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द नीलेश मिसरा शो:ये वर्किंग विमेन देश की खेती की रीढ़ हैं लेकिन...

भारत में एक पुरुष सालभर में 1860 घंटे खेती का काम करता है और महिला... साल में 3300 घंटे…

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जब ट्रैक्‍टर ले के निकलते हैं, तो लोग हंसते हैं. कहते हैं कि उनकी लुगाई, उनकी बेटी ट्रैक्‍टर चला रही है. यहां और कोई ट्रैक्टर चला नहीं पाता है, तो हम पर बस हंस ही सकते हैं. लोगों को बुरा इसलिए लगता है कि उनकी स्त्री खेत का कोई काम नहीं कर पाती और हम खेत से लेकर घर तक का सारा काम भी करते हैं और बच्चों को पालते-पोसते भी हैं.

हमने सुना है भारत में एक पुरुष सालभर में 1860 घंटे खेती का काम करता है, और महिला... साल में 3300 घंटे… यानी रोज करीब नौ घंटे... हमने सुना है कि ललितपुर की गुड्डी और ऐसी करोड़ों महिलाओं की जिंदगी में नौ घंटों के अलावा घर का काम, बच्चे संभालना, जानवरों की देखभाल, वो अलग है…

आज मैं आपसे बात करने जा रहा हूं वर्किंग विमेन, कामकाजी महिलाओं के बारे में. घर से रोज काम पर जाती महिलाएं...अपने घर और काम के बीच एक मुश्किल संतुलन बिठाती महिलाएं...दिनभर मेहनत करती महिलाएं.

लेकिन खेतों में दिन-रात हड्डियां गलाती ये महिलाएं सरकारों को दिखाई नहीं देती...ना पॉलिसी मेकर्स को, ना अधिकारियों को, ना ही लोन देने वाले बैंकों को, क्योंकि महिलाएं किसान कैसे हो सकती हैं?

जो आप खाते हैं वो महिला किसान भी उगाती हैं, लेकिन कहीं गिनी नहीं जाती हैं. मेरा नाम है नीलेश मिसरा...और आज मैं जा रहा हूं, ऐसी ही इनविजिबल, अदृश्य वर्किंग विमेन से मिलाने, जो करोड़ों में हैं, लेकिन दुनिया को नहीं दिखती हैंं और हमारे देश की विशाल अर्थव्यवसथा, हमारी खेती, का एक बड़ा बोझ अपने कंधों पर उठाए चुपचाप चल रही हैं.

मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का किसान, मैथ‍िलीशरण गुप्त की कविताओं का किसान, ग्रीन रिवोल्यूशन...हरित क्रांति का किसान, सरकारी नीतियों का किसान, मीडिया का किसान...वो किसान ऐसा दिखता है. ये इत्तेफाक नहीं है कि गूगल इमेज में जब किसान लिख कर सर्च करें, तो सिर्फ ये तस्वीरें नजर आती हैं.

ये मान लिया जाता है कि वो किसान की पत्नी हो सकती है, किसान की मां हो सकती है, किसान की बेटी हो सकती है... पर वो खुद किसान???

महिला किसान के नाम पर योजनाएं नहीं बनतीं, किसी दस्तावेज में उनका नाम नहीं होता, आंकड़े दुनिया को नहीं बताते कि जीडीपी, सकल घरेलू उत्पाद में उनका कितना योगदान है, इकनॉमिक ग्रोथ में उनकी भूमिका नापने का कोई स्केल नहीं...क्योंकि वो हैं ही नहीं, क्योंकि वो एग्जिस्ट ही नहीं करतीं… वो अदृश्य हैं.

गुड्डी

ऐसी ही एक अदृश्य किसान से मिलने मैं जा रहा हूं. उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में चालीस साल की गुड्डी पिछले 19 साल से किसान हैं. तीन एकड़ की खेती है, दो बच्चे हैं और वो खुद अपना परिवार चलाती हैं.

लोग जैसे खेती करते हैं, तो देखते थे कि कैसे पानी खेत में लगाते हैं, कैसे काम करते हैं, उसी से देख-देख कर सब सीख लिया. 19 सालों से हम अकेले ही खेती करते आ रहे हैं और ट्रैक्टर चलाते रहे अब हम 40 साल के हो गए. अब हमारा एक लड़का बड़ा हो गया है और अब वो ट्रैक्टर चलाने लगा है.
गुड्डी

2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में छह करोड़ से ज्यादा औरतें खेती के काम से जुड़ी हैं, पर जमीन पर हक कितनी औरतों का है? संयुक्त राष्ट्र कि संस्था यूनएडीपी की एक रिपोर्ट कहती है कि खेती के काम में महिलाओं की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत है, लेकिन खेती की जमीन सिर्फ 13 प्रतिशत महिलाओं के नाम पर ही है...खेती करने वाली ये बाकी सत्तासी प्रतिशत महिलाएं मजदूर कहलाती हैं, किसान नहीं.

एक रिसर्च के अनुसार, बिहार, नगालैंड, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में खेती में महिलाओं की सबसे अधिक भागेदारी है...केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल में महिलाएं खेती में कम हिस्सा लेती हैं.

लल्ला देवी

सुल्तानपुर जिले में, जहां के छोटे से गांव रामनाथ पुर में रहती हैं लल्ला देवी. खेती करती हैं, अनाज उगाती हैं, पर किसान नहीं हैं...कम से कम कुछ साल पहले तक नहीं थीं. खेत ससुर के नाम थे...उनकी मौत के बाद पट्टे पर पति का नाम चढ़ गया...पति और बेटे नौकरी की तलाश में मुंबई में भटक रहे थे, और लल्ला देवी उन बंजर हो चुके खेतों पर हल चला रही थीं.

हमारी धनिया माड़ने वाली हो गयी थी, तो हम अपने बैल लेकर खुद ही माड़ने के लिए निकल गए. अब पहले ये होता था कि जो महिलाएं होती हैं, वो खेत में बैल के साथ जोत नहीं सकती हैं, लेकिन जब पानी नहीं बरस रहा था, तब सीता माता ने हल चलाया था. तब बारिश हुई थी, तो उनको पाप नहीं लगा, तो हमें क्यों लगेगा. तब से ही खेती शुरू कर दिया. जब हम अपना खेत में बैल ले गए, तो गांव वालों ने कहा, क्या किया है तुमने? तुम्‍हें ये नहीं करना चाहिए था, लेकिन हम डरे नहीं. महिला को शुरू से दबा के रखा गया है, लेकिन अगर पहले से महिलाओं को दबाया नहीं गया होता, तो महिलायें पुरुष से बिलकुल कम नहीं होतीं. 
लल्ला देवी

लल्ला देवी किसान थीं, किसान ही कहलाना चाहती थीं…खेती से मिली मजदूरी से उन्होंने अपने खेत खरीदे, फिर महिलाओं को एकजुट किया और उन्हें मजदूर से किसान बनाने के मिशन में जुट गईं.

रामरती देवी

ऐसी ही एक कहानी यहां दूर गोरखपुर में मेरा इंतजार कर रही है. लंबा सफर है ... सुना है किसान चाची वहां मिलेंगी...रामरती देवी....

रामरती जी गोरखपुर से चालीस किलोमीटर दूर सरपतहा गांव में रहती हैं...रोज सुबह 4 बजे उठती हैं. जानवरों को चारा-पानी देती हैं, घर के काम निपटाती हैं, फिर काम पर निकल जाती हैं...काम, यानी खेती. जरा सी जमीन पर एक साथ 35 फसलें बोकर नाम कमा चुकी हैं, अवॉर्ड्स जीत चुकी हैं…

कई प्रकार की सब्जी की खेती करती हूं. खाने के बाद जो सब्जियां बच जाती हैं. उसे मैं मंडी में ले जाती हूं. घर के सभी सदस्य मेरी मदद करते हैं. केंचुआ की खाद ज्यादा प्रयोग करती हूं. देशी खाद सबसे अच्छी होती है. केंचुआ की खाद डाइ का काम करती है. खेती से मैंने बहुत पैसे भी कमाए. लोगों में मेरी पहचान भी खेती से ही हुई. मेरी बहू भी मेरी खेती में मदद करती है.
रामरती देवी

देखिए बात सीधी सी है. ज्यादातर सरकारी सब्सिडी के लिए, लोन के लिए, गवर्नमेंट स्कीम्स का फायदा लेने के लिए अपनी जमीन होना जरूरी है, बस यही जमीन औरतों के नाम नहीं होती. 2005 में सरकार ने पैरेंटल प्रॉपर्टी में बेटी को अधिकार देने का कानून बना जरूर दिया, पर परंपरा अब भी यही है कि बाप की विरासत पर बेटे का हक होता है...खेती की पुश्तैनी जमीन, जो बाप-दादा के नाम थी, उनके बाद बेटे के नाम हो जाती है, फिर पोते के...पत्नियां, बेटियां और बहुएं उन खेतों में काम करने वाली मजदूर भर बन कर रह जाती हैं, जिनको मालिकाना हक तो दूर उनकी मजदूरी भी नहीं मिलती…

पिछली, यानी 2011 की जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि देश में 32.8 प्रतिशत महिलाएं और 81.1 परसेंट पुरुष खेती से जुड़े हैं...पर ये आंकड़े ये नहीं बताते कि इन 81.1 परसेंट पुरुष किसानों के घर की औरतें, वो औरतें जो किसान नहीं कहलातीं...वो खेत तैयार करने से लेकर, बुआई से लेकर, निराई, फिर फसल काटने से लेकर उसे संभालने तक में पूरा हाथ बंटाती हैं...पर इनके ये काम कहीं गिने ही नहीं जाते.

औरत गुड़ाई करे, तो ठीक, ट्रैक्टर चलाने लगे तो गलत. औरत खेत में खटती रहे तो ठीक, उसी खेत में अपना हक मांगने लगे तो गलत. औरत खेतीहर मजदूर कहलाए तो ठीक, किसान कहलाना चाहे तो गलत!
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इनके वर्किंग आवर्स लंबे हैं, इनका अप्रेजल नहीं होता, इन्हें प्रमोशन नहीं मिलता, इन्हें 6 महीने की मैटरनिटी लीव नहीं नसीब है...ये वर्किंग विमेन हिंदुस्तान की खेती की रीढ़ की हड्डी हैं...उम्मीद है कि इनकी भी कहीं गिनती होगी, इन्हें भी सम्मान मिलेगा, इनके नाम भी जमीन होगी...उम्मीद है आप और हम समझेंगे इन वर्किंग विमेन...इन महिला किसानों का देश को योगदान.

और उम्मीद है कि अगली बार जब आप फेसबुक पर ‘मां के हाथ का खाना’ याद करके कोई प्यारी सी पोस्ट डाल रहे होंगे, तो उस गुमनाम महिला, महिला किसान को याद कर लेंगे, जो किसी की मां है, जिसने आपकी मां के हाथों तक वो खाना पहुंचाया है...

मैं चल पड़ा हूं एक और सफर पर… हिंदुस्तान की जमीन से जुड़ी कहांनिया तलाशने.

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