advertisement
OBC को आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का श्रेय वीपी सिंह को दिया जाता है. हाथ भले ही उनका था, लेकिन उनका हाथ पकड़कर ये करवाया था शरद यादव ने. वैसे कहा तो ये भी जाता है कि शरद यादव ने उनकी 'गर्दन' पकड़कर ये काम करवाया था. मंडल के लिए प्रतिबद्ध वीपी सिंह के कदम क्यों डगमगा रहे थे? और शरद यादव ने उस वक्त कैसे वीपी सिंह को मनाया था? जो भी हो शरद यादव को तभी से मंडल मसीहा कहा जाने लगा. सामाजिक न्याय को लेकर शरद किस कदर समर्पित थे, उसका एक उदाहरण ये है कि जिस जाति जनगणना को करा कर आज नीतीश कुमार और लालू यादव नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहे हैं, उसकी पहल सालों पहले शरद यादव ने कर दी थी. मध्य प्रदेश शरद यादव की जन्मभूमि थी कैसे वो ठेठ बिहारी बन गए, कैसे मंडल के मामले ने बिहार को उनकी कर्मभूमि बना दिया. लोकतांत्रिक मूल्यों, संसदीय प्रणाली और समाजवाद के प्रति शरद यादव के कमिटमेंट की कहानी आज सियासत में...
आज से करीब 49 साल पहले जय प्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन का भारतीय राजनीति पर कितना असर होने वाला था, इसकी पहली झलक 1974 में देखने को मिली थी. जब जय प्रकाश नारायण ने छात्र आंदोलन के बाद जिस पहले उम्मीदवार को हलधर किसान के चुनाव चिन्ह पर मैदान में उतारा वो और कोई नहीं वह शरद यादव ही थे. 27 साल के शरद यादव तब जबलपुर यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और छात्र आंदोलन के चलते जेल में थे. शरद यादव ने जेल से ही जबलपुर का चुनाव जीत लिया.
साल 1977 में जनता पार्टी की आंधी की पहली झलक भी शरद यादव के चुनाव से ही लोगों को मिली थी, लेकिन शरद यादव किस मिट्टी के बने थे, इसकी झलक एक साल बाद देखने को मिली. साल 1976 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान लोकसभा का कार्यकाल 5 साल के बदले 6 साल कर दिया तो इसके विरोध में पूरे देशभर से जिन दो सांसदों ने इस्तीफा दिया था, उनमें से एक थे समाजवादी नेता मधु लिमये और दूसरे थे शरद यादव. इसके बाद शरद यादव को युवा जनता दल अध्यक्ष के तौर पर नामित किया गया.
शरद यादव कुल दस बार सांसद बने. साल 1986 में शरद यादव राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे. इस दौरान वो चौधरी देवीलाल के भी करीबी हो गए. जब साल 1989 में लोकसभा के चुनाव हुए तो इस बार वो जनता दल के टिकट पर बंदायूं से चुनाव मैदान में उतरे और जीत दर्ज की. इस बार भी जब जनता दल में वीपी सिंह और देवीलाल के बीच ठनी तो वो वीपी सिंह के साथ हो लिए.
वीपी सिंह की जीवनी ' द डिसरप्टर' में देबाशीष मुखर्जी लिखते हैं कि शरद यादव को वीपी सिंह ने फोन कर जब देवीलाल को हटाने की जानकारी दी, तो शरद यादव ने कहा कि सुबह मिलकर बात करता हूं. शरद यादव को देवीलाल भी अपने साथ मिलाना चाहते थे और वीपी सिंह भी अपने साथ रोके रखना चाहते थे. मौके की सियासी नजाकत को समझते हुए शरद यादव ने वीपी सिंह के सामने एक शर्त रख दी कि या तो रैली से पहले मंडल कमीशन लागू कीजिए, नहीं तो हम देवीलाल जी के साथ अपनी पुरानी यारी निभाएंगे.
देबाशीष मुखर्जी द डिसरप्टर में शरद यादव के हवाले से लिखते हैं कि "हम और वीपी सिंह, दोनों ही मंडल कमिशन की रिपोर्ट को लेकर प्रतिबद्ध थे, लेकिन वीपी सिंह आरक्षण को तत्काल लागू करने को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं थे. लेकिन मैंने उनसे कहा कि अगर आप चाहते हैं कि लोकदल (B) के सांसद आपके साथ बने रहें तो आपके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. आप या तो इसे लाइए या फिर हम देवीलाल के साथ चले जाएंगे."
देबीशीष मुखर्जी, शरद यादव के हवाले से दावा करते हैं कि शरद यादव ने वीपी सिंह की गर्दन पकड़कर मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू करवाई थी. यहीं, से शरद यादव की छवि मंडल मसीहा के नेता के तौर पर बनी. मंडल से इसी कनेक्शन ने एमपी के एक नेता को बिहारी बना दिया.
लालू यादव को भी मुख्यमंत्री बनवाने वाले शरद यादव ही हैं. जब साल 1990 में बिहार में जनता दल के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी आयी तो वीपी सिंह के उम्मीदवार राम सुंदर दास को पीछे करके लालू प्रसाद यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया. मंडल कमीशन और लालू यादव को मुख्यमंत्री बनवाने के बाद से ही शरद यादव की राजनीतिक कर्मभूमि बिहार बन गया. 1991 में बिहार के मधेपुरा से शरद यादव लोकसभा के सांसद बने. 1996 का चुनाव भी वो मधेपुरा से लड़े और जीत गए.
लेकिन, साल 1997 में शरद यादव और लालू यादव के बीच उस समय खटास पैदा हो गई है, जब दोनों नेता जनता दल के अध्यक्ष की दावेदारी पेश करने लगे. दोनों नेताओं के बीच दूरियां इतनी बढ़ीं की साल 1998 के लोकसभा चुनाव में शरद यादव के खिलाफ लालू यादव चुनावी मैदान में उतर गए. इस चुनाव में शरद यादव को मात खानी पड़ी. तब लालू यादव ने एक नारा दिया था कि "रोम में पोप और मधेपुरा में गोप". लेकिन, एक साल बाद ही शरद यादव ने साल 1999 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव को हराकर हिसाब बराबर कर लिया. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शरद यादव सिविल एविएशन मंत्री बनाए गए.
इसी दौरान 24 दिसंबर 1999 को आतंकियों ने इंडियन एयरलाइन को हाईजैक कर लिया. इसमें क्रू मेंबर समेत कुल 187 लोग सवार थे. देश में हंगामा मच गया. सरकार और मंत्री पर विपक्ष हमलावर था. कोई भी मंत्री मीडिया में आकर कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं था.
तभी सिविल एविएशन मंत्री शरद यादव ने मीडिया में आकर जानकारी दी थी कि "वो सब आसमान में हैं, और पायलट के सिवा कोई कम्युनिकेशन नहीं है, आतंकियों के पास AK-47 है या पिस्टल है कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है.’ मैं कोई अंदाजा नहीं लगा सकता, फ्लाइट में जो यात्री हैं, उनकी सुरक्षा हमारी पहली प्राथमिकता है." शरद यादव ने सरकार के साथ मिलकर आतंकियों के चुंगल से भारतीयों को छुड़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. जब आतंकियों ने उस दौरान प्लेन में एक भारतीय की हत्या कर दी, तब शरद यादव उसका शव लेने दुबई पहुंच गए थे.
इधर, शरद और लालू यादव के खिलाफ इतनी दूरियां बढ़ गईं थीं की इसे पाटना बड़ा मुश्किल था. लिहाजा, शरद यादव ने लालू यादव के खिलाफ नीतीश कुमार को मजबूत करना शुरू कर दिया. साल 1995 में मिली हार के बाद राजनीतिक नेपथ्य में जा चुके नीतीश कुमार के लिए ये बूस्टर डोज थी. इसी बूस्टर डोज के बाद नीतीश बिहार की राजनीति में चमकते गए. उधर, शरद यादव दिल्ली में NDA का संयोजक रहते हुए नीतीश का हाथ मजबूत करते रहे. आखिरकार शरद यादव की मेहनत रंग लाई और 2005 में हुए दूसरे चुनाव में नीतीश कुमार बिहार की कुर्सी पर काबिज हुए. तब शरद यादव राज्यसभा में थे क्योंकि 2004 का चुनाव हार गए थे.
लेकिन, 2009 में वो फिर लालू को हराकर लोकसभा पहुंचे. इसबार उन्होंने UPA सरकार पर सामाजिक-आर्थिक जनगणना के लिए दबाव बनाया. उनके सामने UPA सरकार को झुकना पड़ा और 2011 में सामाजिक-आर्थिक जनगणना करना पड़ी. हालांकि, इसकी रिपोर्ट कभी सामने नहीं आई. लेकिन, जो भी हो अगर आज नीतीश कुमार बिहार में जातीय जनगणना करा रहे हैं और मोदी की पॉप्युलारिटी में सेंध लगा OBC चैंपियन बनना चाहते हैं तो उसकी बुनियाद भी शरद यादव ने रखी थी.
शरद यादव ने जिस JDU को अपने पसीने से सींचा था, उसी JDU से उन्होंने साल 2016 में नीतीश कुमार की वजह से किनारा कर लिया और एक नई पार्टी बनाई. हालांकि, उस पार्टी का भी उन्होंने साल 2022 में RJD में विलय कर दिया और कमान तेजस्वी यादव के हाथों सौंप दी. इसके बाद वो अस्वस्थ रहने लगे थे. आखिरकार, 12 जनवरी 2023 की रात समाजवाद की एक बुलंद आवाज खामोश हो गई. 5 दशक के सियासी जीवन में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव भरे दौर देखे, लेकिन सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में कभी कोई नरमी नहीं आई.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined