Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Readers blog  Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019लॉकडाउन में हर सेक्टर को राहत तो निजी स्कूलों को क्यों भूल गए?

लॉकडाउन में हर सेक्टर को राहत तो निजी स्कूलों को क्यों भूल गए?

Teachers Day पर शिक्षकों के वर्कप्लेस यानी स्कूल पर बात जरूरी है.

आशीष धवन & बिक्रम दौलत सिंह
ब्लॉग
Updated:
विकास के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर, देश के शिक्षा क्षेत्र में भी नीतिगत सुधार की सख्त जरूरत है
i
विकास के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर, देश के शिक्षा क्षेत्र में भी नीतिगत सुधार की सख्त जरूरत है
(फोटो: iStock/Altered by Quint)

advertisement

Tearchers Day पर शिक्षकों की बात हो रही है, तो उनके वर्कप्लेस यानी स्कूल पर भी थोड़ी बात हो जाए. पीएम मोदी के कोविड पैकेज ने कृषि, बैंकिंग और बिजली सहित विभिन्न संकटग्रस्त क्षेत्रों में महत्वपूर्ण और लंबे समय से प्रतीक्षित सुधारों का वादा किया. बाकी सेक्टरों के लिए भी इज ऑफ डूइंग बिजनेस की बातें होती हैं. लेकिन देश के स्कूलों की बात कौन करेगा? नीतिगत सुधार की सख्त जरूरत यहां भी है. एक स्वतंत्र रेगुलेटर की जरूरत है आज हमारी शिक्षा को.

कोविड का एक मौजूदा प्रभाव यह है कि स्कूल लगातार पांच महीने से बंद हैं और मुश्किल वित्तीय स्थिति का सामना कर रहें हैं. इस कठिन वित्तीय हालात में जटिल नीतियों के कारण लघु और मध्यम क्षेत्र के उद्योगों (MSME) के लिए घोषित राहत पैकेज से स्कूलों को कोई लोन राहत नहीं मिलने वाली है. इस वजह से प्राइवेट शिक्षा के क्षेत्र में भारी उथल-पुथल आने की आशंका है और दुर्भाग्य से, कुछ अच्छे स्कूल मजबूरी में बंद भी हो सकते हैं.

सुधार की जरूरत निश्चित रूप से काफी निचले स्तर से है और हमारे मौजूदा स्कूल रेगुलेटरी सिस्टम को इस प्रकार से प्रभावी बनाना होगा कि नए स्कूल उद्यमियों का हौसला बढ़े.

वित्त वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत के 25 करोड़ स्कूली छात्रों में से 35% (लगभग 9 करोड़ छात्र) छात्र गैर-सहायता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं. इन स्कूलों के नामांकन में पिछले 25 वर्षों में 6 गुना वृद्धि देखी गई है. यह वृद्धि ऐसी नीतियों के बावजूद हुई है, जो मौजूदा स्कूलों के संचालन में बाधाएं पैदा करती हैं और फॉर्मल सेक्टर प्रोवाइडर्स को क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकती हैं.

उदाहरण के लिए, एक स्टडी के मुताबिक दिल्ली में एक स्कूल खोलने के लिए 125 दस्तावेजों की जरूरत होती है, और शिक्षा महानिदेशालय के भीतर आवेदन कम से कम 155 चरणों से होकर गुजरता है.

बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं सिस्टम

हमारे मौजूदा रेगुलेटरी सिस्टम की जड़ें भारत की पुरानी शिक्षा नीति के उद्देश्यों से जुड़ी हैं, जो स्कूल बिल्डिंग, क्लासरूम, संबंधित शिक्षक और छात्रों को स्कूल में लाने आदि पर केंद्रित है. हमने इस उद्देश्य के साथ महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है. हम यूनिवर्सल प्राइमरी एजुकेशन का लक्ष्य प्राप्त करने के करीब हैं, और उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में छात्रों के दाखिले के मामले में हमने उचित सफलता प्राप्त की है.

हालांकि, शिक्षा उपलब्ध कराने की भागमभाग में हमने एक ऐसा सिस्टम तैयार किया है, जो बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं है. अभिभावक बेहतर शिक्षा चाहते हैं और यह छात्रों के लिए भी आवश्यक है, लेकिन हमारी मौजूदा रेगुलेटरी व्यवस्था का ध्यान शिक्षा परिणाम के बजाय स्कूल इंफ्रास्ट्रक्चर पर अधिक केंद्रित है.

इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े ज्यादातर नियम शिक्षा के लिए न तो व्यावहारिक हैं और न ही महत्वपूर्ण. शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTI Act) में खेल मैदान/कक्षा के आकार और शिक्षक भर्ती पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जबकि राज्य और नगर निगम के नियमों, जैसे कौन स्कूल खोल सकता है, स्कूल कैसे स्थापित होंगे, स्कूल का आकार और एक स्कूल कितनी फीस ले सकता है आदि इस क्षेत्र में नए लोगों के प्रवेश के लिए बाधा उत्पन्न करते हैं.

मुंबई के स्लम एरिया में एक स्कूल संचालक के मुताबिक, “अगर हम इन सभी नियमों का पालन करते हैं, तो हमें यहां एक स्कूल खोलने के लिए करोड़ों रुपयों की जरूरत होगी. जब यहां छात्रों को प्रति माह 400 रुपये फीस देने में भी मुश्किल होती है, तब ऐसे में यह नियम कैसे व्यवहारिक हो सकते हैं?”

स्कूल कानूनी रूप से गैर-लाभकारी संस्था हैं, और अधिकांश मामलों में, यह माइक्रो-एंटरप्राइजेज के रूप में काम करते हैं - जिनका परिचालन समाज सेवा की मानसिकता वाले समाज-सेवियों द्वारा नहीं बल्कि समाज के शिक्षित लोगों द्वारा किया जाता है. यह लोग अपने स्कूलों को चलाने के लिए सामुदायिक संसाधनों पर निर्भर हैं. इसीलिए उन्हें अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत होती है.

मौजूदा नियम स्कूल मालिकों को शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने वाली प्रक्रिया के बजाय इंफ्रास्ट्रक्चर और अनुपालन में निवेश करने को मजबूर करते हैं. रेगुलेटरी एजेंसियों की नजर अच्छे इंफ्रास्ट्रक्चर और खराब शिक्षा परिणाम वाले स्कूलों के बजाय अच्छी शिक्षा, लेकिन खराब इंफ्रास्ट्रक्चर वाले स्कूलों पर अधिक रहती है.

यह अलग बात है कि यह निय‍म अक्सर अपने ही उद्देश्यों को पूरा नहीं करते हैं. बहुत सारे रेगुलेटरी लाइसेंस और निरीक्षणों की आवश्यकता ने रिश्वत और नियमों को तोड़ने वाली संस्कृति को जन्म दिया है. रेगुलेटरी एजेंसियों में भी वहीं लोग हैं, जो सरकारी स्कूलों का प्रबंधन देखते हैं. यह निष्पक्ष रेगुलेटरी सिस्टम के लिए एक चुनौती है.

बेहतर नियमों के लिए केवल नीति में बदलाव के बजाय, हमें सरकार के पूरे नजरिए को बदलने की जरूरत है. सबसे पहले, हमें इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी जरूरतों को पूरा करने के बजाय स्कूलों के निर्धारित स्तर पर मूल्यांकन पर स्कूल के प्रदर्शन को मापने और उसे सार्वजनिक कर स्कूलों को जिम्मेदार बनाने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. स्कूलों को उनकी सुरक्षा, इंफ्रास्ट्रक्चर और गवर्नेंस के मामलें पर रैंकिंग देने के लिए प्राइवेट भागीदारों की सेवा ली जानी चाहिए. इस रैंकिंग को सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि बच्चों के सबसे बड़े हितैषी उनके अभिभावक अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं के आधार पर स्कूलों का चयन कर सकें.

होना चाहिए स्वतंत्र रेगुलेटर का गठन

दूसरा सबसे महत्वपूर्ण बदलाव होगा अधिकारों का बंटवारा करते हुए सुशासन की ओर आगे बढ़ना. शिक्षा क्षेत्र में, जो विभाग नियमों को बनाता है, वहीं सार्वजनिक शिक्षा सेवाएं उपलब्ध कराने के साथ ही साथ प्राइवेट स्कूलों की निगरानी के लिए भी जिम्मेदार है. इससे कर्मचारियों पर एक साथ कई सारी जिम्मेदारियां होती है, जो उनकी दक्षता को प्रभावित करती हैं. संभवत: इससे हितों में टकराव भी पैदा होता है.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के मुताबिक, एक स्वतंत्र रेगुलेटर का गठन किया जाना चाहिए, जो भारत में प्राइवेट और सरकारी, सभी स्कूलों की निष्पक्षता और पूरी पारदर्शिता के साथ मॉनिटरिंग करेगा. अन्य देशों के परिणाम बताते हैं कि स्कूल की गुणवत्ता में सुधार लाने और स्कूल विकल्प को सुविधाजनक बनाने के लिए एक शक्तिशाली स्वतंत्र रेगुलेटर बहुत आवश्यक है.

यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसे लंबे समय से नजरअंदाज किया गया है लेकिन यह शि‍क्षा के लिए लाखों भारतीयों की आंकाक्षा और संघर्ष का भी परिचायक है. कोविड-19 के बाद, ये परिवार अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए एक गतिशील, प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी क्षेत्र के हकदार हैं और सरकार को इसे उपलब्ध कराने पर ध्यान देना होगा.

(आशीष धवन सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन के फाउंडर और चेयरमैन हैं. बिक्रम दौलत सिंह सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. आर्टिकल में लिखे विचार लेखक ने निजी हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 05 Sep 2020,12:12 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT