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द नीलेश मिसरा शो | इन औरतों के गुस्से को आजमाना बंद कीजिए

अगर धैर्य की लक्ष्मण रेखा पार हो गई तो औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी

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एक दिन की बात है. महाराष्ट्र के गांवों से हजारों औरतें तपती सड़कों पर पैदल निकल पड़ीं. मुंबई जाने के लिए... हजारों नाराज औरतें. कोई टूटी चप्पलें पहने, कोई नंगे पांव, बस एक साड़ी में. अपना घर छोड़ कर. अपने बच्चे छोड़ कर, तकलीफ में दहकता अपना गांव छोड़कर. अपने सूखे कुएं छोड़ कर. दोन दिन कर्ज में डूबी अपनी जिंदगी छोड़ कर.

लेकिन ये कैसे हुआ? हमने तो कवियों से सुना था, कहानी लिखने वालों से सुना था, बुजुर्गों से सुना था, पड़ोसियों से सुना था कि औरत दरिया की मूर्ति होती हैं. ना जाने क्या-क्या सहती है. कभी घर चलाने की मुश्किलें, कभी घर और ऑफिस साथ में चलाने की मुश्किलें, कभी घर और खेत साथ चलाने की मुश्किलें.

ये धैर्य तो उसे बचपन से ही घुट्टी में पिला दिया जाता है न?

नाप-तोल कर बोलती है. सिर झुका कर चलती है...नजरें नीची करके, सहम-सहम कर अपनी जरूरतें बताती है, ध्यान रखती हैं कि हंसते समय कितना सेंटीमीटर मुंह खोले, जिससे हंसी फूहड़ या वल्गर ना लगे, जानती है कि उसे सवाल नहीं पूछना चाहिए, बहस नहीं करनी चाहिए… अन्याय, इनजस्टिस, इनइक्वेलिटी जैसे कॉन्सेप्ट्स पर भरोसा नहीं करती… अपनी मुश्किलें, अपनी परेशानियां, अपने सपने किसी को नहीं बताती...जो चुपचाप, जो मिलता है उसे अपनी किस्मत, अपना भाग्य समझकर ले लेती है.

इसलिए औरत और खासकर गांव की औरत, मुश्किलों से जूझती औरत, गरीबी से चुपचाप लड़ती औरत. जब नाराज होती है, जब उसका धैर्य टूटता है, और जब वो सड़क पर उतर आती है, तो समझ लीजिए कि ब्रेकिंग पॉइंट आ गया है कि धैर्य की लक्ष्मण रेखाएं टूटने की कगार पर हैं.

चाहे सरकारें हों, चाहे हाकिम हों, चाहे आसपास के पुरुष प्रधान समाज हों, चाहे सदियों पुरानी सोच हो, इन्हें आगाह हो जाना चाहिए, कि गरीब औरत का सड़क पर उतरना एक बैरोमीटर है, एक लिटमस टेस्ट है, सूचकांक का इशारा है कि अब तकलीफ कि हद पार हो चुकी है कि दूर कहीं किसी दुनिया में, किन्हीं गांवों में, किन्हीं छोटे शहरों में, किन्हीं बस्तियों में, अखबारों की बस्तियों और मीडिया की हेडलाइनों से दूर... कुछ बहुत गलत हो रहा है.

इस देश में समय समय पर नाराज औरतों को सड़क पर आना पड़ा और ये जब हुआ, समाज ने कोई करवट जरूर ली... मेरा नाम है नीलेश मिसरा…और मैं चल पड़ा हूं ढूंढने इन नाराज औरतों की कहानी.

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1974 का वो साल और उन औरतों की हिम्मत

मार्च का महीना था...साल था 1974...उत्तराखंड के चमोली के रैणी गांव में सड़क बनाने के लिए पेड़ काटे जाने की योजना, प्रशासन ने पास कर दी थी. गांव वाले विरोध कर रहे थे, तो उन्हें मुआवजा देने की घोषणा हो गई. पेड़ काटने के लिए अधिकारियों ने जानबूझ कर 26 मार्च का दिन चुना. क्योंकि मुआवजा लेने के लिए गांव के पुरुष चमोली में थे और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बातचीत के बहाने गोपेश्वर नाम के कस्बे में बुला लिया गया था. गांव में बची थीं सिर्फ कुछ ‘कमजोर’ औरतें. अफसर और ठेकेदार पेड़ काटने पहुंचे. सिर्फ पांचवी पास वो महिला, जिसका नाम गौरा देवी था, जिसने कानून की मोटी-मोटी पोथियां नहीं पढ़ी थीं, जिसने अपने गांव के बाहर की दुनिया नहीं देखी थी, जिसे अफसरों से बात करने के तौर-तरीके नहीं आते थे. वो गौरा देवी अपनी साथी औरतों के साथ पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गई कि- हिम्मत है, तो काट लो पेड़!

अगर धैर्य की लक्ष्मण रेखा पार हो गई तो औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी
गौरा देवी अपनी साथी औरतों के साथ पेड़ों से चिपककर खड़ी हो गई कि- हिम्मत है, तो काट लो पेड़!

नहीं काट पाए सरकारी अफसर वो पेड़. वापस लौटना पड़ा. वो कमजोर आवाज रैणी गांव से निकलकर पूरे देश में गूंजने लगी. पर्यावरण, जंगल, प्राकृतिक संसाधन जैसे शब्द, पहली बार डिक्शनरी से निकलकर संसद में सुनाई दिए. चिपको आंदोलन, पर्यावरण से जुड़े हर आंदोलन के लिए एक मिसाल बन गया. इसके बाद ही देश में पर्यावरण और वन मंत्रालय बना, वन अधिनियम लाया गया...कैसे किया होगा ये सब उन चंद कमजोर औरतों ने?

चिपको आंदोलन जब हुआ था, तब मैं सिर्फ एक साल का था. तब से अब तक पिछले चार दशक में ये देश कितना बदल गया. जीवन शायद थोड़ा और मुश्किल हो गया. अन्याय शायद थोड़ा और बढ़ गया. ताकतवर, थोड़ा और ताकतवर हो गए.

अंगूरी दहड़िया

मैं जा रहा हूं उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले के तीरवा कस्बे, जहां मुझे मिलेंगी अंगूरी दहड़िया, जिनकी जिंदगी में एक दिन अचानक अन्याय का साया बहुत लंबा हो गया.

अगर धैर्य की लक्ष्मण रेखा पार हो गई तो औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी
अंगूरी दहड़िया, जिनकी जिंदगी में एक दिन अचानक अन्याय का साया बहुत लंबा हो गया
मैं बहुत गरीब परिवार से थी, पहले मैं साड़ी के डिब्बों से जूते के डिब्बे बनाती थी. हमारे पति भी बहुत बीमार रहते थे, इसलिए इस बिजनेस से मैंने दिन रात काम कर के एक प्लॉट खरीदा और उसपर एक बिल्डिंग बनवाना चाहती थी. बिल्डिंग बनवाने के बाद जो बिल्डर था उसने मुझसे कहा कि आप इसका बैनामा मत करवाइये, जितने में बैनामा करवाएंगी उतने में एक नया कमरा बन जाएगा. फिर मैंने उसमें एक झोंपड़ी बनवा ली थी. जब बिल्डिंग तैयार हुई, तो उस आदमी ने मेरे साथ धोखाघड़ी कर ली थी. मैंने सबके आगे जाकर अपना दर्द कहा पर किसी ने भी मेरी नहीं सुनी.
अंगूरी दहड़िया

अंगूरी बताती हैं, ‘‘इसके बाद मुझे कुछ समझ नहीं आया कि मैं क्या करूं. उसके बाद मैंने एक संकल्प किया कि जो मेरे साथ हुआ वो मैं किसी गरीब भाई-बहन के साथ नहीं होने दूंगी. मुझे एक बार लगा कि मैंने सोच तो लिया है, लेकिन मैं इतने लोगों की मदद कैसे कर पाउंगी. फिर मेरे दिमाग में एक बात आई कि एक संगठन खड़ा कर सकूं, जिससे मैं हर सरकारी अधिकारी से बात कर सकूं, हर नेता से बात कर सकूं और अपना दर्द सह सकूं और दूसरे के लिए भी लड़ाई लड़ सकूं. इसलिए मैने गांव-गांव जाकर महिलाओं से मिलना शुरू किया ऐसे कर के 2010 में मैंने इस ग्रीनगैंग संगठन को खड़ा किया.”

ये लड़ना-भिड़ना, मोर्चे निकालना, लाठियां लेकर धरना देना, और कोई ना सुने तो वही लाठी उन पर धर देना, औरतों को शोभा देता है क्या ये सब? यही तो कहते हैं हम, जब कोई औरत अपने अधिकार के लिए लड़ने की कोशिश करती है. पर अंगूरी को किसी का कुछ भी कहना अब सुनाई नहीं देता. पांच बार जेल जा चुकी हैं...और बड़े गर्व से बताती हैं कि गरीब की बात जब प्रशासन नहीं सुनता, तो कानून तोड़ना ही पड़ता है.

लोग कानून अपने हाथ में लें, इसका मैं समर्थन नहीं करता. अन्याय के खिलाफ लड़ाई कब अराजकता बन जाए, पता ही नहीं चलेगा. लेकिन महिलाओं को ग्रीन गैंग जैसी संस्था बनानी पड़ती है तो इसलिए क्योंकि सरकारी कानून व्यवस्था, रेवेन्यू डिपार्टमेंट ने अपना काम नहीं किया.

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ऊषा विश्वकर्मा

जब पुलिस और न्याय व्यवस्था अपना काम नहीं करती... तो रेड ब्रिगेड बन जाती है. लखनऊ में यौन हिंसा का शिकार हो चुकीं ऊषा विश्वकर्मा और ऐसी कई लड़कियों ने एक समूह बनाया जो यौन शोषण करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देना जानता है.

अगर धैर्य की लक्ष्मण रेखा पार हो गई तो औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी
लखनऊ में यौन हिंसा का शिकार हो चुकीं ऊषा विश्वकर्मा ने एक समूह बनाया जो यौन शोषण करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देना जानती है
कभी कोई कॉन्सेप्ट नहीं था लेकिन हम लोग इसके शिकार हैं. पुलिस से कोई सपोर्ट नहीं मिला, प्रशासन से कोई सपोर्ट नहीं मिला, समाज से कोई सपोर्ट नहीं मिला, हमने अपनी सुरक्षा करना खुद ही सीखा. हममें से दो से तीन लड़कियां रेप विक्टिम हैं और हम लोग सेक्सुअल वायलेन्स का शिकार हैं, हम लोग अपनी भी लड़ाई लड़ते हैं और समाज में और भी ऐसे केस होते हैं उनके भी लिए लड़ते हैं. परिवार वाले पहले तो साथ नहीं थे, अब उनको लग रहा है ये काम सही है. अभी हमारे साथ बीस से पच्चीस लड़कियां ऐक्टिव ग्रुप में हैं और करीब साढ़े आठ हजार लड़कियां सदस्य हैं रेड ब्रिगेड की.
ऊषा विश्वकर्मा

गरीब औरत जब जब सड़क पर उतरे, सरकारों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. याद करिए नब्बे के दशक को, जब आंध्र प्रदेश में सैकड़ो औरतें सड़क पर उतर आईं, शराब के खिलाफ. जिन औरतों की किस्मत में शराबी पति के हाथ से मार खाना लिखा था, उन गरीब, कमजोर, अनपढ़ औरतों ने मुख्यमंत्री के घर के आगे जमीन पर लेट कर धरना दिया, रास्ता रोक दिया, शराब की दुकानें तोड़-फोड़ डाली, अपने शराबी पतियों, बाप, भाइयों के सिर मुंडवा कर गधों में घुमाया.

संपत पाल

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में संपत पाल नाम की एक महिला ने जो अब टीवी और अखबार में पहचाना नाम बन चुकी हैं. उन्होंने गुलाबी गैंग नाम से एक समूह की शुरुआत की. लाठी भांजती इन महिलाओं ने उत्पीड़न करने वाले लोगों को चने चबवा दिए. आज उनके आंदोलन में हजारों महिलाएं जुड़ी हैं.

अगर धैर्य की लक्ष्मण रेखा पार हो गई तो औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी
संपत पाल ने गुलाबी गैंग नाम से एक समूह की शुरुआत की

जगमति सांगवान

1995 में हरियाणा के जींद जिले में खाप पंचायत के खिलाफ जाते हुए एक लड़के ने अपने ही गांव की एक लड़की से शादी कर ली थी. पंचायत ने आदेश दिया कि लड़के की 12 साल की बहन का बलात्कार कर दिया जाए. पुरुष इस फैसले के सर्मथन में आ गए. लेकिन महिलाओं ने ये बकवास सहन नहीं की. जगमति सांगवान नाम की महिला की अगुवाई में एक हजार औरतों ने विरोध छेड़ दिया.

और किस्से हिंदुस्तान के कोने-कोने में होते हैं. कुछ सुर्खियां बन पाते हैं, कुछ दब जाते हैं. लेकिन औरतों की नाराजगी दब नहीं पाएगी.

हर नाराज औरत की नाराजगी के पीछे कोई लंबी नाइंसाफी छिपी है. आइए सीखें कि इन औरतों की नाराजगी क्या कह रही है. सिर्फ सरकारों ने नहीं, आपने और हमने, हम पुरुषों, हम शहर में रहने वालों ने, हम गरीबों को हिकारत की नजर से देखने वालों ने, हम सब ने भी इस नाराजगी को हवा दी है.

लेकिन अब स्थिति हाथ से निकल रही है, समझ लीजिए कि धैर्य की लक्ष्मण रेखा पा हो रही है. कुछ प्रचंड होने को है. ये औरतें मुंह बंद करके नहीं बैठी रहेंगी. ये घूंघट ओढ़कर, कोने में दुबकी नहीं रहेंगी. जब नाराजगी सर से उतरेगी तो ये अपने घर, अपने गांव को बचाने के लिए अपने घर की देहरी लांघ जाएंगी. चाहे दुनिया इनके हिसाब से न चलें, लेकिन ये दुनिया तक अपनी बात पहुंचाएंगी.

मैं चल पड़ा हूं एक और सफर पर, किसी और कहानी की तलाश में... जमीनी हिंदुस्तान की कहानियां. वो कहानियां जो हमारे आस पास अपना कुछ ना कुछ छोड़ जाती हैं, हमारी जिंदगी में शामिल हो जाती हैं... और हमें बताती हैं कि अपने आस पास की दुनिया को हम एक नई नजर, नई उम्मीद से देखें, क्योंकि हमारे हीरो हमारे आसपास रहते हैं.

यह भी देखें: द नीलेश मिसरा शो: डियर शाहरुख खान जी, ये चिट्ठी आपके लिए है...

[क्‍विंट ने अपने कैफिटेरिया से प्‍लास्‍ट‍िक प्‍लेट और चम्‍मच को पहले ही 'गुडबाय' कह दिया है. अपनी धरती की खातिर, 24 मार्च को 'अर्थ आवर' पर आप कौन-सा कदम उठाने जा रहे हैं? #GiveUp हैशटैग के साथ @TheQuint को टैग करते हुए अपनी बात हमें बताएं.]

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