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एक साल पहले, हमारे पैरों तले जमीन खिसक गई थी जब ये पता चला कि हमारे पास रखे 500 और 1000 के सारे नोट बेकार हो गए हैं. क्या बकवास है? मेरी जेब में रखा मेरा पैसा कागज का टुकड़ा भर है!
हमारे कुछ दोस्तों की शादी होने वाली थी. अब एकाएक लगे इस झटके के अलावा, हमें कई जमीनी चीजों से जूझना पड़ रहा था,
ये सोचकर कि शादी का रंग फीका ना हो जाए, हमारी रातों की नींद उड़ गई थी.
लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेश के बाद 500 और 1000 के नोटों की कोई कीमत नहीं बची थी.
एक साल बाद भी, उस दिन के फैसले पर लोगों की राय काफी बंटी हुई है. एक हिस्सा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह नोटबंदी को “भारी त्रासदी” मानता है.
दूसरी तरफ सरकार का अपने बचाव में तर्क था कि इस कदम के पीछे मकसद था- सिस्टम की सफाई करना.
क्या ये फैसला बुरी तरह नाकाम साबित हुआ? इसका कोई आसान जवाब नहीं है. लेकिन हम आपको ये तो बता सकते हैं कि इस फैसले से क्या हुआ और क्या नहीं हुआ.
1. मोटी कमाई के रूप में कोई बोनांजा नहीं
विमुद्रीकरण की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद, सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि 8 नवंबर को रद्द घोषित किए गए 16 लाख करोड़ रुपए में से 10-11 लाख करोड़ रुपए बैंकों में लौटने की उम्मीद है. सरकार का मानना था कि बाकी, 5-6 लाख करोड़ की मोटी रकम, नगद में रखा काला धन है और वो बैंकों में नहीं आएगा. अगर यही हुआ होता तो सरकार को एक बार में ही कम से कम 5 लाख करोड़ रुपए का फायदा होता. लेकिन, रिजर्व बैंक के प्राथमिक अनुमानों के मुताबिक, कुछ हजार करोड़ रुपए को छोड़कर सारे नोट सिस्टम में वापस आ गए.
2. काले धन की विदाई हो गई क्या?
विमुद्रीकरण को काले धन का खात्मा करने के तरीके की तरह पेश किया गया था. कौन सा काला धन? गलत तरीके से जमा किया गया धन या ताजी काली कमाई?
परेशान करने वाला नजारा तो ये था कि अगले दिन से ही ट्रैफिक पुलिस टैक्सी ड्राइवरों से नगद में हफ्ता मांग रही थी. काले धन को इकट्ठा करने का काम बदस्तूर जारी था.
उस फैसले को सही ठहराने के पक्ष में एक दावा किया गया. आयकर विभाग ने 5 लाख से ज्यादा ‘संदेहास्पद’ खातों की पहचान की जिनमें कई हजार करोड़ रुपए के डिपॉजिट थे. इसके बाद एनफोर्समेंट एजेंसियां इन सभी खाताधारकों को ढूंढ़ निकालने के लंबे मिशन में जुट गई हैं. इसका एक नुकसान हो सकता है कि कुछ निर्दोष लोगों को भी जांच की प्रक्रिया से गुजरना पड़े, उनके साथ नाइंसाफी होने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता. और ‘छापा राज’ के सामने दिख रहे खतरे. तो फिर ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ के वादों का क्या?
3. नगद की जगह प्लास्टिक करेंसी
करेंसी नोटों की भारी कमी के बीच, सरकार ने डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा देने की कोशिश की. नोटबंदी के बाद के दो महीनों में डिजिटल ट्रांजैक्शंस में जोरदार उछाल भी आया.
लेकिन शुरुआती तेजी के बाद ग्रोथ में काफी गिरावट आ गई.
मिंट की रिपोर्ट के मुताबिक, मई में डिजिटल ट्रांजैक्शंस की वैल्यू नोटबंदी के पहले के स्तर पर पहुंच गई थी. हालांकि टेक्नोलॉजी को समझने वाले लोगों के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा देना उपयोगी जरूर साबित हुआ. भले ही डिजिटल ट्रांजैक्शंस कुल वित्तीय लेनदेन का एक छोटा सा हिस्सा है, डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर के फैलाव को सकारात्मक माना जाना चाहिए.
4. पुनर्मुद्रीकरण उम्मीद से ज्यादा तेज हुआ
ऐसी आशंका थी कि सिस्टम का पुनर्मुद्रीकरण करने में कम से कम 7 महीने लगेंगे. नोट छापने वाले चार प्रिंटिंग प्रेस की क्षमता महीने में 3 अरब नोट छापने की थी और चुनौती थी रिकॉर्ड समय में 21 अरब नोटों को बदलने की. हालांकि सिर्फ चार महीनों में पुनर्मुद्रीकरण पूरा हो गया था, जब बैंक से नोट निकालने पर लगे प्रतिबंध हटा लिए गए थे. साथ ही, जिस रिकॉर्ड समय में देश भर के एटीएम को नए आकार के नोटों के लिए अनुकूल बनाया गया, वो भी तारीफ के काबिल था.
5. बैंकिंग सिस्टम में ज्यादा पैसे का मतलब ग्रोथ को बढ़ावा?
विमुद्रीकरण को सही ठहराने के पक्ष में एक दलील दी गई थी कि हर कोई अपनी नगदी बैंक में जमा करेगा, जिससे बैंकों के पास ज्यादा फंड जमा हो जाएगा और ब्याज दरें नीचे आएंगी. कम ब्याज दरों का मतलब सस्ता कर्ज, जिससे कंज्यूमर और इंडस्ट्रियल डिमांड को बढ़ावा मिलेगा.
ब्याज दरें निश्चित रूप से कम हुई हैं. लेकिन फंड के जमा होने की वजह से नहीं. वो नीचे आई हैं क्योंकि कर्ज की ग्रोथ कई साल के निचले स्तर पर है. और बैंकों की तिजोरियां भले ही पैसों से भरी हों, उनकी सेहत में सुधार के कोई लक्षण नहीं दिख रहे.
और अब एक नया मोड़ आया है. बैंकों को कहा जाएगा कि वो अपने पास रखे अतिरिक्त पैसों से 1.35 लाख करोड़ रुपए के सरकारी रिकैपिटलाइजेशन बॉन्ड खरीदें. दूसरे शब्दों में, बैंकों का पैसा फिर से बैंकों के पास. जो देनदारी थी वो जायदाद बन जाएगी. गजब की अकाउंटिंग है ये! वित्तीय अनुशासन, ये क्या होता है!
तो क्या हमें नुकसान से ज्यादा फायदे हुए? ये बहस तो चलती रहेगी.
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