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वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम
कैमरा पर्सन: शिव कुमार मौर्य
महीनों का इंतजार खत्म हुआ. बुधवार, 13 फरवरी को काॅम्पट्रोलर और ऑडिटर जनरल राजीव महर्षि ने संसद को राफेल सौदे पर अपनी रिपोर्ट सौंप दी. याद दिलाने की जरूरत नहीं, कि कैसे CAG ने यूपीए-2 सरकार में कथित घोटालों मसलन, टू जी, कोलगेट को सार्वजनिक करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. आखिरकार CAG गवर्नमेंट डील का ऑडिटर है. सरकार द्वारा खर्च किए गए जनता के पैसों का इवैल्यूएशन करता है. एक एक्सपर्ट के रूप में आंकलन करता है कि जनता का पैसा सही तरीके से खर्च किया गया या नहीं. या फिर राजनेताओं और उनके कथित रूप से दिवालिया, अमीर दोस्तों ने इसे खा-पीकर उड़ा दिया.
तो क्या CAG ने राहुल गांधी और कांग्रेस के उन दावों को खारिज कर दिया
CAG रिपोर्ट में राफेल सौदे पर किसी तरह की अनियमितता या अवैधता का जिक्र नहीं किया गया है, बल्कि ये कहा गया है कि 2016 में 36 विमानों की खरीद का सौदा यूपीए में हुए सौदे की तुलना में कुछेक एडजस्टमेंट के बाद 2.86% सस्ता है. निश्चित तौर से इस रिपोर्ट ने बीजेपी को प्राइम टाइम बहस और सोशल मीडिया पर जश्न मनाने का अच्छा मौका दे दिया है.
क्योंकि CAG रिपोर्ट दरअसल इनमें से किसी आरोप को खारिज नहीं करती है. ये 5 वजहें हैं, जो बताते हैं कि क्यों CAG रिपोर्ट से राफेल पर रार खत्म नहीं हो सकता.
सबसे पहले, CAG रिपोर्ट में अनिल अंबानी के कथित कनेक्शन के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. रिपोर्ट में डील के कॉन्ट्रेक्ट पहलुओं का जिक्र नहीं है. उसपर अलग से एक रिपोर्ट तैयार की जाएगी. लिहाजा इस रिपोर्ट का मतलब उन आरोपों को नकारना नहीं है.
इंडियन एक्सप्रेस में रिपोर्ट आई थी कि राफेल सौदे का ऐलान होने से पहले अनिल अंबानी ने फ्रेंच रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात की थी. CAG रिपोर्ट में इस मुलाकात का जिक्र नहीं है. इससे पहले कि अहमदाबाद की अदालत में मानहानि के आरोप में मुझपर करोड़ों रुपयों का मुकदमा ठोक दिया जाए, मैं साफ करना चाहता हूं कि ना तो CAG रिपोर्ट और ना ही कोई दूसरी रिपोर्ट इस सौदे और अनिल अंबानी की रिलायंस कंपनी के बीच कोई कनेक्शन बताती है. मुद्दा बस इतना है कि ऑफसेट डील और ये काॅन्ट्रैक्ट किसे हासिल होंगे? इस बारे में CAG रिपोर्ट में कोई जिक्र नहीं है.
अगली बात, रक्षा मंत्रालय ने कीमतों की बात एडिट करने को कहा था. इसी का ध्यान रखते हुए CAG रिपोर्ट ने किसी भी आइटम की असली कीमत नहीं बताई है. CAG रिपोर्ट ने पर्सेंटेज के रूप में फर्क जरूर बताया है. लेकिन बगैर असली कीमत जाने बिना हम कीमतों की पड़ताल नहीं कर सकते हैं.
ये अहम है, क्योंकि रिपोर्ट के नतीजे एक तरफ 2016 में डील के असल दाम और दूसरी तरफ एक ऑडिट अलांइड वैल्यू की तुलना पर बेस्ड हैं .ये इतना आसान नहीं, जितना लग रहा है. मैं आपको बताता हूं आखिर क्यों?
लिहाजा सौदों की तुलना करने और ये देखने के लिए, कि क्या हमारा मौजूदा सौदा सस्ता या महंगा है. इसके लिए आपको अलांइड वैल्यू सही तरीके से कैलकुलेट करनी होगी. और क्या CAG ने कीमतों का कैलकुलेशन सही किया है?
इसमें 2 समस्याएं हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने जिस फॉर्मूले का उपयोग किया, उसमें नंबर्स किस तरह एडजस्ट किए गए हैं ये नहीं बताया गया है. कुछ-कुछ महंगाई की बात की गई है और सौदे को सस्ता बता दिया गया है.
नंबर्स और कैलकुलेशन में पारदर्शिता की कमी को देखते हुए हाल के कुछ आर्टिकल्स जरूरी मालूम होते हैं. जिस दिन CAG रिपोर्ट आई थी, उसी सुबह बोफोर्स का पर्दाफाश करने वाले अखबार द हिंदू के एन राम ने उस नोट के डिटेल्स का खुलासा किया, जिसमें कांट्रैक्ट पर बातचीत करने वाली टीम के 3 मेंबर्स ने असहमति जताई थी. इस सौदे पर उनकी पहली और सबसे बड़ी आपत्ति बेहद अधिक कीमत को लेकर थी. उनके कैलकुलेशन के मुताबिक 2007 की कीमतों के एडजस्टमेंट के बाद एक्चुअल डील करीब 55 पर्सेंट महंगा है.
क्या CAG ने इस पाॅइंट पर विचार किया?
जी हां. इस पर विचार हुआ है. उसने नेगोशिएटर्स के एडजस्टमेंट वैल्यू को “अनरियलिस्टिक” बताया, क्योंकि ये फ्रांसीसी अधिकारियों की पेशकश से कम थी.
इसका मतलब क्या वे गलत थे? इसका मतलब ये नहींकि असहमति जताने वाले नेगोशिएटर्स गलत थे.
नेगोशिएटर्स ने इस पाॅइंट पर ध्यान दिया. उन्होंने दसाॅ की सालाना रिपोर्ट भी देखी, जिसमें दूसरों को बेचे जाने वाले जेट विमानों का जिक्र था. उस आधार पर उन्होंने कीमतों का कैलकुलेशन किया जो सही लगता है.
CAG ने टेक्नलाॅजी ट्रांसफर की कीमत घटाने और वैल्यू एडजस्टमेंट के नाम पर ‘कुछ-कुछ’ किया है, लेकिन क्या और कैसे किया है, ये साफ नहीं है. असल डील में एक मिसाइल की कीमत भी शामिल थी. लेकिन अब हमें मिसाइल खरीदने की जरूरत नहीं है, क्योंकि डीआरडीओ (DRDO) अपने देश में ही मिसाइल तैयार कर रहा है.
वैसे, विदेश से खरीदी जाने वाली अल्टरनेटिव मिसाइलें अब काफी सस्ती हैं. दरअसल भारत का Specific enhancements पर पूरी 17.08% की “बचत” इस वजह से हो गई है.
ये महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि Enhancment होने वाली बचत की वजह से ही ये डील सस्ती पड़ रही थी. सौदे के कुछ पहलू असल में ज्यादा महंगे हैं, जैसे इंजीनियरिंग सपोर्ट और पायलट ट्रेनिंग है. जब तक हम ये नहीं जानते कि इन आंकड़ों को कैसे एडजस्ट किया गया है और असहमति जताने वालों के आंकड़े क्यों गलत थे. सौदे की कीमत को लेकर सवाल होते रहेंगे.
जिस तरीके से सौदे की शुरुआत हुई वो भी शक पैदा करता है. अगर उन संदेहों में कुछ दम है, अगर ये शक हैं तो भी CAG रिपोर्ट इन्हें दूर नहीं करती. इसके कारण भी संदेह और गहरा गए हैं. ये साफ करता है कि दसाॅ ने साल 2007 में ओरिजिनल डील के मुताबिक विमान बेचने की शर्तें पूरी नहीं कीं. ये बात कांग्रेस और बीजेपी, दोनों के ही गालों पर तमाचा है.
इसके बावजूद प्रधानमंत्री मोदी नेओरिजिनल डील के बजाय नया डील करने का फैसला कर लिया, जबकि दसाॅ बेस्ट प्राइस की पेशकश भी नहीं कर रहा था. इसके अलावा रेलेवेन्ट प्रोसेड्यूर को नजरअंदाज करते हुए ये डील किया गया.
अब केंद्र का कहना है कि उन्होंने जो भी किया, वो डिफेंस प्रोक्यूरमेंट पाॅलिसी के मुताबक ही था. लेकिन दिलचस्प बात ये है कि खुद CAG इस दावे को गलत बता रहा है. इसलिए हमारे पास जो कुछ भी है, वो CAG की अपनी रिपोर्ट है, जो काफी विनम्रता के साथ बताती है कि सरकार की प्रक्रिया में गड़बड़ी थी. ये सुप्रीम कोर्ट के लिए भी थोड़ी शर्मिंदगी का सबब है, जिसका कहना था कि प्रोसेस सही तरीके से फॉलो किया गया.
आखिर में CAG की रिपोर्ट के बाद भी तकरार खत्म न होने का एक कारण ये भी है कि मुख्य प्रावधानों और जरूरतों को भी रहस्यमय तरीके से बदल दिया गया था. और उन्हें ऑफिशियल नेगोशिएटर्स, रक्षा मंत्रालय और कानून मंत्रालय की इच्छाओं के खिलाफ हटा दिया गया था.
एन राम के मुताबिक, इनमें एंटी करप्शन क्लाॅज भी शामिल थे, जिन्हें बिलकुल आखिरी मौके पर, सुरक्षा मामलों की संसदीय समिति से सहमति मिलने के बाद हटाया गया. इस बारे में भी CAG की रिपोर्ट ने चुप्पी साध रखी है.
एक और बड़ी परेशानी ये है कि इस डील में एक सॉवरेन गारंटी या बैंक गारंटी की जरूरत पर जोर दिया गया था. जिसे बाद में हटा दिया गया था. यहां तक कि एक एस्क्रो अकाउंट की व्यवस्था करने की बात भी फ्रांसीसी डील मेकरों ने नहीं मानी थी. CAG ने इस बात को माना भी है. लेकिन उसकी चुप्पी अचरज पैदा करती है. इसका जिक्र रिपोर्ट के उस हिस्से में है, जिसका शीर्षक है, “Assesment of terms and conditions”.
दिलचस्प बात है कि जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट को इस बात की जानकारी दी गई ठीक उसी तरह CAG को भी बताया गया कि गारंटी की जरूरत को हटाने का फैसला कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी ने सितंबर 2016 में लिया था.
लेकिन एन राम का कहना है कि दरअसल ये फैसला पीएमओ ने अक्टूबर 2015 में अपने फ्रांसीसी काउंटरपार्ट्स के साथ बातचीत के दौरान लिया था. इस बारे में CAG रिपोर्ट का कहना है कि बैंक गारंटी की गैरमौजूदगी का मतलब है, एक ऐसी बचत, जो कभी नहीं हुई. इसका फायदा सिर्फ दसॉ को मिला.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है, कि CAG की रिपोर्ट के बावजूद राफेल पर रार खत्म नहीं हुई है. लिहाजा इस मामले में अभी और खुलासे, प्रदर्शन और नाटक की संभावना बनी हुई है.
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