advertisement
“सुपरफास्ट. चुनाव आयुक्त की ज्वाइनिंग एक ही दिन में.. एक दिन में प्रोसेस हुआ, उसी दिन क्लियरेंस, उसी दिन एप्लीकेशन, उसी दिन मंजूर भी, उसी दिन अपॉइंटमेंट... फाइल ने 24 घंटे का सफर भी पूरा नहीं किया. लाइटिंग स्पीड से काम?"
दरअसल, जहां सरकारी फाइलों को लटकाने और अटकाने की इबारत लिखी जाती हो वहां चुनाव आयुक्त की ज्वाइनिंग एक दिन में हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट को ऐसा सवाल उठना ही था. कि भाई ऐसी भी क्या जल्दी थी.
सरकार ने जो किया उसे लेकर मामला अदालत में है, लेकिन कुछ वक्त से चुनाव आयोग सवालों के घेरे में है. कभी EVM, कभी वोटों की गिनती में हेरफेर, कभी पारदर्शिता पर सवाल, इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
सुप्रीम कोर्ट ने IAS ऑफिसर अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के केंद्र सरकार के फैसले पर सवाल उठाया है. दरअसल, ये सवाल इसलिए उठा है कि Union Ministry of Heavy Industries में सेक्रेट्री अरुण गोयल ने अपने रिटायरमेंट से कुछ ही दिन पहले 18 नवंबर 2022 को वॉलंटरी रिटायरमेंट ले ली, एक ही दिन में कानून मंत्रालय ने उनकी फाइल को मंजूरी दे दी, चार नामों की लिस्ट प्रधानमंत्री के सामने पेश की गयी, पीएम ने गोयल के नाम को सेलेक्ट भी कर लिया, गोयल के नाम को 24 घंटे के अंदर राष्ट्रपति से मंजूरी भी मिल गयी और गोयल जी ने नए चुनाव आयुक्त के रूप में 21 नवंबर 2022 को कार्यभार संभाल लिया.
सोचने की बात है कि आखिर इतनी बड़ी अदालत को क्यों कहनी पड़ी? क्यों सरकार, चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं? क्यों बार-बार चुनाव आयोग के साथ ट्रांसपेरेंसी की कमी दिखती है?
इस स्टोरी में हम आपको आगे चुनाव आयोग के कामकाज, EVM मैनिप्यूलेशन की आशंका, वोट काउंटिंग में गड़बड़ी के आरोपों, ईवीएम की देखरेख में लगे प्राइवेट इंजीनियरों से जुड़ी चौंकाने वाली सच्चाई बताएंगे लेकिन उससे पहले चुनाव आयोग पर उठ रहे सवालों पर बात करते हैं.
हिमाचल प्रदेश की रामपुर विधानसभा सीट पर 12 नवंबर 2022 को हुए चुनाव के बाद ईवीएम को सरकारी गाड़ी की बजाय निजी वाहन से ले जाते हुए पाया गया था. जिसके बाद 6 कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया.
हालांकि चुनाव आयोग ने बाद में कहा था कि वाराणसी में गाड़ी से बरामद की गई EVM मशीनें अधिकारियों के लिए मतगणना की ट्रेनिंग के मकसद से लाई गई थीं. लेकिन सवाल है कि ये जिस ईवीएम की गिनती देश का भविष्य तय करती हो वो बार-बार संदिग्ध हालातों में क्यों मिलती है?
क्विंट ने 2019 लोकसभा चुनाव में वोटों की गिनती को लेकर एक इंवेस्टिगेटिव स्टोरी की थी, अपनी पड़ताल में क्विंट ने पाया था कि वोटों की गिनती के बाद कई सीटों पर मतदान से ज्यादा वोट काउंट दर्ज किये गए थे. हालांकि चुनाव आयोग का कहना था कि "ये सभी आंकड़े प्रोविजनल हैं, डेटा अनुमानित हैं और इसमें बदलाव हो सकते हैं." लेकिन चार महीने बाद भी ऐसा नहीं हो सका था.
EVM को लेकर एक और अहम कहानी देखिए. 2019 लोकसभा चुनाव के 4 महीने के अंदर ही EC ने आम चुनाव की VVPAT पर्चियां नष्ट कर दी थीं, लेकिन चुनाव कानून 1961 के नियम 94 (b) में कहा गया है कि किसी भी चुनाव की VVPAT पर्चियों को एक साल तक संभाल कर रखा जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आखिर क्यों? किस बात की जल्दी थी?
और तो और- अगस्त, 2019 में क्विंट ने ही बताया था कि चुनाव आयोग के लिए EVM बनाने वाली कंपनी THE Electronics Corporation of India Limited यानी ECIL ने चुनावों के दौरान EVM और VVPAT की देखरेख के लिए मुंबई की एक फर्म से कन्सल्टिंग इंजीनियर लिए. सवाल है कि, क्यों चुनाव आयोग इतने संवेदनशील मामले पर किसी प्राइवेट हाथों में काम दे रहा था?
यही नहीं साल 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों में देरी पर भी चुनाव आयोग सवालों के घेरे में था. तब RJD नेता रितु जायसवाल परिहार सीट से सिर्फ 1569 वोट से हार गई थीं. चुनाव आयोग के मुताबिक पोस्टल बैलेट EVM वोट के पहले गिने जाने चाहिए लेकिन रितु कुमार ने तब दावा किया कि परिहार में पोस्टल बैलेट आखिर में गिने गए.
चुनाव आयोग और भी कई मामलों में विवादों में रहा है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी पर चुनाव प्रचार के दौरान आदर्श आचार संहिता उल्लंघन के आरोप लगे थे. हालांकि चुनाव आयोग ने उन्हें क्लीन चिट दी थी, लेकिन ये फैसला एकमत से नहीं हुआ, 3 में से एक चुनाव आयुक्त ने पीएम मोदी को क्लीन चिट देने का विरोध किया था. चुनाव आयुक्त का नाम था अशोक लावासा. मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने की कतार में खड़े लवासा को अक्तूबर 2022 में सेवानिवृत्त होना था. लेकिन उन्होंने वक्त से पहले अगस्त 2020 में ही इस्तीफा दे दिया.
सुप्रीम कोर्ट नए चुनाव आयुक्त की ज्वाइनिंग पर सवाल उठा रहा है क्योंकि चुनाव आयोग का आजाद रहना एक आजाद मुल्क की रूह है. सिर्फ कह देने भर से ये नहीं हो जाता कि चुनाव आयोग ट्रांसपैरेंट है, किसी दबाव में नहीं है, बिना पक्षपात किए काम करता है, बल्कि ये कहने से ज्यादा दिखना भी चाहिए. तब ही लोकतंत्र मजबूत बना रहेगा, नहीं तो हम पूछेंगे जनाब ऐसे कैसे?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)