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एक टीवी चैनल के साथ में एक पैनल में टीम इंडिया के पूर्व कोच गोपीचंद के साथ बैठा था. गोपी से पूछा गया कि Thomas Cup 2022 में भारतीय बैडमिंटन टीम की ऐतिहासिक जीत की तुलना अगर किसी दूसेर खेल की उपलब्धि से की जाए तो वो क्या होगा? गोपी ने जवाब दिया, "फुटबॉल वर्ल्ड कप जीतने के बराबर." मैं गोपी का बहुत सम्मान करता हूं और मानता हूं कि पिछले दो दशक में एख खिलाड़ी और बाद में एक कोच के तौर पर उन्होंने भारतीय बैंडमिंटन को जितना कुछ दिया, उसकी जितनी तारीफ की जाए वो उतनी ही कम होगी. लेकिन, गोपी की फुटबॉल तुलना को मैं उचित नहीं मानता हूं.
निजी तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि अगर भारतीय खेलों के इतिहास की बात की जाए तो थॉमस कप जीत को 1983 के वर्ल्ड कप की जीत से जोड़ा जा सकता है.
1983 के वर्ल्ड कप के अलावा भारतीय बैडमिंटन की इस अभूतपूर्व जीत को 1990 के दशक में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम को मात देने वाली जैसी घटना के तौर पर देखा जा सकता है. उस दौर में ऑस्ट्रेलिया ने 1999 से लेकर 2007 तक लगातार 3 वर्ल्ड कप जीते थे और टेस्ट और वन-डे में भी वो महाबलशाली थे. वही हाल इंडोनेशिया का अभी है. लेकिन, भारत की जीत को महज तुक्का नहीं माना जा सकता है. थॉमस कप के इतिहास में तीन मुल्कों का दबदबा रहा है.
इंडोनेशिया, चीन और मलेशिया. 29 मौकों पर यही तीनों टीमें चैंपियन हुई हैं. 2014 में जापान ने पहली बार इस तिकड़ी के दबदबे को तोड़ते हुए चौथा देश बनकर थॉमस कप जीता. इसके दो साल बाद डेनमार्क ने भी यही कमाल दिखलाया और अब 2022 में भारत ने ये शानदार जीत हासिल की.
लेकिन, ये सब कुछ अचानक से ही तो नहीं हुआ. भले ही नेताओं में इस ऐतिहासिक जीत के लिए क्रेडिट लूटने की होड़ मची हुई है लेकिन हकीकत यही है कि पिछले 2 दशक में गोपीचंद, प्रकाश पादुकोणे और विमल कुमार सरीखे पूर्व खिलाड़ियों और कोच ने अपने अपने तरीके से भारतीय बैडमिंटन को इस मुकाम तक लाने में काफी मेहनत की.
अगर आज अलमोड़ा के छोटे से शहर से लक्ष्य सेन जैसा चैंपियन सामने आता है तो कही ना कही ये बात तो साबित होती है कि बैडमिंटन का सिस्टम सही तरीके से काम कर रहा है. सायना नेहवाल और पीवी सिंधू जैसे खिलाड़ियों ने अपने निजी खेल से ओलंपिक्स में मैडल जीते और नाम रोशन किया और थॉमस कप में बैडमिंटन खिलाड़ियों की ये कामयाबी भी किसी मायने में ओलंपिक मैडल से कम नहीं हैं.
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