Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019UAPA, राजद्रोह के ढेरों झूठे केस, गुनहगारों को सजा क्यों नहीं?

UAPA, राजद्रोह के ढेरों झूठे केस, गुनहगारों को सजा क्यों नहीं?

UAPA, NSA के झूठे आरोप में फंसाने वाले पुलिस पर अदालतें कार्रवाई क्यों नहीं करती?

शादाब मोइज़ी
वीडियो
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<div class="paragraphs"><p>(फोटो: क्विंट हिंदी/कामरान अख़्तर)</p></div>
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(फोटो: क्विंट हिंदी/कामरान अख़्तर)

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वीडियो एडिटर- मोहम्मद इरशाद आलम

एक्टिविस्ट हो, विरोध प्रदर्शन करोगे- UAPA ठोक देंगे

पत्रकार हो, स्टोरी करोगे - राजद्रोह का केस लगा देंगे

डॉक्टर हो, अस्पताल की लापरवाही बताओगे - NSA लगा देंगे

फिर टॉर्चर, जेल, अदालत, तारीख पर तारीख, फिर जाकर मिलता है 'आधा इंसाफ', मतलब बेल या सालों बाद बरी. लेकिन तब तक इंसाफ पाने की प्रक्रिया ही सजा बन जाती है यानी  Process Is the Punishment..

ऐसे इक्का दुक्के मामले भी तकलीफदेह और खतरनाक हैं. लेकिन अफसोस ये एक ट्रेंड का रूप ले रहा है. अदालतें रिहाई या जमानत देकर आधा इंसाफ कर रही हैं लेकिन ऐसी नाइंसाफी करने वाले लोगों को कोई सजा नहीं दे रही हैं...इसलिए हम पूछ रहे हैं माइ लॉर्ड , जनाब ऐसे कैसे?

गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून यानी 'UAPA' के तहत दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद नताशा नरवाल, आसिफ तन्हा और देवांगना कलिता अब जेल से बाहर हैं, आजाद हैं. 5 जून को दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस अनूप जे. भंभानी की बेंच ने कहा कि पहली नजर में UAPA की धारा 15, 17 या 18 के तहत कोई भी अपराध तीनों के खिलाफ वर्तमान मामले में रिकॉर्ड की गई सामग्री के आधार पर नहीं बनता है.

अपने फैसले में हाई कोर्ट ने कहा,

“हमारे सामने कोई भी ऐसा विशेष आरोप या सबूत नहीं आया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि याचिकाकर्ताओं ने हिंसा के लिए उकसाया हो, आतंकवादी घटना को अंजाम दिया हो या फिर उसकी साजिश रची हो, जिससे कि UAPA लगे.”
दिल्ली हाई कोर्ट

कोर्ट ने ये भी कहा कि सरकार का विरोध और आतंकवाद अलग चीजें हैं लेकिन हाईकोर्ट के इतना कुछ कहने के बाद भी दिल्ली पुलिस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई. सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के ऑर्डर को बरकरार रखा. लेकिन ये भी कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला UAPA के किसी और मामले में नजीर नहीं बन सकता है. ये ऑर्डर भी बहस का विषय हो सकता है कि हाईकोर्ट का जमानत देना सही था तो नजीर क्यों नहीं बन सकता.

लेकिन फिलहाल हम ये पूछ रहे हैं कि  बार-बार सरकार से असहमत लोगों को झूठे केस और आरोपों में फंसाने वाली पुलिस-महकमों पर एक्शन लेकर अदालत कोई नजीर क्यों नहीं पेश करती?

चलिए आपको इन क्रूर कानूनों की क्रूरता दिखाते हैं.

जामिया के छात्र आसिफ तन्हा के खिलाफ यूएपीए लगा था, आसिफ से जब हमने यूएपीए के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा,

“मुझे यकीन था जेल से निकलेंगे जरूर, जेल में जाकर पता चला कि यूपीए क्या होता है. ये आतंक विरोध कानून है. ऐसा कोई काम जो देश विरोधी हो, देश की एकता अखंडता को नुकसान पहुंचाए, लेकिन मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया. फ्रीडम ऑफ स्पीच या किसी कानून को लेकर विरोध करना देश को नुकसान पहुंचाना कैसे हो गया? संविधान हमें हक देता है विरोध करने का, फिर कोई इन चीजों को आतंक के कैटेगरी में कैसे रख सकता है? असल में हमारा विरोध देश को नहीं सरकार के अहंकार पहुंच रहा था, इसलिए हम लोगों पर कार्रवाई हुई.”

9 साल तक नाइंसाफी

एक और मामला देखिए, महाराष्ट्र के नांदेड़ के रहने वाले मोहम्मद इरफान और मोहम्मद इलियास का. UAPA के तहत लगे आरोप में 9 साल जेल में बिताने के बाद एक विशेष अदालत ने दोनों को बाइज्जत बरी कर दिया है. दोनों को महाराष्ट्र पुलिस की ATS ने अगस्त 2012 में गिरफ्तार किया था.

इलियास के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो अदालत में केस लड़ पाते. बिजनेस बंद हुआ, गरीबी आई, बदनामी, मेंटल ट्रॉमा. अब 9 साल बाद अदालत ने कहा कि दोनों के खिलाफ कोई सबूत नहीं है.

खुद सोचिए कैसा इंसाफ... हेडलाइन क्या है, नौ साल बाद इंसाफ या नौ साल नाइंसाफी.

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सिद्दीक कप्पन

केरल के रहने वाले पत्रकार सिद्दीक कप्पन. उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दलित युवती के साथ गैंगरेप का मामला सामने आया था. जिसमें पुलिस ने युवती की मौत के बाद रातोंरात अंतिम संस्कार कर दिया था. जिसके बाद पत्रकार सिद्दीकी कप्पन, अतीक-उर-रहमान, मसूद अहमद और आलम हाथरस जा रहे थे, लेकिन इन्हें रास्ते में ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. चारों के खिलाफ UAPA के तहत आरोप लगाए गए.

पुलिस ने कप्पन, उनके साथियों और ड्राइवर पर शांति भंग की आशंका में मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया था. लेकिन इन लोगों की वजह से शांतिभंग हो सकती थी इसे लेकर पुलिस अदालत में कोई सुबूत नहीं पेश कर पाई, इसलिए यह केस बंद हो गया. फिलहाल UAPA के मामले में अभी भी कप्पन जेल में हैं.

आयशा सुल्ताना

एक और मामला है लक्षद्वीप की फिल्ममेकर और एक्टिविस्ट आयशा सुल्ताना का. एक टेलीविजन शो के दौरान लक्षद्वीप प्रशासक प्रफुल्ल पटेल को केंद्र सरकार का ‘बायोवेपन’ कहने पर आयशा सुल्ताना के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ. हालांकि अब इस मामले में केरल हाईकोर्ट ने आइशा सुल्ताना को अंतरिम अग्रिम जमानत (एंटरिम एंटिसिपेटरी बेल) दे दी है.

दरअसल, लक्षद्वीप के नए प्रशासक के कामकाज को लेकर सवाल उठ रहे हैं. प्रफुल्ल के पटेल पर लक्षद्वीप में कोविड फैलने से लेकर वहां के कल्चर, खानपान, शराब लाइसेंस देने, स्थानीय लोगों को उनकी संपत्ति से हटाने या ट्रांसफर करने का अधिकार जैसे मुद्दों को लेकर विरोध हो रहा है.

इसी मुद्दे पर आइशा ने भी अपनी आवाज उठाई थी, हां भाषा मर्यादित हो सकती थी, लेकिन इसके लिए राजद्रोह का मुकदमा खतरनाक है.

विनोद दुआ

यही नहीं सरकार की आलोचना पर सेडिशन का इनाम मिलने का एक और अजूबा मामला देखिए. ये मामला सीनियर पत्रकार विनोद दुआ की एक वीडियो से जुड़ा है. विनोद दुआ ने YouTube पर एक वीडियो अपलोड की थी और जिसमें केंद्र सरकार के कोविड लॉकडाउन की आलोचना की थी. आलोचना सहा नहीं गया और विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश पुलिस ने सेडिशन का केस दर्ज कर लिया. ये FIR हिमाचल प्रदेश के एक बीजेपी नेता ने कराई थी. लेकिन एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने विनोद दुआ के खिलाफ सेडिशन केस को रद्द कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में कहा,

“सरकार की आलोचना चाहे वो सख्त भाषा में ही क्यों ना की गई हो, उसके आधार पर सेडिशन केस नहीं लगाया जा सकता.”

ये तो कुछ उदाहरण हैं. इससे पहले अपने इसी सीरीज जनाब ऐसे कैसे में हमने आपको बताया था कि कैसे गुजरात में सूरत के एक कोर्ट ने Unlawful Activities (Prevention) Act मतलब UAPA के तहत 20 साल पुराने मामले में आरोपी बनाए गए 122 लोगों को बरी कर दिया था.

डॉक्टर कफील खान पर लगा था NSA

गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज वाले डॉक्टर कफील पर भी NSA लगा था. उस वक्त भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि कफील खान को जेल में रखना गैर-कानूनी है. कोर्ट के फैसले का सम्मान है, लेकिन जिन पुलिस वालों ने ये गैर कानूनी काम किया उन्हें सजा क्यों नहीं मिली? सजा तो आज भी कफील खान भुगत रहे हैं. उनकी बहाली नहीं हुई है.

UAPA, NSA के झूठे आरोप की वजह से बदनामी, तकलीफ, कानूनी लड़ाई, सालों साल जेल, मीडिया ट्रायल का दर्द जिन लोगों ने सहा है उनका वक्त क्या कोई लौटा सकता है? क्यों कोर्ट उन पुलिस वालों से उनके गुनाहों का हिसाब नहीं लेती है? क्यों अदालतें पुलिस को सिर्फ फटकार लगाकर छोड़ देती हैं?

अदालत का एक फैसला मिसाल बन सकता है. पुलिस को भी गुनाह का डर क्यों न हो? अदालत का काम इंसाफ का है, आधे इंसाफ से काम नहीं चलेगा. इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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