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Rani Chennamma: कर्नाटक की 'रानी लक्ष्मीबाई' की कहानी, अंग्रेज भी खौफ खाते थे

Kittur Chennamma: अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने वाली भारत की पहली शासक

उपेंद्र कुमार
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>Rani Chennamma: कर्नाटक की 'रानी लक्ष्मीबाई' की कहानी, अंग्रेज भी खौफ खाते थे</p></div>
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Rani Chennamma: कर्नाटक की 'रानी लक्ष्मीबाई' की कहानी, अंग्रेज भी खौफ खाते थे

(फोटोः उपेंद्र कुमार/क्विंट हिंदी)

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कर्नाटक के बेलगाम जिले में एक छोटा सा कस्बा है कित्तूर. एक बार यहां पर नरभक्षी बाघ का आतंक फैल गया. जनता काफी डरी हुई थी. उस समय कित्तूर में राजा मल्ल्सर्ज का शासन था. नरभक्षी बाघ को मारने के लिए राजा निकले. राजा ने उस पर बाण चला दिया. बाघ घायल होकर गिर गया. जैसे ही राजा बाघ के नजदीक पहुंचे तो देखते हैं कि बाघ पर एक नहीं, बल्कि दो–दो तीर लगे हुए थे. राजा को थोड़ी हैरानी हुई कि यह दूसरा तीर किसने चलाया. तभी उनकी नजर पास में खड़ी, सैनिक वेशभूषा में सजी एक सुन्दर कन्या पर पड़ी. राजा को समझते देर न लगी कि दूसरा बाण कन्या का ही है. यह बहादुर कन्या कोई और नहीं बल्कि रानी चेन्नम्मा थीं, जो आगे चलकर इन्हीं राजा मल्ल्सर्ज की पत्नी बनीं.

कहानी आज से 2 सदी पुरानी है लेकिन महिला होते हुए भी तब रानी चेन्नम्मा ने घुड़सवारी, अस्त्र-शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की शिक्षा पाई थी. उन्हें संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू भाषाएं आती थीं. यही रानी चेन्नम्मा ने आगे चलकर अंग्रेजों के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह किया था. इनके विद्रोह के कारण उस जमाने में भारत की सियासत हमेशा के लिए बदल गई.  

सियासत में आज इन्हीं रानी चेन्नम्मा, यानी कर्नाटक की लक्ष्मीबाई की कहानी.

रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर साल 1778 में कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक छोटे से गांव ककाती में हुआ था. पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने इनका पालन-पोषण बिल्कुल एक राजकुमार की तरह किया था. चेन्नम्मा को संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू आदि भाषाओं के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र-शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा दी गई. राजा मल्लासारजा से विवाह के बाद वे कित्तूर की रानी बन गईं.

साल 1824 में राजा मल्लासारजा की अचानक मौत हो गई. इसके कुछ ही महीने बाद उनके इकलौते बेटे की भी मौत हो गई. अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने शिवलिंगप्पा नाम के एक दूसरे बच्चे को गोद लेकर इसे अपनी गद्दी का वारिस घोषित कर दिया. लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत रानी के इस उत्तराधिकारी को स्वीकार नहीं किया. हालांकि उस समय तक औपचारिक तौर पर हड़प नीति लागू नहीं हुई थी. इसके बावजूद ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दे दिया.

रानी ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना. उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा और उनसे आग्रह किया कि वह कित्तुरु के मामले में हड़प नीति लागू न करें. लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने बड़ी ही बेरुखी से ठुकरा दिया. दरअसल, अंग्रेजों की नजर कित्तुरु के खजाने और आभूषणों के जखीरे पर थी जिसका मूल्य उस वक्त करीब 15 लाख रुपये था.

अंग्रेजों ने 20,000 सिपाहियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तुरु पर हमला कर दिया. अक्टूबर 1824 में रानी और अंग्रेजो के बीच पहली लड़ाई हुई. उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा. कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तुरु की सेना के हाथों मारा गया.
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इसके अलावा, कित्तुरु के बहादुर सैनिकों ने दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया. मजबूर होकर अंग्रेजों ने समझौते का रास्ता अपनाया और वादा किया कि वह अब युद्ध नहीं करेंगे. रानी ने भी दया भाव से ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया. लेकिन, अपनी फितरत से मजबूर अंग्रेजों ने रानी को फिर धोखा दिया और दोबारा से युद्ध छेड़ दिया.

रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों संगोल्ली रयन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ बहुत ही बहादुरी से लड़ीं, लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक और सीमित संसाधन होने के कारण वह हार गईं. उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया. वहीं 21 फरवरी 1829 के दिन रानी वीरगति को प्राप्त हो गईं.

उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी कर्नाटक में मनाया जाता है. हर साल कित्तुरु में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तुरु उत्सव लगता है. उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के पार्लियामेंट हाउस में लगी है. रानी चेन्नम्मा की कहानी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की ही तरह है. इसलिए उनको 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है.

वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया.कित्तुरु के युद्ध में भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले रानी चेन्नम्मा के सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया, लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है.  अंग्रेजों के खिलाफ रानी के बगावती तेवर ने भारत की सियासत को बदलकर रख दिया. इसी विद्रोह के बाद भारत के अन्य शासकों और सैनिकों में अंग्रेजों के खिलाफ एक विरोध उत्पन्न हुआ, जो साल 1857 में पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखा गया.

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