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सोशल मीडिया पर आज तक जितनी भी मुहिम चली हैं मैंने उन्हें हिन्दी में जिया है. हिंदी दिवस के मौके पर हम ऐसी कहानियां आप तक ला रहें हैं. जहां हिंदी के कारण बदलाव आया. अब तक हमने आपको गायत्री, रीना शाक्य और निर्मल चंदेल की कहानियां बताई है और ये कहानी है झारखंड की 37 वर्षीय सुनीता लकड़ा की.
झारखंड की 37 वर्षीय सुनीता लकड़ा पिछले एक साल से उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में हैं. वो यहां लगभग 100 गांवों में दलित, मुस्लिम व ओबीसी वर्ग के युवाओं के साथ संवैधानिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने और इसके महत्व को समझाने पर काम कर रही हैं. गांव-गांव जाकर संविधान यात्रा निकालती हैं. इससे पहले 1 दशक से भी अधिक समय उन्होंने बच्चों (विशेष रूप से आदिवासी समाज की बच्चियों) को मानव तस्करी से बचाने से लेकर महिला अधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम किया. उन्होंने 100 से अधिक लड़के-लड़कियों को मानव तस्करी से बचाया है.
सुनीता का जन्म रांची के कमरे गांव में हुआ, उन्होंने रांची के ही आदिवासी बाल विकास विद्यालय से मैट्रिक पास किया. मारवाड़ी कॉलेज से अर्थशास्त्र की ग्रेजुएट हुईं और फिर सोशल वर्क से मास्टर भी किया. 37 साल की सुनीता की समाज और सामाजिक कामों में गहरी रुचि कम उम्र से ही थी, इसका एक कारण मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियां थीं जिनका उनपर गहरा प्रभाव हुआ. वो उनके सबसे पसंदीदा लेखक हैं. 15 साल के लंबे कार्यकाल में समाज को थोड़ा और बेहतर बनाने के लिए सुनीता हर तरह के प्रयोग कर चुकी हैं. झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश इन तीनों ही प्रदेशों में उन्होंने हर तरह के सामाजिक काम को शुरू और पूरा किया है.
साल 2007 में उन्होंने खेलों के माध्यम से झारखंड व बिहार की लड़कियों को बराबरी का अधिकार समझाया और दिलाया भी. दरअसल तब गांव क्या शहरों में भी वॉलीबॉल, फुटबाल जैसे खेलों में लड़िकयों की भागीदारी ना के बराबर थी. सुनीता ने क्रिया संस्थान के साथ मिलकर खेलों में लड़िकयों की भागीदारी सुनिश्चित की. उन्होंने बिहार व झारखंड के कुछ गांवों में जाकर लड़कियों की अलग वॉलीबॉल और फुटबाल की टीम बनवाई. उनके अनुसार इस छोटी सी घटना ने उन्हें एहसास कराया कि आगे का रास्ता कितना कठिन है.
2010 में उन्होंने झारखंड के चतरा और हजारीबाग में ‘प्रधान-पति’ व्यवस्था की नींव को हिलाने की शुरुआत की. सुनीता के अनुसार ‘प्रधान-पति’ व्यवस्था सिस्टम की बीमारी है, जिसमें कोई महिला प्रधान/मुखिया बनकर भी लीडर नहीं बन पाती क्योंकि उसकी जगह काम उसका पति करता है. उनके अनुसार ज़िला पंचायतों में महिलाओं को 50% आरक्षण तो मिला पर ज़मीन पर आते-आते वो 5% भी नहीं बचता. सुनीता ने इस मुद्दे पर बदलाव के लिए कई गांव व पंचायतों में बैठकें शुरू कीं. महिलाओं को समझाया कि ये व्यवस्था नहीं कुव्यवस्था है, उनके अधिकार बताए और कई महिलाओं को प्रधान-पति से केवल प्रधान बनने की सीख दी, जिसका झारखंड के कुछ जिलों में व्यापक असर देखने को मिला.
उन्हें विश्वास नहीं होता कि उनकी और शिरीन की ऑनलाइन मुहिम के साथ लाखों लोग जुड़े. उन्हें चतरा और कोडरमा से फोन आते हैं, वहां भी कुछ लोग पेटीशन शुरू कर रहे हैं. सुनीता को लगता है कि युवा तकनीक की मदद से अपनी बात को मज़बूती से रख रहे हैं. उनके अनुसार चेंज डॉट आर्ग हो या अन्य प्लेटफॉर्म, उनका हिन्दी में उपलब्ध होना एक नई पीढ़ी को जन्म दे रहा है, जो अपनी मांग उठाना जानता है और ये भी जानता है कि उसे कहां उठाना है. सुनीता काफी उम्मीद से कहती हैं
सुनीता ने बताया, “मेरे पास एक डायरी है, जिसमें लोगों की तकलीफों और समस्याओं की कहानियां हैं, मेरे अपने जीवन के संघर्ष हैं. हमारे देश में समस्याओं का अंबार है खासकर दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज के लोगों की परेशानियां तो मैंने आंखों से देखी हैं, जी हैं. आप ही बताइये कि एक इंसान कितना काम कर लेगा? इसके लिए पूरे सिस्टम में बदलाव की आवश्यकता है, जो राजनीति की समझ से ही बदलेगा. पर अगर युवा राजनीति में हिस्सा ही नहीं लेंगे तो राजनीति बदलेगा कौन?” इस सवाल के साथ सुनीता एक और संविधान सभा के लिए निकल पड़ती हैं.
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