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नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत (RSS chief Mohan Bhagwat) द्वारा दिया गया हालिया भाषण महत्वपूर्ण था. उनका भाषण इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि उन्होंने यहां भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंधों, विशेष रूप से ज्ञानवापी मस्जिद Gyanvapi Masjid मुद्दे पर विस्तारपूर्वक बात की थी.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस भाषण को पोलराइज्ड यानी ध्रुवीकृत प्रतिक्रिया मिली है. कुछ ने इसे "संयम" की दलील के रूप में देखा और वहीं कुछ अन्य ने उन पर "डबल स्टैंडर्ड यानी दोहरे मानकों" का आरोप लगाया.
हमें लगता है कि सरसंघचालक ने जो कहा उसके पीछे एक स्पष्ट राजनीतिक तर्क है, लेकिन हम उस पर बाद में चर्चा करेंगे.
पहले एक नजर भागवत के वास्तविक भाषण के संक्षिप्त सार पर. उनका पूरा भाषण 30 मिनट से अधिक का था. हमने उस भाषण के महत्वपूर्ण पहलुओं को चुना है और उन्हें तीन थीमों या विषय में बांटा है :
विविधता के महत्व पर जोर
ज्ञानवापी मुद्दे पर विचार
हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर विचार
"विविधता एकता का एक हिस्सा है, यह अलगाववाद नहीं है."
"भारत में सभी समुदायों और धर्मों का कर्तव्य है कि वे भारत का संदेश आगे बढ़ाए. विभिन्न भाषा बोलने वाले, विभिन्न राज्यों में रहने वाले, अलग-अलग संस्कृति वाले, यहां तक कि जिन्होंने भारत से बाहर के धर्मों को अपनाया है, वे भी इस संदेश (भारत के संदेश) को अपने दिल में पाएंगे."
"हमारे पास इतनी समृद्धि थी कि भारतीयों ने किसी से युद्ध नहीं किया है."
"सभी की प्रगति में खुद की प्रगति देखें."
"भारत के पास अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े देशों की तरह ताकत होती, तो हम रूस-यूक्रेन युद्ध को रोक देते. हमारी ताकत अभी भी बढ़ रही है. जिन देशों के पास ताकत है वे भारी-भरकम शब्द बोलते हैं लेकिन वे शब्द स्वार्थी हितों से प्रेरित होते हैं."
"भारत को विश्व गुरु बनाना समय की मांग है. लेकिन इसके लिए भारत के लोगों को भारतीय बनने के लिए एकजुट होना होगा."
"भारत किसी भी प्रकार की पूजा में बाधा नहीं डालता है. भारत केवल एक भाषा नहीं बोलता है, यह सभी भाषाओं को आदर-सम्मान देता है. धर्म को कर्मकांडों से अलग रखा जाना चाहिए."
"ज्ञानवापी का मुद्दा चल रहा है. अब, यह ऐसे मुद्दे हैं, एक इतिहास तो है. उसको हम बदल नहीं सकते हैं. उस इतिहास को न तो आज के अपने आपको हिंदू कहलाने वालों ने बनाया न आज के मुसलमानों ने बनाया."
"इस्लाम बाहर से आया, आक्रामकों के हाथों आया. उस आक्रमण में भारत की स्वतंत्रता चाहने वाले व्यक्तियों का मनोबल तोड़ने के लिए देवस्थान तोड़े गए, ऐसे हजारों हैं."
"कुछ पूजा स्थल हैं जो हिंदुओं के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं. यह आज के मुसलमानों के विरुद्ध नहीं है. उनके (मुसलमानों के) पूर्वज भी हिंदू थे....हिंदुओं का मानना है कि इसे सुधारना चाहिए."
"मामलों को आपस में मिल-जुलकर बातचीत के जरिए सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जाना चाहिए, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है, तो लोग कोर्ट (अदालत) जा सकते हैं. फिर कोर्ट जो निर्णय देगा उसे सभी को मानना चाहिए. अपनी संविधान संबंधी न्याय व्यवस्था को पवित्र व सर्वश्रेष्ठ मानकर उसके निर्णयों का हमें पालन करना चाहिए. उनके (कोर्ट) के निर्णयों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया चाहिए."
"रोज एक नया मामला निकालना भी गलत है. हमको झगड़ा क्यों बढ़ाना है? ज्ञानवापी के बारे में हमारी कुछ श्रद्धाएं हैं, परंपरा से चलती आई हैं. ठीक है.... परंतु हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना? वे भी एक पूजा है... ठीक है... बाहर से आई है. लेकिन जिन्होंने अपनाई है वो मुसलमान बाहर से संबंध नहीं रखते हैं, ये उनको भी समझना चाहिए."
"उनकी (मुसलमानों की) पूजा उधर की है, लेकिन पूजा अलग होने के बावजूद वो हमारे ऋषि-मुनि, राजा, क्षत्रियों के वंशज हैं. हम पूर्वज एक ही हैं"
"अशफाकउल्लाह खान और इब्राहिम खान गार्दी जैसे कई मुसलमानों ने देश के खातिर हिंदुओं के साथ लड़ाई लड़ी है. ये मुसलमानों के लिए रोल मॉडल हैं. उन्हें भी समझना चाहिए. भारत हमारी मातृभूमि है."
"जब पाकिस्तान बना तो कुछ लोग चले गए, लेकिन ये लोग नहीं गए. ये लोग नहीं गए इसका अर्थ यही है न कि हमारी पूजा अलग हो गई है, इसलिए हम भारत को छोड़ना चाहते हैं यह हमें मंजूर नहीं. ऐसा ही है न? उन्हें भारत के चरित्र व स्वभाव का अनुसरण करना चाहिए और अलगाववाद के रास्ते पर नहीं चलना चाहिए. समूचे हिंदू समाज को भी यह समझना चाहिए. हमारे पूर्वज एक ही हैं. वे हमारे खून हैं. अगर वे वापस आना चाहते हैं, तो हमें उनका स्वागत करना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं चाहते हैं, तो भी ठीक है. हमारे पास पहले से ही 33 करोड़ देवता हैं, कुछ और जुड़ जाएंगे."
"समाज में एकता के लिए सभी को एक-दूसरे की भावनाओं व संवेदनाओं का ख्याल रखना होगा. कोई अतिवाद नहीं होना चाहिए, ना मन में ना ही शब्दों में और ना ही कार्यों में. किसी भी तरफ से डराने-धमकाने की बात नहीं होनी चाहिए. हालांकि, हिंदू पक्ष की ओर से ऐसा कम है. हिंदुओं ने बहुत धैर्य रखा है. हिंदुओं ने एकता के लिए बहुत बड़ी क़ीमत भी चुकाई है. यहां तक कि देश के विभाजन को भी स्वीकार किया है. हम कहते रहते हैं कि हम सब एक हैं, लेकिन उनके दिल में हमेशा एक सवालिया निशान रहता है."
"जो कोई भी अतिवादी टिप्पणी करता है तो उसको टोकना चाहिए."
"उन लोगों से हमें सावधान रहना चाहिए जो भाषा, क्षेत्र और धर्म के आधार पर विभाजन पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं."
भाषण के दौरान इस बात पर जोर दिया गया कि ज्ञानवापी मुद्दे पर "आंदोलन" नहीं करना चाहते हैं और उन्होंने महत्वपूर्ण रूप से यह बात कही कि राम जन्मभूमि आंदोलन में शामिल होना आरएसएस की "प्रकृति" के खिलाफ था. इसका मलतब हृदय परिवर्तन नहीं है बल्कि राजनीतिक परिस्थितियों का परिवर्तन है.
जब बीजेपी के पास लोकसभा में महज दो सीटें थीं तब राम जन्मभूमि आंदोलन शुरु हुआ था. तब यह (बीजेपी) सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भी नहीं थी. आज की परिस्थिति में पार्टी अपने बहुमत के दम पर सत्ता पर है और कई राज्यों में इसका शासन है. वर्तमान में जो रुख है वह काफी हद तक इस बात का आश्वासन देता है कि सरकार और अन्य संस्थाएं, यहां तक कि न्यायपालिका भी हिंदू भावनाओं के खिलाफ कदम नहीं बढ़ा सकती हैं.
ज्ञानवापी स्थल पर एक मंदिर के लिए संघ के समर्थन को दिखाने के लिए भागवत का संबोधन संतुलन बनाने के लिए एक चतुर काम था, लेकिन उनका भाषण इस बात पर भी जोर देता है कि इसे सौहार्दपूर्ण बातचीत या अदालतों के जरिए किया जाना चाहिए.
ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुत्व इकोसिस्टम के अंदर एक मामूली दरार बनती हुई दिख रही है. यह दरार रणनीतिक (टैक्टिकल) कारणों से उभर रही है ना कि हिंदू वर्चस्व पर किसी वैचारिक मतभेद से. ऐसा प्रतीत होता है कि आरएसएस राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता पर जोर दे रहा है, साथ ही संस्थानों के माध्यम से हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है. दूसरी ओर, पिछले आठ वर्षों में हिंदुत्व के राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व ने कई तरह के किरदारों को जन्म दिया है जो अल्पसंख्यकों को अपमानित करने और हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सतर्कता के साधनों और यहां तक कि हिंसा का उपयोग करना चाहते हैं.
आरएसएस की ओर से सर्तकता का जो संदेश दिया जा रहा है उससे यह प्रतीत होता है कि "यदि यह कानूनी तरीकों से किया जा सकता है, तो गैर-कानूनी साधनों का उपयोग क्यों करें?"
एक पैनी दृष्टि यह भी है कि कई लोगों ने "मजबूत नेतृत्व" और "राजनीतिक स्थिरता" के लिए खुद को बीजेपी से और यहां तक कि आरएसएस से जोड़ लिया. बढ़ती सतर्कता संभावित तौर पर इन वर्गों को अलग-थलग कर सकती है. यह कॉरपोरेट्स को भी परेशान कर सकती है.
हालांकि यह कहने के बाद, बार-बार उसी को दोहराना इस बात पर जोर देता है कि यह केवल एक रणनीतिक (टैक्टिकल) विभाजन है, वैचारिक नहीं. भागवत हिंदुत्व इकोसिस्टम के बाहर के लोगों को मुसलमानों और ईसाइयों को धर्मों का पालन करने वाले लोगों की तरह ही ट्रीट करते हैं. यानी कि "वे बाहर से आए थे‘’. ऐसे में "हम" और "उन्हें" का नैरेटिव वहां काफी ज्यादा था.
आरएसएस प्रमुख भागवत के भाषण में यह चिंता भी झलकी थी कि एक संघीय गठन चुनौती पैदा कर सकता है. इसलिए उन्होंने भारत की भाषाई विविधता को पहचानने पर जोर दिया और "उन लोगों के खिलाफ चेतावनी दी जो विभाजित करने के लिए भाषा या क्षेत्र का सहारा ले सकते हैं."
मुसलमानों के प्रति जो टोन थी वह निश्चित तौर पर सुलह करने वाली थी, लेकिन इसे आरएसएस की स्थिति में एक महत्वपूर्ण बदलाव मानना गलत होगा. दरअसल, यह आरएसएस की लंबे समय से चली आ रही स्थिति की पुनरावृत्ति थी कि भारतीय मुसलमानों को यह स्वीकार करना चाहिए उनके अपने वंशज या पूर्वज हिंदू हैं.
लेकिन भागवत का भाषण "हिंदू के खतरे में हैं" वाले नैरेटिव से विपरीत प्रतीत होता है, जिसे अक्सर हिंदुत्व इकोसिस्टम में मूलतत्वों द्वारा धकेला जाता है.
हालांकि, संघ के शीर्ष नेताओं ने समय-समय पर अधिक "उदार" रुख अपनाया है जबकि हिंदुत्व इकोसिस्टम में अन्य तत्व अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा के एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं. संघ परिवार की प्रकृति (जिसमें विभिन्न संगठनों के बीच कोई संस्थागत संबंध नहीं हैं) ने ऐसे मामलों में बिना किसी की निंदा किए आरएसएस को हमेशा प्रशंसनीय इनकार दिया है.
लेकिन संघ के सूत्र यह मानते हैं कि सतर्कता सामाजिक स्थिरता के लिए खतरा उत्पन्न करती है. "संविधान संबंधी न्याय व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसके निर्णयों पालन करने" और "चरमपंथ से बचने" की जरूरत पर भागवत का जोर उन चिंताओं की तरफ इशारा करता दिखता है कि सतर्कता और धर्म संसद द्वारा बनाई गई हिंदुत्व प्रोजेक्ट की संस्कृति संघ के नियंत्रण से बाहर जाकर बहुत कम संगठित संस्थाओं के हाथों में जा सकती है.
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