Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019द नीलेश मिसरा शो: देश के युवा मुसलमानों की ये आवाज गौर से सुनिए

द नीलेश मिसरा शो: देश के युवा मुसलमानों की ये आवाज गौर से सुनिए

25% मुसलमान बच्चे क्यों कभी स्कूल नहीं जा पाए या उनको बीच में पढ़ाई छोड़नी पड़ी...

नीलेश मिसरा
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(फोटो: गांव कनेक्शन)
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(फोटो: गांव कनेक्शन)

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अगर मेरा नाम... नील मोहम्मद होता… तो इस दुनिया को देखने का मेरा नजरिया शायद कुछ अलग होता, है न? क्या वो नजरिया गलत होता? नहीं बिलकुल नहीं. हम जिस गली, जिस शहर, जिस धर्म, जिस देश में पैदा होते हैं वो हमें पैदा होते ही एक नजरिया दे देता है. हां, जैसा मैं अक्सर कहता हूं- हम आज की नाराजगी भरी, एक तरफा, वन साइडेड दुनिया में दूसरा बन कर नहीं देख पाते. वी कैन नॉट बिकम दि अदर. हम इंट्रोस्पेक्शन, आत्म निरीक्षण.. नहीं कर पाते. औरों की खामियां निकालने में इतने मसरूफ रहते हैं कि अपने बारे में ऑब्जेक्टिव हो कर, तटस्थ होकर सोच ही नहीं पाते. तो मैंने एक मिनट के लिए नील मोहम्मद बन कर सोचा और मेरे मन में कुछ सवाल थे…

हिंदुस्तान में लगभग 14 फीसदी जनसंख्या मुस्लिम नागरिकों की है. आज से कई साल पहले मुस्लिम समुदाय के इर्द-गिर्द एक मशहूर रिपोर्ट आई, सच्चर कमेटी रिपोर्ट.

उसके हिसाब से हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर थी. ये चौंकाने वाली बात थी. दलित समुदाय को तो छुआ-छूत, अनटचेबिलिटी जैसी भयंकर ज्यादतियों का सामना करना पड़ा, शिक्षा से अक्सर दूर रहना पड़ा. मुस्लिम समाज की ये हालत कैसे हुई? किसने की? क्या सिर्फ सरकारों ने? या मुसलमानों के अपने रहनुमा, अपने लीडर्स भी इसके लिए जिम्मेदार थे?

मेरा नाम है नीलेश मिसरा और मैं चल पड़ा हूं एक सफर पर, कुछ सवाल लेकर कुछ जवाबों की तलाश में. मैं जानना चाहता था कि आज का युवा मुसलमान अपनी कम्युनिटी के बारे में, अपने रहनुमाओं के बारे में, अपने मुद्दों के बारे में किस तरह से आत्मनिरीक्षण या इंट्रोस्पेक्शन करता है. मैं जानना चाहता हूं कि क्या नया हो रहा है मुस्लिम समुदाय में जो शायद अखबार की हेडलाइनों में और टीवी के शोर शराबे में, नेताओं की तकरीरों में दिख नहीं पाता.

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ये बहुत अजीब तरह की बात है कि हमारी जो कौमी लीडरशिप है उसके पास अगले 5 साल का भी विजन नहीं होता. उसको पता ही नहीं है दुनिया किधर जा रही है.
शीबा असलम जैदी (प्रोफेसर जेएनयू)

मुस्लिम समुदाय के नेता कौन हैं?

सर, मैं वास्तव में मैं एक नेता का भी नाम नहीं ले सकता, मेरे मन में कोई नाम नहीं है. सर कोई भी लीडर हो अगर वो अपनी मुस्लिम कम्युनिटी की बात करता है तो उसको ग्राउंड लेवल की खबर नहीं होती है.--अहमद बशर

अहमद बशर (दाएं)
मुस्लिम नेता हमारे मुद्दों पर वोट मांगते हैं, वो नेता मुस्लिमों की सोच को नहीं सामने लाते वो अपनी सोच को सामने लाते हैं और फिर उसे हमारी सोच बनाकर दुनिया को दिखा रहे हैं. इससे मुस्लिम समाज पर बुरा असर पड़ रहा है.
अतहर अहमद
मुसलमानों को पीड़ित बताया जाता है, लेकिन हम पीड़ित नहीं हैं, मैं कहती हूं कि मुसलमानों का समर्थन करने वाले नेताओं को जमीनी स्तर पर जाकर देखना चाहिए, हम पीड़ित नहीं हैं, मुस्लिम समुदाय की कुछ परेशानियां हैं, लेकिन चुनाव जीतने के लिए उसे एजेंडा बनाना सही नहीं है.
नाएला खान
मीडिया का भी ये कमाल है कहीं न कहीं ये देखिए कि बात चल रही होती है लीगल राइट्स की और कोई शाही इमाम बैठा हुआ होता है. जहां बैठा हुआ होना चाहिए एक वाइस चांसलर को या एक लॉ एक्सपर्ट को वहां वो शाही इमाम को बिठा रखते हैं. क्योंकि वो खुद भी नहीं चाहते मुस्लिम लीडरशिप या कोई और लीडरशिप उभर के आए.
मोहम्मद आसिफ
युसरा खान
एक जमाना था कि अगर एक लड़की नकाब पहनकर कुछ बोलती थी तो सब लोग चौंक जाते थे, लेकिन अब ये बात सामान्य हो गई है.
युसरा खान
12 साल में शायद मैं क्लास में अकेला मुस्लिम रहा होऊंगा जो क्लास 1 से क्लास 12 तक एक ही क्लास में रहा होगा, अंत में देखा गया मैं अकेला मुसलमान बचा हूं. लेकिन मुझे ऐसा कभी भी महसूस नहीं हुआ कि मेरे साथ कुछ गलत हो रहा है.
तौहीद खान, इंग्लिश लिटरेचर स्टूडेंट

कुरान शरीफ का पहला लफ्ज है, ''पढ़ो''. कितनी खूबसूरत बात है. लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार अशिक्षित लोगों में मुसलमानों का प्रतिशत सबसे अधिक है. यानि वो कौम जिसकी हदीसों में फरमाया गया है कि “इल्म हासिल करने के लिए अगर चीन भी जाना पड़े तो जाओ. वो कौम इल्म के मामले में सबसे पीछे है. ये मुस्लिम नागरिकों के साथ एक ऐसी ज्यादती है जिसने पीढ़ियों के भविष्य, उनके मुस्तकबिल पर गहरा असर डाला है. ये हालत कैसे हुई?

मुझे याद आ रही हैं वो 80 साल की दलित महिला जो बरसों पहले महाराष्ट्र के एक गांव में मिली थी. उन्हें आज तक भुला नहीं पाया. जब जिंदगी में वो अपने सबसे मुश्किल वक्त का सामना कर रही थीं, तो एक दिन उन्हें बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की एक सभा में जाने का मौका मिला. बाबा साहब ने मराठी में एक कहावत कही, ''पढ़ो या मर जाओगे'' ...रीड, ऑर यू विल डाई. वो ये सीख कभी नहीं भूलीं. सात बच्चे थे, भुखमरी का सामना करते हुए भी उन्हें पेट काटकर स्कूल भेजा. आज सब अफसर हैं, अच्छी नौकरियों में हैं.

इस खूबसूरत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के फाउंडर सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को दीन यानी धर्म के साथ-साथ शिक्षा, और खासकर टेक्निकल शिक्षा, पर जोर देने के लिए नए रास्ते बनाए. धार्मिक होने का मतलब पिछड़ा होना थोड़े होता है? हमारी सोच हमें पिछड़ा बनाती है. पांच बार नमाज पढ़ने वाला या जनेऊ धारण करने वाला और रोज सुबह-शाम मंदिर जाने वाला ऐस्ट्रोफिसिसिस्ट नहीं हो सकता क्या, और नहीं होता क्या?

लेकिन ये लफ्ज... ''मुसलमान''... जब भी आपके कानों में गूंजता है तो जेहन में जो पहली तस्वीर उभरती है वो क्या होती है, सोचिए. सफेद कुर्ता और ऊंचा पायजामा, सर पर गोल टोपी, लंबी दाढ़ी, आंखों में सूरमा.. यही ना? यही होता है न मुसलमान... वो जो बिरयानी खाने-खिलाने का शौकीन होता है, जिसके घर के दरवाजे पर 786 लिखा होता है, जो घर पर जालीदार बनियान पहनता है, ‘अमां मियां’ करके बात करता है, गोश्त की दुकानों की भीड़ में दिखता है और हां कट्टर होता है…

एक लंबे अरसे से मुसलमानों को इसी झूठी इमेज में कैद किया गया है. टीवी, सिनेमा, रंगमंच या किस्से-कहानियों में मुसलमानों की यही दुनिया दिखाई गई, जो एक फरेब है, धोखा है, झूठ है. लेकिन दुनिया तो इसी नजर से मुसलमानों को देखती है, सियासत यानि पॉलिटिक्स इसी नजर से मुसलमानों को देखती है. मुसलमानों के रहनुमा खुद मुसलमानों को इसी नजर से देखते हैं. अफसोस की बात तो ये है कि आहिस्ता-आहिस्ता मुसलमानों का बड़ा तबका, खुद भी इन्हीं मुद्दों को अपने असल मुद्दे समझने लगा है और अब उसी बुनियाद पर वोट करता है. हज सब्सिडी हटाए जाने पर वो अपनी बात रखता है लेकिन वो रहनुमाओं से नहीं पूछता कि आज भी इकतीस फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे क्यों हैं?

वो किसी दूर देश में हो रहे मुसलमानों पर जुल्म के लिए सड़कों पर तो आ जाता है लेकिन हुकूमत से ये पूछना जरूरी नहीं समझता कि क्यों 25 फीसदी मुसलमान बच्चे या तो कभी स्कूल जा ही नहीं पाए या उन्होंने पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी. वो रेलगाड़ी में सामने बैठे शख्स से कौम के खिलाफ हो रही साजिश पर घंटो तर्क-वितर्क तो कर लेता है लेकिन इस बारे में बात करना उसे पसंद नहीं कि भारतीय रेलवे में मुसलमान कर्मचारियों की तादाद महज 4.5 फीसदी क्यों है? वो सोशल मीडिया पर समाजिक व्यवस्था की कमियां गिनाते हुए कॉमेंट्स दर कॉमेंट्स करता चला जाता है लेकिन ये जानना उसके लिए जरूरी नहीं कि मुसलमान, सिविल सेवाओं में सिर्फ 3 फीसदी और विदेश सेवाओं में 1.6 फीसदी ही क्यों है?

देखिए कुछ और अहम सवालों को उठाती नीलेश मिसरा की- माइनॉरिटी रिपोर्ट का दूसरा भाग, मंगलवार सुबह 8 बजे

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Published: 14 Apr 2018,08:04 AM IST

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