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मुनव्वर फारूकी (Munawar Faruqui) के कॉमेडी शो को रद्द करने के लिए बेंगलुरु पुलिस ने आयोजकों को जो चिट्टी लिखी वो खुद कॉमेडी से भरी है. भारत में पुलिस के पूर्वाग्रहपूर्ण बर्ताव पर नजर रखने वाले लोग जानते हैं कि शो रोकने के आदेश के पीछे मंशा क्या है? खराब भाषा वाली ये चिट्ठी उदाहरण है कि अपने सियासी आकाओं और उनके एजेंडे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कैसे पुलिस अपनी शक्तियों को दुरुपयोग कर रही है.
सबसे पहले, वे कहते हैं कि 'अपने विवादित बयानों और अन्य धर्मों पर विचारों के कारण मुनव्वर फारुकी एक विवादित व्यक्ति हैं.' भारतीय कानून में कहीं भी 'विवादास्पद' यानी शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है. मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार, विवाद एक बहस है जो प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. इसमें कहीं नहीं लिखा है कि विवाद कुछ अप्रिय या अवैध है. समाज में विवाद होना एक आम बात है. समाज में किसी भी समय, किसी भी बात को लेकर विवाद छिड़ सकता है. यहां तक कि देश की सबसे प्रतिष्ठित हस्तियां भी विवादों में रही हैं. अगर मैंने पौराणिक किरदारों से लेकर आधुनिक समय के किरदारों तक के विवादों को यहां सूचीबद्ध करना शुरू कर दिया, तो यह अपने आप में एक विवाद को जन्म दे देगा.
हो सकता है देश में कुछ लोगों ने मुनव्वर फारुकी के पिछले शो की आलोचना की होगी. ऐसे में सैद्धांतिक रूप से विवाद उन शो या टिप्पणी के बारे में हो सकता है. ऐसे में सवाल उठता है कि इससे क्या हुआ? क्योंकि तथ्यों के अनुसार विवाद या कंट्रोवर्सी होने का मतलब यह नहीं है कि उसमें कुछ अवैध है. 'कंट्रोवर्सियल' यानी विवादास्पद व्यक्ति होने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि पुलिस या समाज उसे जीने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर सके.#
सुप्रीम कोर्ट ने ज़हीरा हबीबुल्ला एच. शेख बनाम गुजरात राज्य (2004) में कहा था कि सरकारी वकील ने बचाव पक्ष के वकील के रूप में अधिक काम किया है, जिसका काम अदालत के सामने सच्चाई पहुंचाना था. फिर भी उन्हें सरकारी वकील के रूप में सेवा करने के लिए अयोग्य नहीं ठहराया गया था. क्या एक पुलिस IO (जांच अधिकारी) को सिर्फ इसलिए जांच करने से रोका जाता है, क्योंकि अदालतों ने कुछ मामलों में उसकी जांच के खिलाफ सख्ती की हो?
इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने खेद व्यक्त करते हुए कहा था कि कानून निर्माताओं यानी विधायिका से अपराधियों की पहचान करने के लिए कानून में बदलाव करने की मांग उनके (कोर्ट) द्वारा बार-बार की गई लेकिन वे हर बार अनसुनी कर दी गईं. सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटों के भीतर उनका आपराधिक इतिहास, (यदि कोई हो तो उसे) "आपराधिक इतिहास वाले उम्मीदवार" शीर्षक के तहत पार्टियों की वेबसाइटों के होमपेज पर प्रकाशित करने के निर्देश दिए थे. फिर भी इसके विपरीत एक विशेष नियम के अभाव में आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता है.
ऐसे में फिर क्यों एक साधारण से कॉमेडियन को उसकी आजीविका और बोलने की आजादी के अधिकार से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि कुछ लोगों ने उसके खिलाफ दुर्भावनापूर्ण रूप से आरोप लगाए हैं?
बेंगलुरु पुलिस ने उनके खिलाफ मध्य प्रदेश के मामले का विशेष रूप से जिक्र किया. लेकिन यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इनमें से किसी भी मामले में उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है. अगर उन्हें दोषी ठहराया गया होता और वे अपील करने पर भी हार जाते तो बेंगलुरु पुलिस की कार्रवाई में कुछ योग्यता हो सकती थी. दरअसल, इंदौर मामले में उन्हें जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप अस्पष्ट हैं.
मेचिनेनी किशन राव बनाम पुलिस आयुक्त हैदराबाद और अन्य (2002) के मामले में एक जुलूस की अनुमति से इनकार करते हुए पुलिस ने दावा किया था कि एक खुफिया रिपोर्ट थी कि पीपुल्स वार ग्रुप कैडर जुलूस और सार्वजनिक सभा में घुसपैठ करेगा. इसी वजह से अनुमति देने से इनकार किया गया था. बाद में तेलंगाना हाई कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया था और पुलिस को जुलूस के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था करने का आदेश दिया था. यहां पर भी यही तर्क लागू होता है.
किसी भी तर्कहीन या अनुचित को सही ठहराने के लिए खुफिया रिपोर्ट का हवाला देना पुलिस और सरकार की एक बहुत पुरानी चाल रही है. जबकि सच तो यह है कि खुफिया रिपोर्टों को अचूक मानने का कोई तार्किक या ऐतिहासिक कारण नहीं है.
भारत में इस समय सत्ता में बैठे राजनीतिक आकाओं के प्रति नौकरशाही की सुस्त भक्ति को देखते हुए उनकी रिपोर्ट को "पक्षपाती व्यक्तिपरकता" यानी “biased subjectivity” से भरा हुआ कहा जाता है. हम दुनिया में कहीं और भी “manufactured report syndrome” के प्रमाण पा सकते हैं. इराक पर अमेरिकी नेतृत्व वाले हमले से पहले पूरी दुनिया को यह विश्वास दिलाया गया था कि सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक विनाश के हथियार (Weapons of Mass Destruction या WMDs) हैं. बावजूद इसके इराक में वास्तविक निरीक्षण करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को कुछ हासिल नहीं हुआ था, यही वजह है कि वह रिपोर्ट सबसे बड़ी खुफिया धोखाधड़ी बनकर सामने आई.
इसके अलावा पेशेवर ईमानदारी यह निर्धारित करती है उस समय ये सवाल किए जाने चाहिए कि क्या उक्त खुफिया रिपोर्ट यथार्थवादी थी? यदि हां, तो कैसे?
शो का विरोध करने वाले कौन हैं और उनकी संख्या कितनी है? वे शो के विरोध की तैयारी के लिए क्या कर रहे हैं? विरोध तब भी हिंसक हो सकता है जब दो गुट आपस में भिड़ जाएं.
यहां हमारे सामने दूसरी पार्टी के रूप में एक अकेला कॉमेडियन है. चूंकि यह स्पष्ट है कि वह उनसे अकेले नहीं लड़ सकता, तो ऐसे में टकराव कैसे हो सकता है? वे कैसे सार्वजनिक शांति और सद्भाव को भंग कर सकते हैं, जिससे कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है?
बेंगलुरु पुलिस यह नहीं कह सकती कि उनके "एजेंट" या "मोल्स" में से एक ने उन्हें यह बताया था. एजेंटों या मोल्स पर भरोसा करने के लिए पहले उनकी सत्यता और ट्रैक रिकॉर्ड के बारे में निश्चिंत होना चाहिए. जो इतनी संख्या में लोगों को इकट्ठा करने वाले थे उन संगठनों या पार्टियों में एजेंटों की 'पहुंच' और उनके 'पहुंच का स्तर' क्या था. क्या वहां इतनी संख्या में लोग जुटने वाले थे जो पुलिस के लिए चिंता की बात हो सकते थें?
अगर पुलिस दावा करती है कि वे विरोधों से निपटने में असमर्थ होती, तो दो चीजों में से इसका मतलब केवल एक हो सकता है : या तो वे इतने अयोग्य हैं कि वे एक अनुमानित कानून-व्यवस्था की समस्या से निपटने में असमर्थ हैं, या उनकी खुफिया जानकारी को गढ़ा गया है. पुलिस यह तर्क नहीं दे सकती है कि उनके पास खुफिया जानकारी है कि कोई समस्या होगी, लेकिन यह नहीं पता कि इसका कारण कौन होगा, क्योंकि यह खुद का विरोध करने जैसा होगा. अगर वे लोगों को जानते थे तो पुलिस को उनके खिलाफ सीआरपीसी की धारा 107 (सिक्योरिटी फॉर गुड बिहेवियर) या उन्हें पहले से गिरफ्तार करने से किसने रोका?
आनंद चिंतामणि दिघे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2002) मामले में अदालत ने जोर देकर कहा कि कानून को लोकप्रिय धारणाओं के आगे नहीं झुकना चाहिए. लोकप्रिय अवधारणाएं चाहे कितनी भी मजबूत क्यों न हों वे संविधान में निहित आदर्शों व मूल्यों जिसे हमेशा एक स्वतंत्र समाज के लिए डिज़ाइन किया गया था, उससे ऊपर या आगे नहीं जा सकती हैं.
इसलिए पुलिस का यह कर्तव्य है कि जहां तक संभव हो सके वह कानून की रक्षा करे. बेंगलुरू पुलिस के पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अगर कॉमेडी कॉन्सर्ट की अनुमति दी जाती तो विरोध हिंसक हो जाता
यह बात जाहिर है कि आज के दौर में पुलिस का संवैधानिक आदर्शों और स्वतंत्रता की रक्षा करने का कोई इरादा नहीं है, क्योंकि वे अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए उत्सुक हैं और उनके राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने में उनकी मदद कर रही है.
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और केरल के डीजीपी रह चुके हैं. ‘स्टेट परसिक्यूशन ऑफ मायनॉरिटीज़ और अंडरप्रिविलेज्ड इन इंडिया’ और ‘वाई रेप्स: इंडियाज़ न्यू एपिडेमिक’ सहित उन्होंने 49 किताबें लिखी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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