइट न्यूज लॉन्ड्री ने दावा करते हुए कहा है कि साल 2017 के बजट से ठीक पहले खुद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने इलेक्टोरल बॉन्ड का विरोध किया था. लेकिन मोदी सरकार ने आरबीआई की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड की घोषणा कर दी.
न्यूज लॉन्ड्री ने बताया है कि साल 2017 में बजट पेश होने से महज चार दिन पहले ही एक वरिष्ठ टैक्स अधिकारी ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एक प्रस्ताव दिया था. इस अधिकारी ने संसद में पेश होने जा रहे दस्तावेज में गड़बड़ी बताई थी. इनकम टैक्स अधिकारी ने वित्त मंत्रालय में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को एक नोट लिखकर कहा था-
गुमनाम चंदे को कानूनी रूप से वैध बनाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन करना होगा. इसके बाद उन्होंने इस प्रस्तावित संशोधन का एक ड्राफ्ट तैयार किया और इसे बड़े अधिकारियों के पास भेज दिया.
अधिकारी का ये मैसेज वित्त मंत्रालय तक पहुंचा. जिसके बाद उसी दिन दोपहर करीब 1:45 पर वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी ने प्रस्तावित संशोधन पर रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर सुब्रमण्यम गांधी जो उस वक्त आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटले के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ अधिकारी थे. तुरंत कार्रवाई करने की अपील करते हुए पांच लाइन का एक मेल भेज दिया था.
इसके बाद आरबीआई ने 30 जनवरी 2017 को अपना मुखर विरोध दर्ज कराते हुए इस मेल का जवाब दिया. आरबीआई ने इस मेल के जवाब में कहा कि चुनावी बॉन्ड और आरबीआई अधिनियम में संशोधन करने से एक गलत परंपरा शुरू हो जाएगी. इससे मनी लॉन्ड्रिंग को प्रोत्साहन मिलेगा. भारतीय रुपये पर भरोसा टूटेगा और इसका नतीजा होगा कि केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांत ही खतरे में पड़ जाएंगे.
आरबीआई ने जिस बात पर सबसे अधिक चिंता जताई थी वो थी बैंकिंग व्यवस्था. आरबीआई ने चेतावनी दी थी कि इससे बैंकिंग व्यवस्था पर असर पड़ेगा. आरबीआई के मुताबिक, इस कदम से कई एनजीओ धारक दस्तावेज यानी बेयरर इंस्ट्रूमेंट जारी करने के लिए अधिकृत हो जाएंगी. इस तरह की कोई भी व्यवस्था एकमात्र आरबीआई के दस्तावेज यानी नकद जारी करने के विचार के खिलाफ है. ये बेयरर इंस्ट्रुमेंट करेंसी का विकल्प बन सकते हैं. अगर ये बड़ी मात्रा में जारी होने लगे तो आरबीआई की तरफ से जारी किए करेंसी नोटों से भरोसा कम कर सकते हैं.
आरबीआई की धारा 31 में किसी भी तरह का संशोधन केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांत को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है और इससे एक गलत परंपरा का आगाज होगा.
रिजर्व बैंक ने बैंकिंग व्यवस्था के अलावा चुनावी पारदर्शिता पर भी सवाल उठाए थे. आरबीआई ने लिखा कि "इससे पारदर्शिता भी पूरी तरह से हासिल नहीं हो पाएगी. क्योंकि ये मुमकिन है कि बेयरर इंस्ट्रूमेंट का असली खरीददार कोई और हो और राजनीति पार्टी को वाकई में फंड देने वाला कोई तीसरा व्यक्ति हो. ये धारक बॉन्ड हैं और डिलीवरी के दौरान ट्रांसफर किए जा सकते हैं. इसीलिए असली में कौन राजनीतिक पार्टी को चंदा दे रहा है इसका पता नहीं लगाया जा सकता."
आमतौर पर देखा जाता है कि जब आरबीआई या कोई सरकारी संस्थान विरोध करता है तो कोई भी प्रशासनिक गतिविधि रुक जाती है और उस पर विचार किया जाता है. लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में ऐसा नहीं हुआ. जिस दिन आरबीआई की तरफ से वित्त मंत्रालय को ये चिट्ठी लिखी गई, उसी दिन तत्तकालीन राजस्व सचिव हंसमुख अधिया ने एक पैराग्राफ में ही अपना जवाब भेजकर आरबीआई की सभी आपत्तियों को खारिज कर दिया. वित्त सचिव तपन रे और तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे नोट में अधिया ने कहा,
आरबीआई की चिंता पर कोई ठोस जवाब देने की बजाय सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर अपना रुख कायम रखा और इसे संसद में पेश किया गया. हर सवाल के जवाब में सरकार की तरफ से आनन-फानन में जवाब दिया गया और फाइल को कुछ ही घंटों के भीतर पास करा लिया गया. यहां तक कि तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी इस पर तुरंत हस्ताक्षर कर लिए.
चुनावी बॉन्ड में बीजेपी सरकार की तरफ से किए गए इस संशोधन से कई बदलाव हुए. इस व्यवस्था से पहले भारतीय कारपोरेशन को राजनीतिक चंदे का ब्यौरा अपने सालाना बहीखाते में दिखाना होता था. इसके अलावा वे तीन सालों में अपने औसत वार्षिक मुनाफे का 7.5 प्रतिशत ही दान कर सकते थे. विदेशी कंपनियां भारत के राजनीतिक दलों को चंदा नहीं दे सकती थीं. लेकिन अब भारतीय कंपनियां और शेल कंपनियां भी इसमें शामिल हैं, जिनका मकसद सिर्फ राजनीतिक दलों को फायदा पहुंचाने का होता है. अब कोई भी व्यक्ति, संस्था या ट्रस्ट गुप्त तौर पर करोड़ों रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर चुपचाप उन्हें अपनी मनपंसद राजनीतिक पार्टी तक पहुंचा सकते हैं. विदेशी कंपनियां भी इसके जरिए भारत के राजनीतिक दलों को पैसा मुहैया करवा सकती है.
बता दें कि इलेक्टोरल बॉन्ड पर कई बड़े अधिकारियों ने सवाल उठाए हैं. उन्होंने इसे सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में बताया है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने क्विंट को बताया था कि बॉन्ड्स के जरिए कारपोरेट और सरकार की साठगांठ को छुपाना आसान हो गया है. उन्होंने कहा था, "कॉरपोरेट्स नहीं चाहते कि उन्हें सरकार से लाइसेंस, लोन और कॉन्ट्रैक्ट रूप में जो रिटर्न फेवर मिलता है, उसकी जानकारी आम जनता को न मिले. चुनावी चंदे को और पारदर्शी बनाने के बजाय इलेक्टोरल बॉन्ड के कारण जनता से जानकारी छुपा ली जाएगी जिससे पूरी प्रक्रिया और गुप्त हो जाएगी."
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