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लोकसभा चुनाव 2024 से पहले समाजवादी पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने में जुटी है. पिछले चार चुनावों, 2014, 2017, 2019, 2022, में मिली करारी हार के बाद पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ब्राह्मणों को पार्टी से जोड़ने में जुटे हैं. लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री के सिपहसालार स्वामी प्रसाद मौर्य लगातार मुसीबत खड़ी करते नजर आ रहा है.
दरअसल, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के कथित विवादास्पद बयानों की आंच अब पार्टी के अंदर तक पहुंच गई है. हिंदू और सनातन धर्म पर अपने कथित विवादास्पद बयानों से सुर्खियों में रहने वाले स्वामी प्रसाद ने हाल ही में दिल्ली के जंतर मंतर पर आयोजित एक कार्यक्रम में सार्वजनिक मंच से कहा, "जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं वह कुछ लोगों के लिए धंधा है.... हिंदू एक धोखा है".
मौर्य के बयानों पर जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने राजनीतिक प्रहार करना शुरू किया है वहीं समाजवादी पार्टी के अंदर मौर्य से राजनीतिक मतभेद अब खुलकर सामने आ गया है. समाजवादी पार्टी के नेता पवन पांडे ने लखनऊ में मीडिया से बातचीत करते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य पर करारा निशान साधा.
बहुजन समाज पार्टी से बीजेपी और बीजेपी से समाजवादी पार्टी में आने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य SP में कद बड़ा है. अपने बयानों से सुर्खियां बटोरने वाले मौर्य अपनी ही पार्टी में सवर्ण नेताओं के आंखों की किरकिरी बन गए हैं. पीडीए (पिछड़, दलित, अल्पसंख्यक) का नारा लेकर चल रही समाजवादी पार्टी ने अभी हाल ही में ब्राह्मण वोटरों को जोड़ने के लिए पार्टी के प्रदेश कार्यालय पर महाब्राह्मण समाज पंचायत का आयोजन किया था.
हालांकि, मौर्य के तेवर कम नहीं हुए और जंतर-मंतर पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण का एक अंश सोशल मीडिया पर फिर वायरल हो रहा है. मौर्य के बयानों से परेशान समाजवादी पार्टी के सवर्ण नेताओं ने अब खुलकर मोर्चा लेना शुरू कर दिया है.
मीडिया से बातचीत करते हुए समाजवादी पार्टी की सांसद डिंपल यादव ने भी मौर्य के बयानों से खुद और पार्टी को अलग करती हुई नजर आई.
संख्या बल की बात करें तो ब्राह्मण वोट बैंक के लिहाज से कमजोर हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक दखल बाकी जातियों के मुकाबले कहीं ज्यादा है. शायद यही कारण है की 2024 लोकसभा चुनाव के मध्य नजर कोई भी पार्टी ब्राह्मणों को नाराज करना नहीं चाहेगी.
उत्तर प्रदेश में एक आम कहावत है कि एक ब्राह्मण 10 वोट लेकर आता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों की दखल का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है 1989 से पहले प्रदेश में 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों- गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्रा और नारायण दत्त तिवारी- ने अलग-अलग समय पर प्रदेश की बागडोर संभाली.
मंडल कमीशन की सिफारिश से लागू होने के बाद प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति हावी रही. पूरे प्रदेश में ब्राह्मण की आबादी 10% है लेकिन अपने सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व और दबदबे के कारण हर बड़ी राजनीतिक पार्टी समय-समय पर, और खासकर चुनाव से पहले इनको रिझाने की कोशिश जरूर करती है.
2007 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण- जाटव की सोशल इंजीनियरिंग ने मायावती को मुख्यमंत्री बनाया था. 2012 में जब प्रदेश की राजनीतिक हवा बदली तो समाजवादी पार्टी को ब्राह्मणों को साथ मिला था और पार्टी प्रदेश में सत्ता में दोबारा वापस आई. जीतने वाले घोड़े पर दांव लगने वाले ब्राह्मण वोटरों ने 2014 के आम चुनाव में एक बार फिर हवा का रुख बदलते हुए देखा और बीजेपी के साथ चले गए.
तब से लेकर अब तक ब्राह्मणों ने बीजेपी को यूपी में अमूमन हर चुनाव में समर्थन दिया है. 2019 में माफिया विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद बीजेपी पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगने लगा था. विकास दुबे के साथी अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे को जेल भेजने के मामले में भी बीजेपी को कांग्रेस समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने घेरा था.
बृजेश पाठक अभी उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री हैं. जितिन प्रसाद ने जब कांग्रेस का दामन छोड़कर बीजेपी का साथ थामा तो उन्हें भी यूपी में मंत्री बनाया गया. मेरठ के वरिष्ठ बीजेपी नेता लक्ष्मीकांत वाजपेई को राज्यसभा भेजा. लखीमपुर खीरी में चार किसान और एक पत्रकार की हत्या के मामले में गंभीर आरोपों से घिरे केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र ट्टेनी पर अभी भी केंद्र का आशीर्वाद बना हुआ है.
ऐसे में साफ है कि ब्राह्मणों का सियासत में प्रभुत्व हैं. लेकिन समाजवादी पार्टी की कोशिशों को स्वामी प्रसाद मौर्या पलीता लगाते नजर आ रहे हैं, अगर समय रहते पार्टी प्रमुख ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो आगामी लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है.
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