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द नीलेश मिसरा शो:इन अजीब लोगों से मिलेंगे तो शुक्रिया जरूर कहिएगा

कहानी उन लोगों की जो अपना इनक्रीमेंट नहीं देखते, सालों दूसरों का दर्द देखते हैं

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कौन हैं ये लोग? ये पागल, जिद्दी, ना समझ, टेढ़े लोग? ये अजीब लोग? कौन हैं ये? क्यों ये दुनिया की, औरों की, इतनी फिकर करते हैं? क्यों ये किसी परिंदे, किसी जानवर को बचाने के लिए खाना छोड़ के चले जाते हैं?

क्यों इनका खून खौल जाता है जब ये सड़क किनारे बैठे नल से हजारों गैलन पानी बहता देखते हैं क्योंकि म्यूनसिप्लिटी वाले तीस रूपये की टोटी नहीं लगा पाए? क्यों ये घर के पास वाले स्लम पर जाकर, या पार्क में रेलवे प्लेटफॉर्म पर जाकर गरीब बच्चों को रोज पढ़ाते हैं?

क्यों ये अपने मोहल्ले को या किसी और के पार्क को या बीच को या नदी के किनारे को संडे की सुबह साफ करने पहुंच जाते हैं? कौन हैं ये लोग? ये क्यों नहीं बाकी दुनिया की तरह अपना बैंक बैलेंस, अपनी भलाई, अपने कैरियर की सोचते हैं? क्यों इतने निस्वार्थ, इतने सेल्फलेस हैं? आप सब जानते हैं इन लोगों को. आपके ही परिवार में वो कजन या वो मौसी या वो कॉलेज का दोस्त या वो पड़ोसी... जिन्हें आप और बाकी दुनिया नॉर्मल नहीं समझती... पागल समझती है... वो ड्रॉइंग रूम में कभी कह भर दें कि, ‘‘ये प्लास्टिक की कप और प्लेट्स अवोएड किया करिए. पर्यावरण के लिए बहुत खराब होती हैं’’ तो आप बुदबुदाते हैं, ‘‘लो, इनको NGO भाषण फिर शुरू हो गया’’... हैं ना?

इनके बारे में शायद आप कभी अखबार में लिखा न पढ़ें, इन पर शायद कभी फिल्म न बने, शायद हमेशा इनकी हंसी उड़े, कभी समाज की वाहवाही न मिले... लेकिन ये अपना काम करते रहेंगे... आप अपने अगले इन्क्रीमेंट के बारे में सोचेंगे, और ये अपनी ईएमआई का कहीं से इंतजाम करते हुए भी किसी और की भलाई के बारे में सोचते रहे होंगे.

मेरा नाम है नीलेश मिसरा और मैं चल पड़ा हूं. एक सफर पर .. ऐसे ही कुछ पागल, टेढ़े, जिद्दी, नासमझ, अजीब लोगों से आपको मिलवाने.. जिन्होंने दुनिया के बताये रास्ते के कहीं अलग ही अपनी गाड़ी उतार ली, अपना रास्ता बनाने के लिए.. इस तरह के लोगों को पहचानना जरूरी है... क्योंकि... हमारे हीरो हमारे आसपास रहते हैं.

अभिनव श्रीयान

जिस उम्र में लड़के लड़कियों को ताकने की कला, ‘बर्ड वाचिंग’ नाम देकर सीख रहे होते हैं. उस उम्र में दिल्ली के अभिनव श्रीयान बर्ड को बचाने का काम करना शुरू कर चुके थे. पक्षी ही क्यों, वो किसी भी जानवर को बचाने के लिए किसी भी हद्द तक जा सकते हैं.

अलग अलग एनजीओ के लिए काम करके अपनी जीविका के रूम में जो कमाते हैं, इसी जुनून को जिंदा रखने के लिए खर्च देते हैं. उन्होंने एक संस्था बनाई है, ‘‘फौना पुलिस”, जो जानवरों की रक्षा के लिए जब पुकारा जाता है, पहुंच जाती है. पता नहीं क्या पड़ी है इनको ये सब करने की?

‘सेविंग सिंगल लाइफ ऐट आ टाइम’ अगर हमें एक भी जानवर के बारे में सूचना मिलती है कि ऐक्सिडेंट हो गया है या कहीं फंस गया है तो उसको बचाने की कोशिश की जाती है. पतंगों के मांजे से बर्ड्ज कट जाती हैं, उनका रोड ऐक्सिडेंट हो जाता है, कहीं फंस जाते हैं वहां से उनको निकालकर सेफ जगह पर पहुंचा देते हैं. हमने कहीं भी किसी से प्रोफेशनल ट्रेनिंग नहीं ली है पर आज की डेट में बहुत एक्स्पर्ट हैं हमारे पास जो पर्टिक्युलर सिचुएशन को हैंडल कर पाते हैं.
अभिनव

ये अजीब लोग कितनी छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ते हैं रोज... और रोज कितने बड़े स्तर पर रोज दुनिया को बदलते हैं. अपने शहर, अपने गांव, अपने मोहल्ले, अपने पड़ोस में ही लोगों की जिंदगियां बेहतर करते हैं. लेकिन दुनिया तो ऐसे लोगों को अक्सर नार्मल नहीं समझती है.

अफरोज शाह

मुंबई के एक वकील अफरोज शाह ने 2015 में वो करने की सोची जो... कई लोग कह सकते हैं कि उनका काम नहीं था. उन्होंने मुंबई के सबसे बड़े बीच, वरसोवा बीच, को साफ करने का बीड़ा उठाया. वरसोवा में मैं भी कई साल रह चुका हूं और जानता हूं कि ये बीच इतबा गन्दा, इतना बदबूदार रहा है कि वहां ठहरना मुश्किल होता था. अफरोज ने अपनी कोशिशों से 12000 वालंटियर जुटाए. एक सौ नौ हफ्तों --- यानी दो सालों तक --- ये भले लोग वरसोवा बीच को अपने हाथों से साफ करने की मुहिम चलाते रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने अपने शो 'मन की बात' में उनकी चर्चा की.

और फिर अफरोज हार गए. बाकी दुनिया ने उन्हें एक तो कोई मदद नहीं की, दूसरा उस बीच को दोबारा गंदा करना उन लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार. यहीं नहीं, उन्हें गालियां मिलीं, गुंडों से धमकियां मिलीं, और महानगरपालिका के आलस को झेलना पड़ा. दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा बीच साफ करने का प्रयास... ढेर हो गया.

नहीं दुनिया अक्सर नहीं समझती ऐसे लोगों को फिर भी वह अपने छोटे बड़े काम करते रहते हैं.

जॉन और रोजी

लखनऊ की गलियों में गरीबी से जूझ रहे एक मोहल्ले में आपको वह दो शख्स मिलेंगे जिनके यहां मिलने की आपको कताई उम्मीद नहीं होगी.

यह हैं जॉन हकीम और उनकी पत्नी रोजी जो यहीं इसी स्लम में रहते हैं और बच्चों को पढ़ाते हैं. अमेरिका में अच्छे भले रह रहे थे यहां आने की क्या पड़ी थी.

जॉन का एक दोस्त उन्हें 2004 में जबरदस्ती उनकी इच्छा के विरुद्ध भारत लाया और फिर उन्होंने यहां बस जाने का और बच्चों को पढ़ाने का फैसला कर लिया पहले डेढ़ साल इस विशाल देश को लोगों को हिंदी भाषा को और इन नई सच्चाइयों को समझने में ही निकल गए वह इस बस्ती में रहने लगे और उनकी अच्छाई को अक्सर शक की नजर से देखा जाने लगा.

एक दोस्त ने मुझे बताया कि कुछ लोग सोच रहे हैं कि अमेरिका से आदमी क्यों आया है शायद वह गुंडा है या पुलिस से भाग रहा है या मैं अमेरिकी सरकार का एक गुप्त एजेंट हूं या सीआईए. कुछ लोगों ने हमें गलत समझा लेकिन बहुत सारे लोगों ने वास्तव में हमें सम्मान दिया.
जॉन

आज जॉन और रूबी रोज छोटी-छोटी खुशियों से इन बच्चों की जिंदगी बदल रहे हैं और वो अब अमेरिका नहीं जाना चाहते.

लोगों का सेल्फिश होना निस्वार्थ होना औरों के लिए काम करना यह शायद इत्तेफाक नहीं है कम से कम कुछ वैज्ञानिक तो यही कहते हैं.

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ऐसे क्यों हैं ये लोग?

अमेरिका के जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर अभी गाली मार्च ने ऐसे 39 लोगों पर रिसर्च की जिन्होंने बिना कोई स्वार्थ देखे किसी अजनबी की अपनी किडनी दान में दे दी थी. जी हां! अपनी किडनी आप और हम में से कितने लोग होंगे जो यह करने की सोच भी सकते हैं?

प्रोफेसर मार्शल ने पाया की इन सारे निस्वार्थ लोगों के दिमाग में कुछ अलग था उनका दिमाग औसत से 9% बढ़ा था और खासकर ब्रेन का एक हिस्सा जिसे इमेज डाला कहते हैं जो दर्द और तकलीफ जैसी भावनाओं को बेहतर समझने में मदद करता है वह हिस्सा निश्चित रूप से बढ़ा हुआ था यानी यह लोग जी हां यह अजीब लोग मुश्किल में पड़े किसी इंसान को उनके हाव-भाव से औरों से जल्दी पहचान लेते हैं और मदद करना चाहते हैं.

साइंस हो या संस्कार, नेकदिल इंसान अपना काम चुपचाप करते चले जाते हैं उत्तर प्रदेश में रायबरेली के अभय श्रीवास्तव गांव में दिव्यांग बच्चों को पढ़ाते हैं खासकर इसलिए क्योंकि ऐसे ज्यादातर बच्चे पांचवीं और आठवीं के बीच पढ़ाई छोड़ देते हैं. आज तक वह 5000 बच्चों की मदद कर चुके हैं कभी बैंक में काम करने वाले राजाराम त्रिपाठी आज छत्तीसगढ़ में औषधि खेती यानी मेडिकल फार्मिंग करने में हजारों किसानों की मदद कर रहे हैं.

लखनऊ के आदित्य साइकिल पर बोर्ड और पोस्टर लगाकर झुग्गी झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाते हैं बच्चे उन्हें साइकिल गुरु कहते हैं. आदित्य अब तक हजारों बच्चों को प्राइमरी एजुकेशन दे चुके हैं.

मुंबई में 53 साल के यतींद्र जानते हैं कि वो पिछले 10 साल से क्या कर रहे हैं. वह अंधेरी स्टेशन के आसपास जेबकतरों द्वारा चुराए गए वॉलेट ढूंढ कर उन्हें उनके मालिकों तक पहुंचा रहे हैं. वह ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट देख सकें.

यह भी देखें: द नीलेश मिसरा शो: डियर शाहरुख खान जी, ये चिट्ठी आपके लिए है...

हमने इन अजीब लोगों की बातें नहीं सुनी. वो कहते गये कि प्लास्टिक मत इस्तेमाल करो और हमने नहीं सुना और हमारी नदियां और समंदर लाखों लाखों किला प्लास्टिक और कचरे से भर गए, खत्म होने लगे. वो कहते रहे कि नल बंद करदो, पानी बेकार बह रहा है. लेकिन हमने नहीं सुना और अब पानी का इंतजार करने लगे, देश के कई हिस्सों में टैंकरों पर जीने लगे.

वो कहते रहे कि खेतों में इतने कैमिकल मत डालो और हमने नहीं सुना और हमारी फसल, हमारा दूध, हमारी सब्जियों से हमारी नसों में कैंसर आने लगा. वो अखबार के संपादकों को लेटर टू एडिटर लिखते रहे कि धुंआ फेंकती फैक्ट्रियों और गाड़ियों पर लगाम लगाओ लेकिन हमने नहीं सुनी. और अब बच्चे मास्क लगा कर घर से निकल रहे हैं, जैसे स्कूल में नहीं अस्पताल जा रहे हों.

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वो किसी और की बातें थोड़े कर रहे थे. वो हवा जिसमें सांस लेनी थी, वो पानी जो बेकार बह रहा था, वो खाना जो हम खा रहे थे, वो नदियां जिनका गला घोंटा जा रहा था. वो सब हमारे ही तो थे. लेकिन हम सोचते रहे कि हमारी जिंदगी पर इनकी बातों का क्या फर्क पड़ना है. ये तो किसी और दुनिया की बात कर रहे हैं. हमने अपने ऐसी बदतमीजों की इस दुनिया के साथ और ऐसे लोगों के साथ कि जो आज की दुनिया हम अपने बच्चों को दे रहे हैं. उस दुनिया में शायद हम खुद कभी बड़े नहीं हो पाते.

लेकिन अभी भी सब खोया नहीं है. अगली बार इन अजीब लोगों को उस अजीब निगाह से मत देखिएगा. वो बगल वाली आंटी जब पेड़ों को बचाने की बात करें तो टेढ़ी मुस्कान के साथ टीवी मत देखने लग जाइएगा. वो दोस्त या भइया जब शहर के किसी कोने में जानवरों को बचाने के लिए दौड़े तो अपनी गाड़ी की चाभी दे दीजिएगा. वो अंकल जब मोहल्ला साफ करने के लिए श्रम दान को कहें तो बहाना मत बना दीजिएगा.

ये लोग, जिन्हें दुनिया इम्प्रैक्टिकल या मिसफिट मानकर हाशिए पर डाल देती है, जो लोग मुख्यधारा या मेनस्ट्रीम की धारा में बहने से इनकार कर देते हैं और जानबूझकर पूरी जिंदगी एक ऐसे काम के लिए खुद को झोंक देते हैं, जो उनकी ड्यूटी नहीं है...ऐसे लोग हमारे आसपास ही होते हैं. तो अगली बार ऐसे किसी ऐसे पागल, सनकी, झक्की, किसी ऐसे क्रेजी इंसान से टकराएं, तो शुक्र मनाइएगा कि ऐसे टेढ़े लोग, ऐसे अजीब लोग दुनिया में हैं...आंखों से पर्दा हटाकर खोजिएगा इन लोगों को...क्योंकि हमारे ये हीरो हमारे आस-पास हैं.

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