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Taliban सरकार एक साल बाद सुधार का नाटक भी नहीं कर रही, महिला, मुल्क सब कराह रहे

मानव अधिकार और चुनाव की बात अब वहां खत्म हो चुकी है और तालिबान ने जो ‘वादे’ किए थे वो सब शून्य में पहुंच गए हैं.

फ्रांसेस्का मैरिनो
दुनिया
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<div class="paragraphs"><p>Afghanistan: एक साल बाद, Taliban सरकार अब ‘दिखावे’ की भी नहीं रह गई है</p></div>
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Afghanistan: एक साल बाद, Taliban सरकार अब ‘दिखावे’ की भी नहीं रह गई है

(फोटो- पीटीआई)

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जंग खत्म हो चुकी है और शांति की एक खतरनाक चादर से अफगानिस्तान (Afghanistan) ढका हुआ है. एक साल पहले जब ये घटना घटी थी तो तबके पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान (Imran Khan) ने इसे ‘गुलामी की बेड़ियां’ तोड़ने वाला बताया था. 1990 के दशक वाले कुख्यात ‘मदरसा छात्रों’ जिनको हम जानते रहे हैं ने इस बार अपना नरम और फ्रैंडली रुख दुनिया के सामने रखा था.

इमरान खान ने संयुक्त राष्ट्र (United Nations) में भी उनकी पैरवी की. उन्होंने अफगानिस्तान में स्थिरता और जनता की भलाई के लिए मौजूदा सरकार को मान्यता देने को एक मात्र रास्ता बताया था.

तालिबान 2.0 के इस वर्जन में आइसक्रीम खाते तालिबानियों ने वादा किया था कि उनके शासन में मानव अधिकारों का पालन होगा और उनकी सरकार सबको साथ लेकर चलेगी. उन्होंने पहले की सरकार के कर्मचारियों को माफी देने की बात कही. तालिबानियों ने ये भी दावा किया था कि उनकी जमीन आतंकवादियों की पनाहगाह नहीं बनेगी. एक साल बाद अगर देखें तो इनमें से कुछ भी जमीन पर सच नहीं हुआ.

‘आतंकवादी परिषद’

जरा फटाफट कुछ पहले की बातों पर नजर डालते हैं- सितंबर में पाकिस्तानी ISI की मदद और सीधे हस्तक्षेप से नई सरकार बनाई गई. कहा गया था कि यह एक अंतरिम सरकार होगी जो सबको साथ लेकर चलेगी, लेकिन हकीकत में यह ‘आतंकवादी परिषद’ ही थी. तालिबान की डिक्शनरी से ही ‘चुनाव’ शब्द को मिटा दिया गया है.

25 दिसंबर को तो काबुल की सरकार ने आधिकारिक तौर पर अफगानिस्तान के चुनाव आयोग को समाप्त कर दिया. उनका कहना था कि “हमें इसका कोई फायदा नहीं लग रहा है. अगर भविष्य में जरूरत पड़ी तो फिर हम एक तात्कालिक इस्लामी आयोग बनाएंगे.”

और अपने नियम कायदों और देश में इस्लाम को सख्ती से लागू करने के लिए एक मंत्रालय का गठन कर दिया गया. इसका काम ही अफगानिस्तान को इस्लाम के हिसाब से चलाने की निगरानी करना है.

नई सरकार की गाज सिर्फ चुनाव रोके जाने तक ही सीमीत नहीं गिरी है. इसने महिलाओं का बाहर निकलना या उनकी मौजूदगी खत्म कर दी है. महिलाएं और लड़कियों को हिजाब पहनने का आदेश दिया गया है. खासकर ‘डिमेंटर सूट’ पहनने के लिए जिसमें पूरी तरह से वो ढंकी हुई होती हैं..इसके अलावा सार्वजनिक जगहों पर जाने पर पूरा चेहरा ढंका रखने के लिए कहा गया है. तालिबानी पुलिस का कहना है कि वो चाहते हैं कि महिलाएं घरों के अंदर ही रहें.

और यह सब पक्के तौर पर लागू रहे इसके लिए महिलाओं की लंबी दूरी की यात्रा पर पाबंदी लगा दी गई है. वो अकेले लंबी दूरी की यात्रा नहीं कर सकतीं और सार्वजनिक पार्क में भी सिर्फ उसी दिन जा सकती हैं जिस दिन वहां पुरुषों के जाने पर मनाही हो.

अभिनेत्रियां किसी भी तरह के मंच, स्क्रीन पर दिख नहीं सकतीं और इन नए नियम कायदों का सबसे ज्यादा शिकार महिला टीवी एंकर और प्रजेंटर हो रही हैं.

संगीत पर बैन है. संगीत के साज तोड़ और जला दिए गए हैं. मर्द भी दाढ़ी नहीं बना सकते. पत्रकारों के सच कहने और आलोचनात्मक होने पर पाबंदी है. अगर वो सच कहते हैं या आलोचना करते हैं तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और जेल की सजा भी होती है. लेकिन बाकी दुनिया के लिए ..खासकर जिन्होंने अफगानिस्तान को इस हालत में छोड़ा .जिसकी तुलना अमरेका के साईंगांव छोड़ने से की गई थी ..वो सब अब इमरान खान की बात को मानने लगे हैं. उनका भी अब मानना है कि ‘ मानव अधिकारों का अब सब जगह एक जैसा ही मायने नहीं रहता है’.

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नॉर्वे का तालिबान को बातचीत का न्योता

नॉर्वे ने तालिबान को बातचीत का न्योता देकर ओस्लो बुलाया था, उन्हें प्राइवेट जेट से लाया गया ताकि वो अफगानिस्तानी सिविल सोसाइटी, पश्चिमी देशों के राजनयिकों से बातचीत करें. इसी तरह की बातचीत के लिए फिर अफगानिस्तान की नई आतंकवादी सरकार को जेनेवा बुलाया गया. इस सबके बीच अफगानिस्तान में जनता सड़कों पर भूख से तड़प रही थी, अफगानी सरकार के फंड को विदेशी बैंकों ने जब्त कर लिया था और तालिबानी बिना शर्त फंड तुरत चाहते थे.

उन्होंने वही बातें दोहराई.. संसाधनों की कमी से अफगानिस्तान में अराजकता मच जाएगी, संसाधनों के अभाव में वो ‘आतंकवादियों’ से लड़ नहीं पाएंगे, और पश्चिमी और पड़ोसी देश रिफ्यूजी से पट जाएंगे.

वहीं कुछ अफगानी सोर्स से पता चला कि अक्टूबर में ही चीनी सेना का एयरक्राफ्ट बड़गाम पर लैंड किया था. ऐसी भी रिपोर्ट है कि चीनियों ने मिरानशाह. क्वेटा और पेशावर में हक्कानी लड़ाकूओं को ट्रेनिंग दी. ऐसा लगता है कि ISIS- K (खोरासन ) को हक्कानियों की तरह ही ISI की निगरानी में हमले करने और फिर उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कहा गया था.

जैश–ए-मोहम्मद जो बरसों से तालिबान को आर्थिक मदद, ट्रेनिंग देता रहा है. हक्कानी के लिए आत्मघाती दस्ता तैयार करने वाले जैश-ए-मोहम्मद की एक ट्रेनिंग कैंप ISI की मदद से अफगानिस्तान के नानगहर में लगी. ग्रुप के कैडर को भी अफगानिस्तान शिफ्ट किया गया. अलकायदा से कोई संपर्क नहीं रखने के अपने वादे के बाद भी तालिबान ने अलकायदा के सदस्यों को देश भर की सभी हाई लेवल आर्मी पोस्ट की जानकारी दी.

लेकिन शायद ही कभी आतंकवाद का जिक्र दूसरे देशों ने किया जब तक कि अलकायदा नेता अल-जवाहिरी को काबुल में एक अमेरिकी ड्रोन हमले में मार गिराया नहीं गया था. तालिबान ने हमले की निंदा की लेकिन जवाहिरी की मौत की पुष्टि नहीं की और कहा कि वो अमेरिकी दावों की पड़ताल कर रहे हैं. इसके बाद दोनों ही तरह से वार पलटवार हुए. दोनों ने ही एक दूसरे पर दोहा समझौता को तोड़ने का आरोप लगाया.

तालिबान को ‘एक मौका’ देना

अब एक साल बाद ‘तालिबान को एक मौका दो’ की बात खत्म तो नहीं हुई है, लेकिन यह खुद ही कुछ और रंग में ढल गया है. 22 जून को पाकिस्तान से सटे अफगानी इलाकों में आए भयंकर भूकंप ने 1000 अफगानियों की जान ले ली और हजारों को बेघर कर दिया. अब इस तबाही ने तालिबान सरकार के सामने भयंकर परेशानी खड़ी कर दी है जिससे ज्यादातर देशों ने अभी मान्यता भी नहीं दी है.

अंतरराष्ट्रीय मदद एजेंसियां राहत बचाव के लिए आगे आईं. खाने पीने का सामान, दवाइया, टेंट जैसी जरूरी चीजें उन्होंने सीधे मुहैया कराई ना कि तालिबान सरकार के जरिए. ऐसा पहले भी सर्दियों में एजेंसियों ने किया था. वहीं तालिबान जो अपनी शर्तों पर अंतरराष्ट्रीय मान्यता चाहता है अब चीन पर भरोसा करने लगा है. वो चाहतै हैं कि अफगानिस्तान के पुननिर्माण में चीन उनको मदद करे. .चीन भी काबुल में अपना कारोबार और निवेश प्लान को बढ़ाने के लिए उनके साथ भागीदारी बढ़ा रहा है.

बीजिंग अपनी बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) में अफगानिस्तान को शामिल करना चाहता है .यह एक ऐसा मिशन है अगर तालिबानी सरकार वैध मान लिया जाए तो चीन को काफी सहूलियत हो जाएगी.

चीनी कंपनियों ने मेस अएनाक खान और अमू दरिया बेसिन से तेल निकालने के लिए काबुल के साथ करार किया है. ये दोनों ही अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत फरयाब और सारी पुल में हैं.

वहीं बीच का देश और भौगोलिक रणनीतिक तौर पर काफी अहम होने की वजह से पाकिस्तान खूब फायदा उठा रहा है. जवाहिरी की मौत में मदद के लिए उसे IMF से सस्ती कर्ज, काबुल से सस्ती कीमत पर कोयला मिल रहा है. दरअसल पाकिस्तान, अफगानिस्तान और चीन के बीच में है जब भी जरूरत होगी तो सभी जिहादियों को वहां रखा जा सकता है और इस जियोपॉलिटिक्स का खूब फायदा पाकिस्तान उठाता है.

अफगानिस्तान से दुनिया ने मुंह मोड़ लिया

दिलचस्प बात यह है कि इस घोषित आपदा के एक साल बाद आज कोई भी हड़बड़ी में अफगानिस्तान को छोड़ने, बिना शर्त अमेरिकी सरेंडर पर पछतावा या फिर कोई और बात नहीं कर रहा है. इतना ही नहीं कोई भी 20 साल से पाकिस्तान केंद्रित इस रणनीति को बदलने की बात कर रहा है. पाकिस्तान के झूठ, गेम और दोस्त और दुश्मन सबसे डबल-ट्रिपल डीलिंग पर कोई बात नहीं कर रहा है. सब बस दिखावा कर रहे हैं कि वो पाकिस्तान की रणनीति को समझ नहीं पाते.

ऐसा लगता है कि अगले आतंकवादी हमले नहीं होने तक ‘आतंकवादियों की सरकार’ को संभालने की बात कहकर पश्चिम देशों, अमेरिकियों, नाटो को 'दुनिया के सबसे खतरनाक देश' ने एक बार फिर मूर्ख बनाया है.

(फ्रांसेस्का मैरिनो एक पत्रकार और दक्षिण एशिया एक्सपर्ट हैं, जिन्होंने B Natale के साथ Apocalypse Pakistan’ लिखा है. उनकी लेटेस्ट किताब Balochistan — Bruised, Battered and Bloodied’ है. वो @francescam63 पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपिनियन है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट उनके विचारों को न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 16 Aug 2022,09:10 AM IST

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